आप की राय सदैव महत्त्वपूर्ण है और लेखक को बनाने में इसकी कारगर भूमिका है।
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साहित्यकार का सपना और राजनीति का भ्रम
प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan
साहित्यकार का सपना और राजनीति का भ्रम
प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan
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साथ से नहीं, सेल्फी से परफूल!
सेल्फी से परफूल!
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सुबह-सुबह पास-पास
तुहिन-कणों से लदे-फदे
खिले-खिले दो फूल!
सुबह-सुबह!
इतने खिले-खिले कैसे!
सच फूल ने कहा!
- देखते नहीं परफूल!
हम दोनों हैं!
कितने पास-पास हैं!
साथ-साथ हैं!
- चल पगले!
हो जाये
तुम दोनों के साथ
मेरी भी एक सेल्फी!
चल ठीक है!
तू भी खिल जा!
आजकल
आदमी का मन!
साथ से नहीं
सेल्फी से खिलता है!
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अपने हाथ से
बने खाना
का मजा
कुछ और ही होता है।
क्यों मुरली, है न!
जिस मजा से खाये
अभी उसका चवन्नी भी
बड़े बड़े होटलों में
नसीब नहीं भाई!
चट बना
पट खाया
गरमागरम!
साथ धो लिया
किचेन बरतन
स्वच्छ इंडिया
सब हो गया!
अपने सिवा
किसी को
पता नहीं चला -
क्या मजा लिया!
क्या मजा लिया!
सूचना और संवेदना
समाज में हूँ, समाज में सब चलता है, बस .....
बनारस शहर नहीं, समास है
केदार नाथ सिंह की कविता बनारस
सपनों का हमसफर और यथास्थितिवाद की कराह
जय जय भैरवि
संदर्भ : जय जय भैरवि क गायन मे ठाढ़ भेनाइ
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विभूति आनन्द जी क एहि विचार आ व्यवहार क प्रति सम्मान आ समर्थन रखैत निवेदन।
आध्यात्मिक प्रसंग क भौतिक आख्या क अभाव एहि तरह क द्वंद्व क कारण भ जाइत छै। विद्यापति क एहि गीत में निहित सांस्कृतिक संघर्ष क करुण अनुगूँज आ संघर्ष क ऐतिहासिक समाहार क प्रेरणा सहज सुमति क विकल आकांक्षा क रूप में अभिव्यक्त होइत आएल छै। हम सहज सुमति क विकल आकांक्षा क उपलब्धि क तत्परता में मानसिक रूपें ठाढ़ होयबाक प्रति संवेदनशील हेबाक महत्व के बुझैत ओहि संवेदनशीलता क शारीरिक अभिव्यक्ति के संगे ठाढ़ हेबाक सामूहिकता क विरोध मे नहि जा सकैत छी। ठाढ़ भेला क बाद चलनाइ, आगू बढ़नाइ स्वाभाविक। एहि स्वाभाविकता क सम्मान नहि क बैस जाइत छी। शारीरिक रूपें ठाढ़ भेनाइ आ मानसिक रुपें बैस गेनाइ हमर सांस्कृतिक विडंबना अछि। संभव होय त शारीरक रूपें ठाढ़ होयबा स असहमति क बदले मानसिक रूपें बैस जेबाक प्रतिकार पर सोचब प्रासंगिक।