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पुस्तक चर्चा
आ
एक बार और मर कर दिखाओ
इस समय, आराम पसंद लोग
ढलती उम्र में मन की उठान
उड़ान पर है संविधान
भूख है दरम्याँ सियासत नहीं
जहन्नुम में खुदकुशी! जी कोई खबर है क्या
अबकी हँसता हुआ कबीर
बातों में अब बहर कहाँ
यावत वरतं, ताबत बरतं!
दुख का कोई नहीं निदान
बुझारत पर डाका पड़ा था
नाना रूप धर कर निकले हैं
तर्जनी पर लगी, स्याही
खिड़की से समय में झाँकता हूँ
तयशुदा मकाम नहीं है
दिल का दखल गया
मिली जनतंत्र के जागीर में
ऊँचाई के माथे पर, लिखी ढलान
तेरी आबरू क्यों महज जिस्मानी है
एक दुर्लभ दृश्य
क्या मुश्किल है मिलना, एक बूँद आँसू और उसके भीतर ह...
क्योंकि, प्यास एक घटना है और नदी एक संभावना
पूजा का फूल लहुलुहान क्यों है
आखिर रही खोट कहाँ कयास में
तेरे वजूद को छूना चाहा
सूखे जज्वात का निहोरा
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खुद को जीना सिखलाया
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मैं ने अपने जख्मों को
अपने दुख पर हँसना सिखलाया
मैं ने अपने दुखों को
जख्मों पर मरहम बनना सिखलाया
इन दोनों ने मुझ को
मिलकर थोड़ा-सा जीना सिखलाया
मैं , मेरा दुख और मेरे जख्मों ने
हँसते-हँसते इस 'जीना ' के
साथ बिताया
पाला , पोसा बड़े जतन से
जख्मों को , दुख को , हँसने
को
लगा वक्त पर खुद को जीना सिखलाया
मेरे मन को वर्ण-विपर्यय कुछ ऐसा भाया
खुद को पुकारो , तो दुख आता है
दुख को पुकारो , तो खुद आता है
दोनों ने मिलकर ही नाच नचाया