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खूँटे से बँधे बैल सा छटपट करता है मन


खूँटे से बँधे बैल सा छटपट करता है मन
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जब कभी
अत्याचार की घटनाओं की खबरों से
टूटता है मन, परत-दर-परत
खूँटे से बँधे बैल सा छटपट करता है मन

जीने के लिए बेहद जरूरी
और न्यूनतम जो खुशियाँ
आँख की कोर में सहेजकर रखता हूँ
जैसे पोखरिया सहेज कर रखती है जीरा

तपत नोर में
मछलियों की तरह
तड़फड़ाती है खुशियाँ

तड़पती है खुशियाँ
पोखरिया सिकुड़कर
कराही में तबदील हो गई जैसे
और तुम्हारी मुसकान उग्र भट्ठी में

मन तड़पता है कि
क्यों नहीं मुसलमान हुआ
क्यों नहीं दलित हुआ
औरत ही क्यों नहीं हुआ
आदि, आदि इत्यादि
कम-से-कम
अत्याचारियों के समूह में
गिने जाने से खुद को बचा ले जाता

अंधेरे के सच और उजाले के झूठ में फँसकर
मन ही बौड़म बना है, मालिक
अत्याचार पीड़ित को मेरा मन इंसान नहीं मानता
अत्याचार पीड़ित का मन मुझे इंसान नहीं मानता

आग में घिरे गऊ-गृह के बीच
खूँटे से बँधे बैल सा छटपट करता है मन

जादू

जादू की बुनियादी हकीकत को हर कोई जानता है  हकीकत 

भाषा और पेशागत व्यवहार पेशा के परिसर में भाषा लाचार


भाषा और पेशागत व्यवहार
पेशा के परिसर में भाषा लाचार!
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जीवन में भाषा का बड़ा महत्त्व है। हम किस तरह की भाषा में और कैसे लोगों से बात करते हैं। लोगों से हमारा संबंध इस बात पर निर्भर करता है। पेशागत लोगों से जैसे वकील, पुलिस, डाक्टर, अध्यापक या अफसर बाबू से हम किसी प्रयोजन से बात करते हैं तो उनका भाषागत व्यवहार या तेवर कुछ इस तरह का होता है, जैसे सामनेवाला निरा मूरख है। मूरख है, लाचार भी है। मूरख या लाचार होना चरित्र की दुर्बलता का सूचक नहीं हो सकता और न ही इस बिना पर किसी के साथ हीन व्यवहार करने का किसी को कोई हक मिलता है। यह संभव है कि उपस्थित संदर्भ में वह निरा अज्ञानी हो, जैसे बहुत बड़ा अध्यापक, बिजली तार जोड़ने के मामले में अज्ञानी हो या कोई डाक्टर अपने देश के इतिहास की बारीकियों को नहीं जानता हो। यह हम कब समझ पायेंगे कि कोई मूरख, लाचार, निर्धन भले हो वह मनुष्य है। भारत के संदर्भ में कहें तो भारतीय है, उसी तरह से और उतना ही जिस तरह से ज्ञानी गुनी, समर्थ और धनवान होते हैं। एक ही संविधान से शासित हैं हम, एक ही हमारा आधार है एक ही हमारा आकाश है, एक ही क्षितिज है एक ही विरासत है। हो सकता है मैं गलत होऊँ, लेकिन मुझे लगता है कि अपढ़ या अनपढ़ लोग इस देश की उतनी बड़ी समस्या नहीं हैं जितनी बड़ी समस्या पढ़े लिखे लोगों निरक्षराचारण है, समाज के प्रति, उपलब्ध संसाधनों के प्रति। निरक्षरता और मूर्खता में कोई अनिवार्य या जिसे कहते हैं अन्योनाश्रित संबंध नहीं होता है।
बहरहाल, हम साहित्य के संदर्भ में सोचें। आज साहित्य पर भी पेशेदारी का कोई कम दबाव नहीं है। अच्छा है, या नहीं इस पर अलग से बात हो सकती है, लेकिन पेशागत विशेषज्ञता, कई बार दंभ और भ्रम से भरी विशेषज्ञता के भी दबाव में साहित्यकार भी आ गये हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। कई बार अपने पाठकों से, अगर कभी जीवन में उससे मुलाकात हो जाये तो, हमारा पेशागत दुर्दमाीय बरताव पाठक को हम से पिंड छुड़ाने में ही अपना भला होने के निष्कर्ष तक अविलंब पहुँचने की प्रक्रिया में जुटा देता है। अन्य पेशादारों को झेलना उसकी दैनंदिन जरूरतों को पूरा करने की मजबूरी होती है, तो उसे झेल लेता है। साहित्य उसकी किसी दैनंदिन जरूरत से जुड़ा हुआ नहीं होता है। हाँ, कोई साहित्य का कक्षा विद्यार्थी या फिर परीक्षार्थी हो तो बात और है। तो, क्या हमें अपने पाठकों और श्रोताओं पर बौद्धिक अतिक्रमण से बचने की सावधान कोशिश नहीं करनी चाहिए! करनी चाहिए, बहुत सावधानी से यह सतर्क कोशिश करनी चाहिए। एक संदर्भ देता हूँ। तथाकथित, हास्य-व्यंग्य कवि सम्मेलन में जो श्रोता जाते हैं, वे अधिकतर मामले में समाज के समर्थ लोग होते हैं। उन कवियों के अर्थ-भार को उठाने में कुछ हद तक सक्षम भी होते हैं, कई बार उठाते भी हैं। इसलिए उनके प्रति उनका व्यवहार चारण जैसा होता है। इस चारण वृत्ति से उनकी कोई बुनियादी वृत्ति संतुष्ट होती है। प्रसंगवश, भाषा में भाट और चारण इतनी बार साथ-साथ प्रयुक्त होते हैं, तो उस का कोई तो कारण होगा। हम जैसे खुद को गंभीर और प्रगतिशील माननेवाले लोगों के जो श्रोता होते हैं वे भिन्न प्रकार के होते हैं और हम उनकी उस तरह की बुनियादी वृत्ति को संतुष्ट नहीं करते हैं। ऊपर से बौद्धिक अतिक्रमणवाला आपत्तिजनक आचरण, हर बार नहीं भी तो अधिकतर बार, उन्हें हम से दूर कर देता है। हमें अन्य पेशादारों, यदि हम खुद को भी पेशादार मानते हों तो खासकर, अपने पाठक (जिसे हम अचेतन रूप से ही सही हम अपना क्लाइंट मानने लगे हैं, हालाँकि वह इसके निकृष्टतम अर्थ में भी क्लाइंट होता नहीं है) जैसे व्यवहार से बचना चाहिए।
पेशा के परिसर में भाषा के लाचार हो जाने की स्थिति से अपना मन खिन्न है, दूसरे की खिन्नता की थोड़ी परवाह जरूर है! इसलिए, ये सारी बातें मैं अपने जन-व्यवहार के लिए सोच रहा हूँ, किसी अन्य के लिए नहीं। किसी अन्य के या आप के भी काम आ जाये तो क्या कहने!
एक बात और। पढ़-पढ़कर बोलता नहीं हूँ, बोल-बोलकर लिखता नहीं हूँ। हमेशा भवानीप्रसाद की चुनौती की याद रहती है कि जैसा बोलता है, वैसा लिखकर देख, जैसा लिखता है वैसा बोलकर देख। वैसा कर के देख। मुझे मानने में कोई संकोच नहीं कि मैं अक्सर इस कसौटी पर खुद को खोटा साबित होता हुआ पाता हूँ।

राजा को तुरंता सपना आया

राजा को तुरंता सपना आया
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यह एक कहानी है। कहानी में एक राजा है। सपना किसी को आ सकता है। तो, राजा को सपना आया। सपना सचमुच का आया। तुरंता सपना। सपना आया कि वह अपना हुलिया बदलकर प्रजा का हाल चाल और माल मलाल का जायजा लेने निकल पड़ा है। वह एक बगीचे में खड़ा है। देखता क्या है कि एक आदमी ऊपर से गिरा और धम्म की आवाज हुई। इस आवाज से सपना थोड़ा डोल गया, लेकिन रुका नहीं। वह सपना में करुणा से भीग गया। ध्यान रहे, यह कहानी है। सपना कहानी का हिस्सा है। इसका मिलान सच से करना बचकाना है। तो, करुणा से भीगा हुआ राजा आदमी के पास पहुँचा। राजा ने आदमी से पूछा, अबे क्या हुआ! आदमी चुप। गुस्ताख के चुप रहने से राजा को गुस्सा तो बहुत या लेकिन क्या करता। हुलिया बदल कर हाल जानने निकला था सो बेबस था। उसके अचरज का ठिकाना नहीं रहा जब उसने गौर किया कि वह रो भी नहीं रहा था। ऐसा तो होता ही है कि कोई किसी चीज पर गौर करने से अचरज से भर जाये। तो, राजा भी अचरज से भर गया। करुणा जब अचरज से भर जाये तो क्या होता है, आप जानते हैं। यह मियादी बात है। उसने आदमी से पूछा तू रो क्यों नहीं रहा है बे। आखिर तू इतने ऊपर से गिरा है। अब उस आदमी ने चुप्पी तोड़ी, कहानी में। उसने कहा, मैं रोऊंगा तो राजा की बदनामी होगी। लोग कहेंगे इस राजा के राज में आदमी रोता है। कुत्ता रोने से दूसरे का अशुभ होता है, आदमी के रोने से उसके खुद का अशुभ होता है।
राजा ने सोचा। सपना में सोचा। आदमी समझदार है। इस राज में समझदार लोग कम हैं। नहीं रोने से भी तो राजा की बदनामी होगी। लोग कहेंगे इस राजा के राज में रोने पर भी बंदिश है। आदमी फिर चुप। राजा को फिर गुस्सा आया। हुलिया बदलने से क्या होता है, गुस्सा तो राजा को आता ही है, बात-बात में। बहुत डराने पर आदमी ने कहा मैं कुछ भी बोलूंगा तो उसे राजा के पक्ष में याा फिर विपक्ष में घसीट ले जायेंगे। इस घसीटा-घसीटी में मेरा पक्ष तो खो ही जाता है। मेरा भी कोई पक्ष हो सकता है, यह कोई मानता ही नहीं है। मेरा पक्ष खो गया है। जिसका पक्ष खो जाये उसके लिए खामोशी ही एक मात्र सहारा है। इतने में राजा की आँख खुल गई। आँख खुल जाने के बाद सपने रफूचक्कर हो ही जाते हैं। कभी-कभी नींद भी उड़ जाती है।
दूसरे दिन राजा को फिर सपना आया। सपना में राजा ने दरबारियों को सपना का सच बताया। किसी दरबारी ने मुंह नहीं खोला। राजा ने पूछा कि क्या तुम लोगों का भी पक्ष खो गया है। जवाब कोई नहीं था। लेकिन राजा को गुस्सा नहीं आया। राजा के कान में अपनी ही आवाज आती रही। दरबारी अपनी मुंडी धुनते रहे। उधर, अपनी प्रतिध्वनि से राजा को लगता रहा कि सभी बोल रहे हैं। बोल ही नहीं रहे हैं, खुशी से झूम भी रहे हैं। अगले दिन राजा को क्या सपना आयेगा यह बाद की बात है। जब आयेगा, तब आयेगा। फिलहाल, अपनी मुंडी धुनते रहिये। ध्यान रहे, राजा को सपना आया। सपना में यह सब हुआ। यह तुरंता सपना में सच की कहानी है, सच में तुरंता सपना की कहानी।

बहुत घुटन है


बहुत घुटन है
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बहुत घुटन महसूस कर रहा हूँ, इन दिनों। बात दिल्ली की है, लेकिन दिल्ली तक सीमित नहीं है। जीवन के व्यापक धरातल पर इसे देखने की कोशिश की जानी चाहिए। हम साहित्य से जुड़े लोग हैं। हमारे पास इनपुट तो बहुत सारे स्रोत से मिलते रहते हैं, लेकिन साहित्य में उसका समावेश या निवेश एक भिन्न तरह से होता है। मैं पत्रकारिता पर बात करने की स्थिति में नहीं हूँ, हैसियत भी नहीं है। इतना जरूर कहना चाहता हूँ कि पत्रकारिता को अपने स्रोत से जिस तरह का इनपुट मिलता है, उसे हू-ब-हू न भी तो प्रस्तुति की शैली और संपादन में थोड़े-से बदलाव के साथ पत्रकारिता उसे प्रस्तुत कर सकती है। साहित्य ऐसा नहीं कर सकता है। साहित्य सूचित करने तक सीमित नहीं रह सकता है, बल्कि संवेदित करने के दायित्व से बंधा होता है। भाषा के जानकार बताते हैं, सूचना शब्द सूई चुभोने से विकसित हुआ है और आज एक नितांत स्वायत्त अर्थ में प्रयुक्त हो रहा है। लेकिन इसके मूलार्थ को एकदम से भूला ही न दिया जाये तो कहना चाहता हूँ कि सूई चुभोने का असर तो तभी हो सकता है न जब वह संवेदनशील या जीवंत जगह पर चुभोई जाये। संवेदनहीनता की पहचान है, सूचना में सूच्यता का न बच पाना। सूच्यता पर गौर करना होगा, शुचिता पर भी गौर किया जाना चाहिए। घुटन इसलिए महसूस होती है कि संवाद के माध्यम जितने विकसित और बढ़ते जा रहे हैं, व्यापक होते जा रहे हैं, संवाद के अवसर उतने ही कम होते जा रहे हैं। संवाद में असर, या कहें संवाद का असर उतना ही कम होता जा रहा है। विश्वास और भरोसा के अभाव में संवाद हो नहीं सकता और संवाद माध्यम, इसे मात्र पत्रकारिता से ही सीमीत कर न समझा जाये, विश्वास की रक्षा कर नहीं पा रहे हैं। विश्वास और भरोसा को सिर्फ और सिर्फ व्यवहार ही बहाल कर सकता है। हमारे नागरिक व्यवहार में क्या कुछ कमी रह गई है या रह जाती है इस पर जरूर गौर करना चाहिए कि विश्वास का कच्चा घागा कमजोर होता चाला जा रहा है। यह काम खुद ही कर सकते हैं, हमारे एवज में कोई अन्य इस काम को कर ही नहीं सकता है। साहित्य तो आज हास्यास्पद हो जाने की हद और शर्त्त तक हँसने-हँसाने तक सीमित होकर रह गया प्रतीत होता है। विदूषक में भी विद्वता तो होती है, लेकिन वह अपने विदूषण से अन्य का दोष दिखलाकर रुक जाता है, चुक जाता है। साहित्य सिर्फ विदूषण नहीं होता, न साहित्यकार विदूषक होता है। वह जय-पराजय, गुण-दोष के पार जाकर अपने श्रोता को आत्मावलोकन की स्थिति में ला खड़ा करता है। बाहर शोर बहुत है, आत्मावलोकन की जिस स्थिति तक श्रोता या पाठक को ले जाने की उम्मीद साहित्य से होती है, इस उम्मीद पर खुद बहु-प्रचारित, बहु-मान्यता प्राप्त या बहु-पुरस्कृत साहित्यकार भी कम ही खरा उतर पाते हैं। संकट यह भी है। साहित्य तो रोने और रुलाने तक विस्तृत होता है, हँसने-हँसाने तक उसका सीमित होते जाना साहित्य का दुखद प्रसंग है। इसलिए, घुटन का असर बढ़ता जा रहा है। भू-पर्यावरण के असंतुलन के कारण घुटन के बढ़ते हुए दायरे से कम घातक नहीं है, सभ्यता और संस्कृति के पर्यावरण में बढ़ते असंतुलन के कारण घुटन का यह बढ़ता हुआ दायरा। यह नागरिक जीवन-चर्या की बात है, इसे राजनीतिक दायरे में समेट कर देखना इस बात को अपटी खेत में मार देने के बराबर है।
अल्फाज थोड़े इधर-उधर हो सकते हैं, लेकिन भावार्थ नहीं, (Noor Mohammad Noor) नूर मुहम्मद नूर का एक शेर य़ाद आ रहा आज बहुत आपको भी सुनाता हूँः
बहुत घुटन है, मकीनो तुम्हारी बस्ती में
कोई राह निकालो, इक जरा सी हवा के लिए

जिंदगी इन दिनों, जीवन के अंदर, जीवन के बाहर

इन दिनों जिंदगी के लिए 
नया ककहरा बन रहा है
अद्भुत है इसकी सिसकी 
इसकी बारह-खड़ी
 जितनी जोर से 
चीख निकलती है बाहर
उतनी ही खामोशी से
सन्नाटा पसर जाता है अंदर 
किसी संवाद में नहीं है 
बाहर भीतर 

जिनके हाथ में झंडे हैं, 
किसी भी रंग के
उनके पास कान नहीं हैं साबूत
जिनके पास कान हैं बचे हुए थोड़े भी
उनकी जुबान नहीं 
भाषा की चौहद्दी में 
भाषा जय जय में सिमटकर रह गई है
जीवन जय के वेष में 
क्षय की शंकाओं से ग्रस्त 

ऐसे में 
कविता कैसे 
पढ़ी-पढ़ाई जाती होगी
कक्षाओं के अंदर, 
बाहर पढ़ाये जाने का
रिवाज नहीं रहा!

कविता
न चीख में बची है 
न सन्नाटा में 

इस ककहरा को सीखने 
इस बारह-खड़ी को सीखने 
लायक बचा क्या है!
जीवन के अंदर 
जीवन के बाहर!