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आचार्य हजारीप्रसाद दि्ववेदी के समक्ष तत्कालीन बौद्धिक चुनौती


आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के आलोचनात्मक विवेक के समक्ष इतिहास के क्या सवाल थे? क्या चुनौतियाँ थीं ? इसे समझना आवश्यक है। फिर, यह देखना भी आवश्यक होगा कि उन चुनौतियों से जूझने की उनकी तकनीक क्या थी, कौशल क्या थे, उनकी तर्क-पद्धति और तार्किक निष्कर्षों की आत्म-संगतियों को भी खँगाल लेना अपेक्षित होगा। कहना न होगा कि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के समय में प्रमुख चुनौती बौद्धिक उपनिवेश से मुक्ति की थी। इस चुनौती से मुक्ति के लिए भारतीय इतिहास और संस्कृति की खोई और टूटी हुई कड़ियों को खोजना और जोड़ने का मुश्किल और जोखिम भरा काम था। इस मुश्किल और जोखिम के क्षेत्र का फैलाव बाहरी और भीतरी दोनों प्रकार के औपनिवेशिक चट्टानों की अंतर्संघाती-रेखाओं (fault line) के बीच की गहरी खाइयों तक था। इतिहास और संस्कृति की ऐसी गहरी खाइयों में उतरना कम खतरनाक नहीं होता है। यह खतरा तब और ज्यादा बढ़ जाता है जब सिर के ऊपर अपने संस्कारों का न उतारे जाने लायक भारी बोझ भी लदा हो। कहना न होगा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इतिहास और संस्कृति की गहरी खाइयों में अपने संस्कारों के भारी बोझ के साथ उतरने का जोखिम उठाते हैं। ये संस्कार प्राचीन एवं मध्यकालीन थे, जबकि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का युग आधुनिक था। कहना न होगा कि प्राचीन एवं मधयकलीन मूल्यों के साथ आधुनिक मूल्यों के टकरावों और प्राचीन एवं मध्यकालीन ऐतिहासिक सवालों के उलझावों को आधुनिक जरूरतों के अनुसार खोलने की चुनौतियों के बीच आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का आलोचना विवेक विकसित होता है। बौद्धिक उपनिवेश से मुक्ति की चुनौतियों से जूझने के लिए इतिहास की बिखरी हुई वास्तविक कड़ियाँ जहाँ प्राप्त न हो सकीं वहाँ अनुमान ही उपकरण था। अनुमान के लिए कल्पना का उपयोग आवश्यक हुआ। कल्पना का हाथ और साथ मिलते ही संस्कारों को अपना खेल दिखाने का भरपूर अवसर मिला। बौद्धिक उपनिवेश से मुक्ति की चुनौतियों के सवाल मुख्यत: इतिहास के सवाल थे। इतिहास के सवाल के अंतस्साक्ष्य संस्कृति एवं साहित्य से जुटाने के लिए आलोचना का विवेक अनिवार्य तो होता है किंतु पर्याप्त नहीं होता है, उसके लिए गहरी इतिहास दृष्टि की भी जरूरत होती है। गहरी इतिहास दृष्टि के अभाव में इतिहास के पुराण बन जाने का खतरा पैदा हो जाता है। इतिहास दृष्टि के लिए सबसे अधिक घातक तत्त्व है -- कल्पना। मुश्किल यह कि साहित्य के लिए यही कल्पना संजीवनी होती है ! कैसी विडंबना है साहित्य और इतिहास बड़े निकट के रिश्तेदार हैं और यह कल्पना एक के लिए अमृत है तो दूसरे के लिए विष ! जीवन भी कम विचित्र नहीं है। सिद्धांतों में अमृत और विष भले ही अलग-अलग पाये जा सकते हैं, लेकिन जीवन में ये अक्सर एक साथ ही हासिल होते हैं; जीवन को दोनों की जरूरत होती है। हमारा सांस्कृतिक अनुभव बताता है कि जिसके नाभिकुंड में अमृत के एकांश का सदावास था उसीके दिमाग में विष भी विराजमान था

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