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श्वेत सदन में जमकर जिम रहे थे स्वयं श्री भगवान

उत श्वेत सदन में जमकर जिम रहे थे स्वयं श्री भगवान
इत एक-एक दाना के लिए तरस रहे हैं किसान
इत-उत डोल रहे पुरोहित करते हुए बड़े बखान
मुहँ बिधुआ कर फिर भी मुरझाया रहा  जजमान
चोर लुटेरों से पटा हुआ है ये धरती और आसमान
दौड़ रहा ऊमंग में गली-गली स्वच्छता अभियान
लोक अकिंचन तंत्र तो सचमुच है बहुत महान
कामकाज का नहीं ठिकाना कोई नहीं निदान
सूरज तो उग कर डूब जाता आता नहीं बिहान
श्वेत सदन में जमकर जिम रहे थे स्वयं श्री भगवान

तुम फूल लेकर मत आना

तुम फूल लेकर मत आना
———
मुझे पत्थरों से
बहुत डर लगता है,
वह किसी की मुट्ठी में हो,
आस्था या अक्ल में हो,
मन में हो या फिर वतन में हो।

मुझे पत्थरों से
बहुत डर लगता है
और इसलिए लिखता हूँ।

मैं पत्थरों पर तुम्हारा नाम
नहीं लिख सकता
अब इसका चाहे जो मतलब हो
मैं पत्थरों पर तुम्हारा नाम
नहीं लिख सकता
जैसे कि कविता! 

मुझे पत्थरों से
बहुत डर लगता है
पत्थर की लकीर हो
या हो पत्थर का फकीर।
तुम फूल लेकर मत आना।

खून मेरे जिस्म का

यह सब देखकर भी मुझ को कोई परेशानी नहीं है।
कैसे कह दूँ कि खून मेरे जिस्म का अब पानी नहीं है!

चलता हूँ सम्हलकर कौन कहता निगहबानी नहीं है!
फिर भी सफर जारी है कि कैसे कह दूँ मेहरबानी नहीं है!

मुफलिसी में भी तेरी ये हँसी तेरा भी कोई सानी नहीं है।
ये शरारत है दिल कहता है कि ये तेरी कोई नादानी नहीं है।

तेरी आवाज में है जादू कायम नहीं अब कोई रवानी नहीं है।
सब सह लेता है ये इसके हिस्से में कोई जवानी नहीं है।

करिश्मा रोज मिलता हूँ पर सूरत कोई पहचानी नहीं है।
हर कदम पर पहरेदारी कौन कहता कि निगरानी नहीं है।

ये रवैया ये फैसला देख कह दे अदालत कोई दीवानी नहीं है!
जो न मुतासिर खुलकर कह दे वह कोई हिंदुस्तानी नहीं है।