राष्ट्रवाद का नया चेहरा नहीं, नये राष्ट्रवाद का चेहरा


राष्ट्रवाद का नया चेहरा नहीं, नये राष्ट्रवाद का चेहरा

भारत में राष्ट्रवाद का मोटे तौर पर अंग्रेजों से मुक्ति के  संघर्ष के दौरान विकसित हुआ। इसका व्यावहारिक पक्ष 1857 में दिखता है। 1857 में किसान जनता का बड़ा हिस्सा शामिल हुआ। यह सिर्फ सिपाहियों का मामला होता तो बलिया बागी क्यों होता! देश के साधारण जन पर अंग्रेजी हुकूमत का ऐसा कहर क्यों ढाया गया होता! 1857 पर काबू पाना आसान नहीं था, मगर पा लिया गया। कैसे काबू पाया गया, इस पर अभी यहाँ बात करने का अवकाश नहीं। अभी तो इतना ही कि 1857 पर काबू पाने के बाद अंग्रेज जो अपनी समझ से हिंदू मुसलमान को न सिर्फ अलग मान रहे थे, बल्कि एक दूसरे के विरोधी भी मान कर चल रहे थे। उन्हें भरोसा था कि उन्होंने राजपाट मुसलमानों का छीना है तो विरोध सिर्फ वहीं से होगा। दलित प्रताड़ित जनता तो खुद अपने लोगों से सदियों से परेशान हैं, तो खतरा वहाँ से भी नहीं हो सकता है। मगर ऐसा नहीं हुआ। उसमें हिंदू (सदियों से शोषित-प्रताड़ित जनता सहित) मुसलमान एक साथ मिलकर उनके विरुद्ध खड़े हो गये। हिंदू मुसलमान का एक साथ मिलकर खड़ा हो जाना भारतीय राष्ट्रवाद की पहली उठान था। अंग्रेज इस बात पर भौंचक्के रह गये थे। उनके बुद्धिजीवियों ने सलाह दी कि भारत को नहीं जानने के कारण ऐसा हुआ। उन्होंने भारत को जानने की कोशिश शुरू की। एक निष्कर्ष यह निकाला कि किसी देश पर शासन करने और जनता को काबू में रखने के लिए उसके धार्मिक रीति रिवाज और मान्यताओं को जानना बेहद जरूरी है। वैसा ही जरूरी है जैसा युद्धरत दुश्मन की शक्ति और शक्ति के स्रोत को जानना जरूरी है।
1857 पर काबू पा लिया गया था, मगर भरोसा हिल गया था। वे भारत के राष्ट्रवाद में निहित शक्ति को पहचान गये थे। बहुत जल्दी उन्होंने अपने प्रोजेक्ट की रूप रेखा बनाई और उस पर अमल शुरू कर दिया। नतीजा भारतीय राष्ट्रवाद बिखर तो नहीं गया, लेकिन दो फाड़ जरूर हो गया। द्विराष्ट्रीयता का सिद्धांत सक्रिय हो गया। यह नया राष्ट्रवाद था। जिसे स्थानापन्न राष्ट्रवाद कहा गया। जिसकी त्रासद परिणति भारत विभाजन के रूप में सामने आयी। पढ़ा-लिखा, समझ कुछ भी काम नहीं आया। यह इसलिए हुआ कि अंततः राष्ट्रवाद से जनता को विच्छिन्न कर दिया गया और दलों के राष्ट्रवाद ने उसका स्थान ले लिया। जनता हिंदू हो या मुसलमान लगभग ताकती रह गयी, दोष किसका था, कितना था, गिन-गिनकर क्या होगा! मतलब कि बात इतनी ही है कि विधाताओं ने नारकीय दुखों की पटकथा लिख दी। दलों के राष्ट्रवाद या कह लें स्थानापन्न राष्ट्रवाद से भारत परेशान और लहूलुहान होता रहा।
अब ऐसा लग रहा है कि भारत का पहले उभार का राष्ट्रवाद अपने नये रूप में प्रकट हो रहा है। इस अर्थ में यह भारत का नया राष्ट्रवाद है। इस में दलों की भूमिका सिकुड़कर शून्य होती चली जा रही है। यह बात समझ में आनी चाहिए कि भारत की विशिष्टताओं को, उसकी अंतर्निहित बहुलताओं को सुगठित दलों ने नहीं बिखरी-बिखरी-सी दिखने और लगने वाली जनता ने बनाया है, और वही उसे बचा ले जायेगी। मेरा अध्ययन सीमित है, ज्ञान तो खैर बहुत ही अपर्याप्त है। मूल रूप से जो भी सीखा है, बस साहित्य से सीखा है, इसलिए इस पर भरोसा कर लेगा कोई कि नये राष्ट्रवाद के चेहरे को पढ़ने में कोई गलती नहीं कर रहा हूँ, मैं नहीं मानता हूँ। लेकिन साहित्य समाज और जनतंत्र से जुड़ी संवेदना यही पढ़ पा रही है कि यह राष्ट्रवाद का नया चेहरा नहीं, नये राष्ट्रवाद का चेहरा है। यह मेरा भ्रम तो, भ्रम ही सही। हो अतिकथन, तो वही सही,  मैं भी फ़ैज अहमद फ़ैज को याद कर लेता हूँ और क्षमा सहित भरोसा कर लेता हूँ कि वो इंतजार था जिसका ये वही सहर है, ये वही सहर है चले थे जिसकी आरजू लेकर!

अपवाद की तरह जीना क्या होता है


अपवाद की तरह जीना क्या होता है
प्रफुल्ल कोलख्यान

मनुष्य इसलिए भी अन्य प्राणियों से अलग इस सृष्टि में अपना स्थान बना पाया है तो इसका एक प्रमुख कारण यह है कि इसने अपनी भाषा को विकसित किया है। भाषा के बनने या होने में व्याकरण की बड़ी भूमिका होती है। व्याकरण पढ़ते समय हम देखते हैं कि भाषा में कुछ नियम ऐसे होते हैं जिन पर उस भाषा के साधारण नियम लागू नहीं होते हैं, इन्हें अपवाद की श्रेणी में डाल दिया जाता है। अपवादों पर नियम लागू नहीं होते, इसलिए नियमों के आधार पर उन्हें गलत नहीं ठहराया जा सकता है। भाषा के विकसित होने में इन अपवादों की बड़ी भूमिका होती है। यही जीवन में भी होता है। विकसित भाषा ने उसे बहुत बड़ी ताकत दी है, कौशल दिया है। सृष्टि के जीव जंतु पर गौर करने से यह बात समझ में आ सकती है कि मनुष्य उन में अपवाद है। बात खुद-ब-खुद समझ में आ सकती है, फिर भी कुछ उदाहरण। संसार का कोई प्राणी कपड़ा नहीं पहनता, किसी प्राणी ने अपने लिए स्कूल-कॉलेज, गाड़ी-घोड़े की व्यवस्था नहीं की है, इत्यादि।
मनुष्य अपने आप में एक अपवाद है। मनुष्य इसलिए भी अपवाद है कि उसने अपवाद के महत्व को समझा और उसे अपने बीच जगह दी। विकास के जितने भी प्रकरण हैं उन के होने में अपवादों की गहरी भूमिका है, इसके साथ यह भी कि उन अपवादों के वजूद को कायम रखने में नियमों की भूमिका भी कोई कम बड़ी नहीं है। इस बात को स्वीकार करते हुए भी, यह तो मानना ही होगा कि नियमवालों ने अपवादों की जिंदगी को कम मुसीबत में नहीं डाला। वैसे तो जरूरत नहीं है, फिर भी कुछ उदाहरण का उल्लेख इस से बात को समझने में मदद मिल सकती है। सुकरात, गौतम, वाल्मीकि, शेक्सपीयर, एडीसन, विवेकानंद, तुलसी, कबीर, गाँधी, आंबेदकर, भगत सिंह, बिल गेट्स और इन जैसे बहुत सारे लोग आदि अपवाद ही तो हैं। उनकी जीवनी को समझें तो पता चलते देर नहीं लगेगी कि अपवादों का जीना, खासकर प्रारंभ में, कितना मुश्किल होता है। सवाल उठता है कि कुछ को नियम से बाहर रहने को क्यों मान लिया जाता है या यह कि कुछ को नियम से बाहर रहने की अनुमति ही क्यों दी जाती है। जवाब सीधा और सरल है। क्योंकि अपवाद ही विकास और परिवर्तन के वाहक होते हैं।
अपवादों के रास्ते का बाधक होने से बचना चाहिए। जानना चाहिए कि अपवाद क्या होता है। अपवाद बनने की क्या प्रक्रिया होती है। इस समय सभ्यता में धीरे-धीरे अपवाद बनने की स्थिति कमजोर पड़ती गई है। यह जरूरी नहीं कि यही स्थित सदैव रहेगी। मुश्किल यह है कि अपवाद को उसके प्रारंभिक अवस्था में समझ पाना बहुत आसान नहीं होता है। जब हमारे चारों तरफ एक जैसा या एकरूपता का कोलाहल है, नियमबद्धता का दबाव है क्या हम अपने आस-पास बनते किसी अपवाद को पहचान सकने की क्षमता रखते हैं। कोशिश तो करें। हम अपवाद बन नहीं सकते, कम-से-कम किसी बन रहे अपवाद के प्रति संवेदनशील तो हो ही सकते हैं। क्या पता किस बनते हुए अपवाद से सभ्यता को सार्थक दिशा मिल जाये!