अक्षांश और देशांतर के भिन्न मिलान पर हर बार तुम होती हो

अक्षांश और देशांतर के
भिन्न मिलान पर हर बार तुम होती हो

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जिन्हें प्यार करता
उन्हें भूलता नहीं
ऐसा नहीं कि
भूलना नहीं चाहता उन्हें
स्मृतियों का बोझ
कम त्रासद तो होता नहीं
हर बार नये देश और दोस्त की
तलाश में भटकता मन
भूल जाना चाहता है
पुराने कारणों और किरदारों को
भूल जाना चाहता है का मतलब
यह नहीं कि प्यार नहीं करता
भूल जाना चाहता है का मतलब
यह नहीं कि घृणा करता है मन
भूल जाना चाहता है

हर बार अक्षांश और देशांतर के
भिन्न मिलान पर भिन्न तरह से
कुछ नया पा लेना चाहता है मन

देखो न पहली बार
जब गौर से देखा चाँद
तो बस देखता ही रह गया
देखता रह गया और
आज तक नहीं भूला चाहकर भी
जितनी बार तुम्हें देखता हूँ
बस उसी नजर से देखता हूँ

पहली बार जब फूल से
मुखातिब हुआ
इतना हँसा हँसता चला गया
मैं भी और फूल भी
तुम्हारी हँसी भी
मुझे इसलिए पसंद है
इसलिए कि
उसमें उस पहले फूल की
खुशबू की साँस चल रही होती है

इतना ही नहीं सखी
मैंने जब दामोदर के ऊपर
उमड़ती भैरवी को देखा
देखा तो बस देखता ही रह गया कि अनोखा है यह

जब भी तुम हुलसती हो
मेरे अंदर-बाहर
दामोदर उमड़ आता है
अक्षांश और देशांतर के
भिन्न मिलान पर
हर बार तुम होती हो

सो नहीं लिखी जा सकी हमारे वक्त में कविता

सो, नहीं लिखी जा सकी
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घटनाओं की कोई कमी नहीं
शब्द भी बेशुमार थे
सहानुभूति दयानुभूति भी कम नहीं
हँसी ठिठोली उच्छ्वास तो अकूत

बस, बात इतनी - सी कि
दो बूँद आँसू का इंतजार पूरा न हुआ
सो, नहीं लिखी जा सकी
हमारे वक्त में कविता

संभव नहीं हो पाया
कविता में वक्त का लिखना

कविता में लिखे जाने से
वक्त का इनकार हादसा है
सो, नहीं लिखी जा सकी
हमारे वक्त में कविता

अफसोस कि
मेरी हुनरमंदी नाकाफी ठहरी
और नहीं लिखी जा सकी कविता

होता गम भी

ऐ काश कि तेरे रुखसार से मिलता जुलता कोई गुलाब होता
होता जिंदगी में गम भी मगर मारुफ नजर में कोई ख्वाब होता

जिस्म से जिरह

जान से बे-खबर
बे-जिस्म जीवन!
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बचपन की निरीह नादानी
यौवन की नैतिक चेतावनी
बुढ़ापे की बढ़ती बदचलनी

जिस्म-दर-जिस्म
जिस्म से जिरह

ओ मेरे पाठक! कृपया, इंतजार करें!
इंतजार!!

जो है नहीं उसका इंतजार?
हाँ, बिल्कुल किया जा सकता है!

जो है नहीं वह किसी का
इंतजार नहीं करता।

इतनी-सी! बस इत्ती-सी बात!
समझ नहीं आई!

जो था नहीं
कहीं किसी पाप-पुण्य में शामिल

हमने उसके ही इंतजार पर भरोसा किया
किया और भरपूर भरोसा किया,
बहुत ज्यादा

इस तरह एक ढोंग को पवित्र नाम दिया
इसी तरह इस जीवन को खर्च कर दिया

भूल गये कबीर!
देह देही बिन सबद न स्वादं!
बिन फागुन अबीर!
बिन कारण दंगा फसाद!

हाँ जी! जान से बे-खबर,
बे-जिस्म जीवन!