tag:blogger.com,1999:blog-1783622827187886933.post4719639388109725243..comments2023-10-30T15:20:13.292+05:30Comments on विचार और संवेदना का साझापन: श्रद्धा से तिकड़म का नाताः पियो संत हुगली का पानीप्रफुल्ल कोलख्यान / Prafulla Kolkhyan http://www.blogger.com/profile/08488014284815685510noreply@blogger.comBlogger6125tag:blogger.com,1999:blog-1783622827187886933.post-20706248885609502442013-11-18T10:31:30.907+05:302013-11-18T10:31:30.907+05:30आभार.. बहुत आभारआभार.. बहुत आभारप्रफुल्ल कोलख्यान / Prafulla Kolkhyan https://www.blogger.com/profile/08488014284815685510noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1783622827187886933.post-63965094564536768272013-11-18T10:31:15.302+05:302013-11-18T10:31:15.302+05:30आभार.. बहुत आभारआभार.. बहुत आभारप्रफुल्ल कोलख्यान / Prafulla Kolkhyan https://www.blogger.com/profile/08488014284815685510noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1783622827187886933.post-57088518411533431312013-11-18T10:30:49.463+05:302013-11-18T10:30:49.463+05:30आभार.. बहुत आभार.. आभार.. बहुत आभार.. प्रफुल्ल कोलख्यान / Prafulla Kolkhyan https://www.blogger.com/profile/08488014284815685510noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1783622827187886933.post-52929747840925567722013-11-17T23:00:50.749+05:302013-11-17T23:00:50.749+05:30बांग्ला में जातीयता --का अर्थ ,. राष्ट्रीयता ,से ह...बांग्ला में जातीयता --का अर्थ ,. राष्ट्रीयता ,से होता है । नागार्जुन की कविता उस लेटे हुए साधु ,.. पियो संत हुगली का पानी ,,,पैसा सच है ,.. । बहुत अच्छा संदर्भ जोड कर आपने सही चिंता व्यक्त की है । पैसा सबसे बडा सच है । हिन्दी भाषा -भाषी लोक-जनमानस अपने साहित्य से विमुख होती जा रही है इस विमर्श पर हिन्दी मे ऎसा कोई नही दीखता जिसे पढने लिये लोगो में दीवानापन हो , यह दुर्भाग्यपूर्ण है जब कि यही लोग विदेशी साहित्य बडे चाव से पढते और गर्व से उनका उद्धरण देते है । बहरहाल ,.एक अच्छे अर्थपूर्ण लेख के लिये आपका आभार ।<br />Anavrithttps://www.blogger.com/profile/12922177615881087957noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1783622827187886933.post-81273468875928827872013-11-17T20:09:00.669+05:302013-11-17T20:09:00.669+05:30मूल मुद्दा यह है कि वैश्वीकरण की तीव्र आँधी के इस...मूल मुद्दा यह है कि वैश्वीकरण की तीव्र आँधी के इस युग में जातीयता, निजीकरण के इस हंगामेदार समय में बिलाती जा रही निजता और सामाजिकता तथा झुककर सलाम बजाने के इस युग में जुझारूपन हासिल कैसे किया जाये? क्या बाजारवाद की संस्कृति में, जहाँ रेंगने की ही गुंजाइश है, कुछ लोग हाथ में लुकाठी लेकर खड़ा होने का साहस जुटा पायेंगे? क्या हिंदी समाज श्रद्धा से तिकड़म का नाता तोड़ने का प्रयास कर पायेगा? सवाल यह भी है कि इस प्रयास में हिंदी साहित्य के युवा हस्तक्षेप की प्यासी पथरायी आँखें चौराहे के उस नुक्कड़ पर अपनी क्या भूमिका तय करती है? क्या नागार्जुन का तंज और उसके संकेत कि पियो संत हुगली का पानी, पैसा सच है दुनिया फानी अश्रुत ही रहेगा? क्या हिंदी समाज में कविता के संस्कार के प्रवेश की चिंता काव्य संकलन की बिक्री की चिंता से बहुत आगे की चिंता भी नहीं है? क्या हिंदी समाज का अधीर भविष्य इस सवाल के जवाब की प्रतीक्षा बहुत समय तक कर पाने की स्थिति में है?krishnakanthttps://www.blogger.com/profile/13695619182914576814noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1783622827187886933.post-46783653146050547682013-11-17T20:05:31.973+05:302013-11-17T20:05:31.973+05:30उठाए गए सभी सवाल एकदम जायज हैं. हमारी सहमति है. उठाए गए सभी सवाल एकदम जायज हैं. हमारी सहमति है. krishnakanthttps://www.blogger.com/profile/13695619182914576814noreply@blogger.com