tag:blogger.com,1999:blog-1783622827187886933.post8494294834914151184..comments2023-10-30T15:20:13.292+05:30Comments on विचार और संवेदना का साझापन: लोकतंत्र का चेहरा, चरित्र और सिविल सोसाइटीप्रफुल्ल कोलख्यान / Prafulla Kolkhyan http://www.blogger.com/profile/08488014284815685510noreply@blogger.comBlogger3125tag:blogger.com,1999:blog-1783622827187886933.post-8274512513906164802012-12-17T17:07:13.740+05:302012-12-17T17:07:13.740+05:30naagrik jamaat ka raasta padh liya..hamesha ki tar...naagrik jamaat ka raasta padh liya..hamesha ki tarah behad susangat...maovaad aur civil society ki nakaaratmak anukoolta aur sakaaratmak pratikoolta ke bindu kaun kaun se hain..ye bataiye...halanki ye pad ab meri samajh me aa gaya..bahut bahut shukriya.mahesh mishrahttps://www.blogger.com/profile/05444936923565480363noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1783622827187886933.post-16390815787376786492012-12-17T15:57:07.288+05:302012-12-17T15:57:07.288+05:30आदरणीय, महेश मिश्र जी इसे इतने ध्यान से पढ़ने के ल...आदरणीय, महेश मिश्र जी इसे इतने ध्यान से पढ़ने के लिए आभार।<br />'सकारात्मक प्रतिकूलता किंतु नकारात्मक अनुकूलता का संबंध है, स्पष्ट करिए।' प्रत्येक घटना का प्रभाव दो तरह का होता है - सामाजिक संबंध तंतुओं को पुष्ट करनेवाला अर्थात, सकारात्मक दूसरा प्रभाव नकारात्मक होता है अर्थात सामाजिक संबंध के तंतुओं को क्षति पहुँचानेवाला। एक ही परिवृत्त में जब दो बड़ी घटनाएँ साथ-साथ घटती हैं तो उनके इन प्रभावों में भी संबंध बनता है, ये प्रभाव कई बार परस्पर संवादी, सहकारी और कई बार विघटनकारी भी होते हैं। इस लेख में यह परिवृत्त राजनीतिक लोकतंत्र है और जिन दो घटनाओं का संदर्भ लिया गया है उनमें एक सिविल सोसाइटी की गतिविधि है और दूसरी माओवाद संचालित गतिविधि है। यहाँ इनमें "सकारात्मक प्रतिकूलता किंतु नकारात्मक अनुकूलता का संबंध" को लक्षित करते हुए यह बताने की कोशिश की गई है कि सिविल सोसाइटी और माओवाद संचालित गतिविधियों के नकारात्मक प्रभाव परस्पर संवादी और सहकारी हैं ये एक दूसरे को पुष्ट करनेवाले हैं जबकि इनके सकारात्मक प्रभावों में विघटनकारी संबंध है अर्थात एक दूसरे के प्रभाव की सकारात्मकता को कमजोर बनाते हैं। तात्पर्य, सकारात्मकता के मामले में एक दूसरे के प्रतिकूल हैं और नकारात्मकता के मामले एक दूसरे के अनुकूल हैं। सामज से उदाहरण लें तो दो ऐसे व्यक्ति परस्पर अच्छे मित्र दिखेंगे जो समाज अहितकर काम में एक दूसरे का 'निष्ठापूर्वक' साथ दिया करते हैं, लेकिन समाज हितकर काम को हाथ में लेने के मामले में एक दूसरे को हतोत्साहित करते हैं और साथ नहीं देते हैं -- इनमें भी सकारात्मक प्रतिकूलता किंतु नकारात्मक अनुकूलता का संबंध होता है।<br />'राजनीतिक लोकतंत्र में से सिविल सोसायटी का संभाव्य गंतव्य' के संबंध में आप से अनुरोध है कि ब्लॉग पर उपलब्ध 'नागरिक जमात का रास्ता' देखने की कृपा करें। जरूरत हुई तो दोनों का स्पष्टीकरण एक साथ देना समीचीन होगा। पुनः आभार.. आपके उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी... प्रफुल्ल कोलख्यान / Prafulla Kolkhyan https://www.blogger.com/profile/08488014284815685510noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1783622827187886933.post-17227940902072145362012-12-17T15:19:14.536+05:302012-12-17T15:19:14.536+05:30'बहुत जल्दी सिविल सोसाइटी सिर्फ दबाव समूहों के...'बहुत जल्दी सिविल सोसाइटी सिर्फ दबाव समूहों के रूप में ही नहीं बल्कि समानांतर सत्ता-समूहों में बदल जायेगी और लोक के प्रति जवाबदेह और लोकानुमोदित लोकतांत्रिक सत्ता पर अमरवेलि की तरह छा जायेगी।'<br /><br />अमरबेलि जो अपना प्राणरस उसी जनता से लेगी किन्तु उसके लिए उपयोगी नहीं होगी।<br /><br />' सिविल सोसाइटी की बढ़ती शक्ति तथा गतिविधि के साथ लोकतंत्र के अंतःपुर में पहले से प्रभावी नवब्राह्मण-तंत्र (मेरिटोक्रेसी) और अधिक बलीयान हो जायेगा।'<br /><br />'एक बात साफ होने पर भी साफ कर देने की जरूरत है कि अन्ना हजारे, माओवाद संचालित सशस्त्र संघर्ष या आतंकवाद को एक ही नहीं बताया जा रहा है। ये न सिर्फ भिन्न हैं बल्कि कई बार परस्पर प्रतिकूल भी हैं फिर भी इनके अंतस्संबंध पर गौर करने से आभासित होने लगता है कि इनमें सकारात्मक प्रतिकूलता किंतु नकारात्मक अनुकूलता का संबंध है। '<br /><br />सकारात्मक प्रतिकूलता किंतु नकारात्मक अनुकूलता का संबंध है, स्पष्ट करिए।<br /><br />'भारत की सामुदायिक व्यवस्था में लोकतंत्र की मूल चेतना हमेशा सक्रिय रही है। यह जरूर है कि राजनीतिक व्यवस्था में लोकतंत्र की चेतना का वैसा ही समावेश नहीं रहा है।'<br /><br />'भारत में सामुदायिक लोकतंत्र का अवशेष आज भी अपने घिसे-पिटे और कदाचित विकृत रूप में जिंदा है। खाप या फिर जाति आधारित पंचायतों में इसकी झलक मिल जाती है।'<br /><br />'सामुदायिक लोकतंत्र एक सांस्कृतिक निर्मिति है जिसके भीतर पहचान का आग्रह और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का तर्क तत्पर रहता है और सामाजिक लोकतंत्र राजनीतिक निर्मिति है जो राष्ट्र से अधिक समाज को महत्त्व देता है और आगे चल कर समाजवाद के राजपथ की तलाश करने लगता है। जबकि पूँजीवाद के मर्म से निकला राजनीतिक लोकतंत्र समाज से अधिक राष्ट्र को महत्त्व देता है और अंततः राष्ट्रवाद की पैरवी करता है, इतना ही नहीं पूँजी तथा मुनाफा के हित में जरूरत पड़ने पर अंधराष्ट्रवाद और कुत्सित राष्ट्रवाद तक को समर्थित करने से परहेज नहीं करता है। '<br /><br />'सिविल सोसाइटी’ की कार्यशैली में सामुदायिक और सामाजिक लोकतंत्र दोनों को एक साथ मिलाकर चलने की आकांक्षा सक्रिय है। जो लक्षण दिख रहे हैं उससे तो यही लगता है कि अंततः और स्वभावतः ‘सिविल सोसाइटी’ उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण के दबाव में सामुदायिक लोकतंत्र के पक्ष में ही जा खड़ा होगा। इसके दक्षिणपंथी रुझान को यहाँ समझा जा सकता है। प्रत्याहार सन्निपात (withdrawal syndrome) से ग्रस्त राज्य सामाजिक लोकतंत्र की माँग को समाजवाद के राजपथ पर चले जाने से रोकने के लिए ‘सिविल सोसाइटी’ को ही महत्त्व देगा। इससे राजनीतिक लोकतंत्र के भीतर नवब्राह्मण-तंत्र (मेरिटोक्रेसी) का संस्थापन सहजता से हो जायेगा। समानांतर सत्ता-समूह के रूप में ‘सिविल सोसाइटी’ वर्तमान राजनीतिक लोकतंत्र में नये रुझान पैदा कर देगी। यह तो भविष्य ही बतायेगा कि इसका लोकतंत्र पर कैसा असर पड़ेगा।'<br />'' प्रत्याहार सन्निपात (withdrawal syndrome) से ग्रस्त राज्य सामाजिक लोकतंत्र की माँग को समाजवाद के राजपथ पर चले जाने से रोकने के लिए ‘सिविल सोसाइटी’ को ही महत्त्व देगा।''<br />बहुत तार्किक निष्पत्ति।<br /><br />'मनुष्य के आचरण की व्यापकता और बारंबारता नये मूल्य-बोध और उनका समुच्चय बनाता है। कहना न होगा कि भ्रष्टाचार की व्यापकता और बारंबारता सामाजिक जीवन के लिए हानिकर मूल्य-बोध के समुच्चय की सामाजिक स्वीकृति का पथ प्रशस्त कर रही है। भ्रष्टाचार को वर्तमान कानून के दायरे से बाहर की घटना के रूप में देखा जाता है। यह ध्यान में नहीं रह पाता है कि वर्तमान कानून का दायरा भ्रष्टाचार के लिए कितनी बड़ी जगह अपने अंदर रखता है।'<br /><br /><br />बेहद तार्किक विश्लेषण। सामुदायिक लोकतंत्र, सामाजिक लोकतंत्र और राजनीतिक लोकतंत्र में से सिविल सोसायटी का संभाव्य गंतव्य क्या है, यह स्पष्टता से आया है। अब बदले हुए सन्दर्भों में जबकि सिविल सोसायटी का बढ़ा हुआ दायरा राजनीतिक लोकतंत्र की परिधि में चला गया (अरविन्द केजरीवाल द्वारा राजनीतिक दल का गठन न सिर्फ उनके अभियान की समाप्ति है बल्कि भविष्य में जगह बनाने वाले ऐसे किसी गुट पर एक प्रक्षिप्त लांक्षन भी है जो उसकी विश्वसनीयता को कम करने वाला है।), क्या है स्पेस इस नए राजनीतिक दल का और शेष सिविल सोसायटी का? क्या कहते हैं आप?mahesh mishrahttps://www.blogger.com/profile/05444936923565480363noreply@blogger.com