tag:blogger.com,1999:blog-1783622827187886933.post5375294854700277019..comments2023-10-30T15:20:13.292+05:30Comments on विचार और संवेदना का साझापन: सभ्यता के गर्भाशय से जारी इस रिसाव के बारे मेंप्रफुल्ल कोलख्यान / Prafulla Kolkhyan http://www.blogger.com/profile/08488014284815685510noreply@blogger.comBlogger6125tag:blogger.com,1999:blog-1783622827187886933.post-74385273111890985072012-12-21T11:55:08.817+05:302012-12-21T11:55:08.817+05:30आभार और शुक्रिया...आभार और शुक्रिया...प्रफुल्ल कोलख्यान / Prafulla Kolkhyan https://www.blogger.com/profile/08488014284815685510noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1783622827187886933.post-51808776291449568272012-12-21T11:52:06.038+05:302012-12-21T11:52:06.038+05:30आप भी सोचिये... कि सोचना जरूरी है...
घास स्त्री ल...आप भी सोचिये... कि सोचना जरूरी है... <br />घास स्त्री लिंग है हिंदी शब्दानुशान में। इतिहासानुशासन में इस तरह से पराभव का यह स्वीकार पुरुष व्यवहार है। शब्दानुशान और इतिहासानुशासन में से किसी एक के अतिक्रमण की मजबूरी सामने होने की इस स्थिति में कविता ने शब्दानुशान के अतिक्रमण का अपराध करते हुए इतिहासानुशासन को बचाने का प्रयास किया हो, क्या पता!<br />पलासी में प्रतिरोध हुआ होता तो हमारे जैसे कायरों, अर्थात, घास की इतनी वृद्धि नहीं हुई होती, जिनकी कायरता का ‘लाभ’ उठाते हुए शुभ को क्षतिग्रस्त करनेवाले यह सत्ता-लोभी-वर्ग अर्थात, राजनीतिक नेतृत्व का बड़ा समूह, वजूद में नहीं होता जिनकी जमीर को खा-पचाकर पलते हैं बाघ अर्थात, पूँजी के बल पर दुनिया दखल करने के अभियान पर लगा पूँजी से जुड़ा बड़ा वर्ग। बाघ सीधे घास नहीं खाते - पूँजी से जुड़ा यह बड़ा वर्ग सीधे अपना उल्लू सीधा नहीं करता है, बल्कि इसके लिए वह हमारे प्रतिनिधियों और राजनीतिक व्यवस्था, अर्थात लोकतंत्र को साधता है। बाघ लेकिन लोकतंत्र से ही मरता है। इसीलिए स्थिति की नजाकत को भाँपते हुए बाघ महाराज ने कहा, असल, मुसीबत की जड़ यह लोकतंत्र है, बाघ इसी लोकतंत्र से मरते हैं। इसलिए बाघ, अर्थात, पूँजी के बल पर दुनिया दखल करने के अभियान पर लगा पूँजी से जुड़ा बड़ा वर्ग, लोकतंत्र को ‘सम्हालने’ पर लगा हुआ है...<br />रधुवीर सहाय की कविता को उम्मीद थी कि न टूटे सत्ता का तिलस्म, अंदर का कायर तो टूटेगा... वह कायर तो और मजबूत ही हुआ है.. इस नीच ट्रेजडी को समझते हुए मुक्तिबोध की कविता इस मनोभाव के आस-पास पहुँच जाती है कि पूँजी से जुड़ा हृदय बदल नहीं सकता. ... यह समाज चल नहीं सकता... मगर यह समाज चल रहा है हमारे जैसे कायरों के बल पर जिनके काँधे पर नागार्जुन की कविता बताती है कि लदी हुई पालकी लाला (ला.. ला) अशर्फी लाल की.. दर्द हो या हिंदी की कविताएँ और भी हैं ... <br />क्या कहते हैं भाई महेश.. जब डूबता है देश तो ... <br />बाघ का घास खाना व्यंजना नहीं है। हिंदी शब्द-शक्ति में व्यंजना का अभिधार्थ (अभिधेयार्थ) खंडित नहीं होता है। शब्द-शक्ति के संदर्भ से यह लक्षणा है और लोक-व्यवहार के संदर्भ से मुहावरा। आप जानते हैं मुहावरा वह शब्द-युग्म या वाक्य खंड होता है जिसका अर्थ उस शब्द-युग्म या वाक्य खंड से बाहर (Beyond) जाकर स्थिर होता है और भिन्न अर्थ में व्यंजना होने को सिद्ध कर लेता है या कभी-कभी व्यंजना होने का आभास गढ़ लेता है।<br /><br />खैर आप इतने ध्यान से पढ़ते हैं मेरे लिए यह आह्लादकारी है, सहारा भी। शुक्रिया। स्नेह बनाये रखें।<br /><br />प्रफुल्ल कोलख्यान / Prafulla Kolkhyan https://www.blogger.com/profile/08488014284815685510noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1783622827187886933.post-11506804548133288352012-12-21T09:10:33.435+05:302012-12-21T09:10:33.435+05:30'बाघ का घास खाना व्यंजना है.''बाघ का घास खाना व्यंजना है.'<br /> mahesh mishrahttps://www.blogger.com/profile/05444936923565480363noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1783622827187886933.post-29491497166583900652012-12-21T09:01:44.622+05:302012-12-21T09:01:44.622+05:30'जरूरी है देश' कविता बहुत अच्छी है. यह कवि...'जरूरी है देश' कविता बहुत अच्छी है. यह कविता संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदन दोनों को एक साथ सहेज कर चल रही है...कितना अच्छा है आपका पर्यवेक्षण और कितनी वृहद दृष्टि...प्रकृति और मनुष्य में साहचर्य, सहजीवन...मर्यादा और एकत्व...कबीर की लुकाठी...mahesh mishrahttps://www.blogger.com/profile/05444936923565480363noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1783622827187886933.post-63986193025656626632012-12-21T06:38:52.523+05:302012-12-21T06:38:52.523+05:30आदरणीय महेश जी, आभार ... पलासी में प्रतिरोध हुआ हो...आदरणीय महेश जी, आभार ... पलासी में प्रतिरोध हुआ होता ... तो घास रौंदे गये होते.. लहरा नहीं रहे होते ... बाघ की घास चिंता से भी जोड़कर देखने की कृपा करें ...<br />तात्पर्य यह नहीं कि दोनों कविताओं को जोड़कर पढ़ें बल्कि यह कि अपनी, स्मृति, मेधा, संस्कृति, बोध, इतिहास, राजनीति, प्रज्ञा और भाषा की आत्म-संयुक्ति के आस-पास कविताओं को ले जाकर पढ़ना चाहिए। एक बात और हिंदी शब्दानुशासन में "घास" स्त्रीलिंग है... इस कविता में घास पुलिंग रूप में व्यवहृत है ... यहाँ हिंदी शब्दानुशासन का अतिक्रमण है ... यह अतिक्रमण क्यों है.... इस पर भी सोचने की जरूरत है... <br />प्रफुल्ल कोलख्यान / Prafulla Kolkhyan https://www.blogger.com/profile/08488014284815685510noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1783622827187886933.post-4828850679110964432012-12-20T20:05:50.679+05:302012-12-20T20:05:50.679+05:30"बाघ घास नहीं खाते लेकिन उन्हें घास की चिंता ..."बाघ घास नहीं खाते लेकिन उन्हें घास की चिंता करनी होगी"<br /><br />"विडंबना यह कि पूर्ण सत्य को हम झेल सकते नहीं और अर्धसत्य हमें नहीं झेल पाता है"<br /><br />"फिर भी जो बिकते नहीं उनका विसर्जन भी संभव नहीं होता"<br /><br />बहुत अर्थवान कवितायेँ. अप्रतिम और शानदार. पलासी कविता में पलासी किस रूपक के लिए व्यंजित है, कृपया समझाइये.mahesh mishrahttps://www.blogger.com/profile/05444936923565480363noreply@blogger.com