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इस ना-उम्मीद समय में प्रार्थना

भीड़ चाहे जितनी भी बड़ी हो
भीड़ का कोई कंधा नहीं होता
भीड़ के पास मार होती है
भीड़ के पास सम्हार नहीं होता है
राजा के पास 

बेकाबू भीड़ न फटके 

पूरा इंतजाम होता

राजा अपने बचाव में 

प्रजा को भीड़ में बदल देता है
भीड़ में बदलने और भीड़ से बचने 

को सियासत कहते हैं
हो सके तो भीड़ में बदले जाने से 

खुद को बचाना
भीड़ में बदले जाने से खुद को बचाना
तुम जो नागरिक हो 

आखिरी उम्मीद हो
उम्मीद हो मेरी जान

इस ना-उम्मीद समय में प्रार्थना! 
सियासत और भी है, बगावत और भी है! 

कभी-कभी ऐसा भी होता है! सुनो शोना... !

कभी-कभी ऐसा भी होता है!
सुनो शोना!
कल वल्लभ जी आये! बात-चीत होती रही। साहित्य, हिंदी साहित्य, से जुड़ी बात-चीत! जाते समय अपनी कविताओं की निहायत पतली-सी पुस्तिका दे गये --'सुनो शोना...!'
उलटने-पुलटने के लिहाज से उठाया तो बस इश्क के आकाश के एक अजाने-से क्षितिज के पार बढ़ता ही चला गया! इश्क की खोई हुई-सी जमीन जैसे बिछती चली गई! बाकी बातें विस्तार से तो फिर कभी, अभी तो इतना ही कि निस्संदेह ये कविताएँ हिंदी कविता के रकवा में एक नया एहसास है, कम-से-कम हिंदी कविता के मेरे अपने पाठानुभव के हासिल में तो जरूर। वल्लभ को धन्यवाद क्या कहूँ जिसने इश्क की टीस को एक लंबी पुकार से जगा दिया, पुनरुज्जीवित कर दिया। अलवत्ता, हरे प्रकाश उपाध्याय (संपादक, मंतव्य, लखनऊ) और गणेश गनी (साहित्यिक संपादक, हिमतररू, हिमाचल प्रदेश) के प्रति आभार प्रकट करना निहायत जरूरी है कि उन्होंने इस पतली-सी पुस्तिका का फ्लैप लिखकर इन कविताओं को पढ़ने की प्राथमिक प्रेरणा दी।
कभी-कभी ऐसा भी होता है शोना! 'सुनो शोना...!'
सुनो शोना!
चंद लम्हे उधार लेकर हयात से
कुछ हर्फ़ बोये थे तसव्वुर के..
अब, जब नज़्म खिलती है
तो तोड़ लेता हूँ
तुम्हारे सिरहाने छींटने के लिए।

गैर मुनासिब

कहता रहा तुम्हारी पसंदगी के मातहत!
कोताह कि गैर मुनासिब से कोई परहेज नहीं।