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प्रेम जो हाट बिकाय

प्रेम   जो हाट   बिकाय
मनुष्य की मानसिक स्थिति का सबसे सुंदर स्वरूप और प्रतिफलन उभर कर आता है उसके चित्त की प्रेमावस्था में। चित्त की प्रेमावस्था में मनुष्य के लिए कुछ भी अ-देय नहीं रहता है। प्रेम में माता हुआ मनुष्य सबकुछ दे देना चाहता है। प्रेम में माता हुआ मनुष्य एक ऐसे दान योगी की तरह का आचरण करता है जैसे संसार की सारी चीजें उसके लिए देय हैं। दान योगी, अर्थात देकर जो रत्ती भर भी रिक्त नहीं होता बल्कि देकर ही अपने-आप को भर लेने में कुशल होता है। लेकिन यह प्रेम है क्या ? इसे समझना क्या इतना आसान है ! इसके इतने रूप हैं, इन रूपों में इतने रंग हैं, इन रंगों में इतने तरह के विस्तार हैं, विस्तार में इतनी भंगिमाएँ हैं और भंगिमाओं में इतने तरह के आकर्षण हैं कि बस इसे एहसास में ही पाया जा सकता है। गूँगे का गुड़! जाहिर है बोले नहीं कि सब गुड़ गोबर। समझने पर आमादा हुए नहीं कि बात आपके हाथ से गई समझिये। संतों के यहाँ इसका एक रूप है तो भोगियों के यहाँ इसका बिल्कुल दूसरा रूप है।

मानव जीवन का हर काम अपने-आप में प्रेम की माँग करता है। सामाजिकता के मूल में भी इसी प्रेम तत्त्व का ही कोई--कोई रूप सक्रिय हुआ करता है। यही प्रेम-तत्त्व किसी कर्म को मानवीय बनाता है। इसी प्रेम तत्त्व के अभाव में कर्म यांत्रिक बन जाता है -- यांत्रिकता तो क्रूरता की नैहर हुआ करती है। इस समय बड़े-बड़े लोग अपनी योजनाओं को मानवीय चेहरा (ह्यूमेन फेस) प्रदान करने के लिए विकल हो रहे हैं। वे दरअसल अपनी योजनाओं को इसी प्रेम तत्त्व से बना आवरण (प्रेम की चादर) प्रदान करना चाहते हैं। प्रेम के वश में तो भगवान भी होते हैं, अन्यों की विसात ही क्या। प्रेम से दूहो तो गौ माता भी दूहे जाने को तैयार होती है अन्यथा उन्हें भी दूलत्ती झाड़ने में कोई देर नहीं लगती है। आज कल तो बहुत सारे प्रबंध पाठ और शास्त्र हैं, होटल मैनेजमेंट से ह्यूमेन मैनेजमेंट तक। किंतु संभवत:, दुनिया का सबसे पुराना प्रबंध प्रेमप्रबंध ही है। प्रेम पोषण के लिए भी चाहिए और शोषण के लिए भी। प्रेम साधू को भी चाहिए और कामी को भी चाहिए। दानी को भी चाहिए और डाकू को भी। लोभी को भी और संत को भी। आराध्य राम के प्रति अपनी भक्ति और अपनी प्रियता प्रतिभासित करने के लिए गोस्वामी तुलसी दासने कहा कि हे राम तुम मुझे उतने ही प्रिय हो जितना कि कामियों को नारी प्रिय होती है, लोभियों को दाम (पैसा) प्रिय होता है -- कामिहिं नारि पियारि जिमि, लोभिहि प्रिय जिमि दाम। तुलसीदास ने प्रीति को भय से जोड़ा तो कबीरदास ने जीवन के सबसे कठिन सबक के रूप में चुना। रहीम ने संबंध की संवेदना तंतु के रूप में समझा । प्रेम के बारे में कितना कुछ लिखा गया फिर भी जैसे सारा-का-सारा अभी लिखा जाना बाकी ही हो। प्रेम की चादर ज्यों कि त्यों धरी हुई है, बिल्कुल कोरी-की-कोरी ! लेकिन क्या प्रेम तत्त्व के स्वरूप पर देश-काल-प्रसंग का कोई असर नहीं पड़ता? ऐसे प्रश्न हैं और हो सकते हैं लेकिन मुसीबत यह है कि शीश उतारे बिना कोई इस घर में घुस नहीं सकता और जब शीश ही उतार कर भूँई पर धर दिया तो इन प्रश्नों का उत्तर कोई ढूँढ़े ही कैसे? शायद, ढूढ़ने की जरूरत भी नहीं होती और प्रेमी लोग इसे ढूढ़ते भी नहीं हैं। प्रेम की इसी चिरंतन मुद्रा का लाभ उठाकर कुछ लोग प्रेम के नाम पर अपना धंधा भी फैला लेते हैं। तरह-तरह का कारोबार प्रेम के नाम पर, प्रेम की ओट में चलता रहता है। ऐसा नहीं कि यह कोई बिल्कुल नई प्रवृत्ति हो। पहले भी यह प्रवृत्ति थी और कोई कम बलवती नहीं थी। जब से प्रेम है तभी से ही यह प्रवृत्ति भी है। लोक अनुभव से सिद्ध है कि अति भक्ति चोर का लक्षण। तथापि, आज जितनी तेजी से यह धंधा फैल रहा है, पहले उतनी तेजी से इसके फलने-फूलने के अवसर कम थे।

माता-पिता की माली हालत पर तरस खा कर उनके प्रति अपना प्रेम प्रदर्शित कर मदद के नाम पर बच्चों को बंधुआ मजदूरी के लिए फाँसा जाता है। किशोरियों और युवतियों को बेचने का धंधा अक्सर समाचार में सुर्खियों के साथ आता रहता है और और सभ्यता के चेहरे का रंग उड़ जाता है। आंध्र प्रदेश से समाचार आया था कि वहाँ गोद लेने का एक बहु लाभप्रद धंधा जोरों पर है। समाचार आते रहते हैं। घटना घटती रहती है। समाचार तो अपने स्वभाव से ही घटना के पीछे चलनेवाला हुआ करता है। वैसे भी, समाचार तो नेताओं के लद्दू बयानों का बोझ ढोते-ढोते ही इतना थक जाता है कि  ऐसी घटनाओं के बहुत पीछे मंद गति से चलनेवाला घायल कहार बन कर रह जाता  है। संतान की चाह मनुष्य की बहुत जायज और स्वाभाविक चाह हुआ करती है। नाना कारणों से जब यह प्राकृतिक रूप से पूरी नहीं हो पाती है तो मनुष्य किसी लगभग अनाथ बच्चे को गोद ले कर  अपनी यह चाह पूरी करने की कोशिश करता है। इस कोशिश के पीछे भी प्रेम तत्त्व का ही एक रूप सक्रिय रहा करता है। सूचना तकनीक के अभूतपूर्व विस्तार में अग्रगणी राज्य से भी इस तरह की घटनाओं की सूचना  बहुत विलंब से ही आती है। क्योंकि सूचना तकनीक के लिए इस तरह की घटनाओं में सूच्यता की योग्यता बहुत ही न्यून हुआ करती है। जो हो, इस घटना के ऐसे कई पहलू हैं जिन से मनुष्य के स्वभाव में आ रहे परिवर्तनों को पढ़ा जा सकता है। खासकर महिलाओं और सामान्य रूप से पढ़े लिखे तथा शासकीय क्षमता से संपन्न परिवार की महिलाओं  का ऐसे काम में लिप्त होना एक बहुत ही खतरनाक संकेत अपने पीछे छोड़ता है। हमारे समय में खतरनाक संकेतों की क्या कमी है! कमी है तो इन संकेतों को पढ़कर इस कठिन समय में भी मनुष्य के मनुष्य बने रहने की प्रक्रिया को बचाये रखने के कारगर उद्यम की। यह उद्यम सिर्फ पोथी पढ़ने से सफल नहीं हो सकता है। कबीर दास ने पोथी के बदले प्रेम को पढ़ने की प्राथमिक जरूरत बतायी थी, पढ़ने का निषेध नहीं किया था। शीश उतारकर प्रेम के घर में तभी प्रवेश किया जा सकता है जब प्रेम हाट में न बिकता हो। जब प्रेम हाट में बिकने लगे तो  शीश उतारकर प्रेम के घर में पैठना व्यक्ति, समाज, जाति और राष्ट्र सबके लिए प्राणांतक हो सकता है। आज तो बड़े प्रेम से हाट में प्रेम बिक रहा है। देश प्रेम भी, भगवत्प्रेम भी। देश में ही दास बनाये जा रहे लोगों को अपना प्रेम-पाठ फिर से तैयार करना ही करना होगा।

4 टिप्‍पणियां:

  1. "संभवत:, दुनिया का सबसे पुराना प्रबंध प्रेमप्रबंध ही है। कबीर दास ने पोथी के बदले प्रेम को पढ़ने की प्राथमिक जरूरत बतायी थी, पढ़ने का निषेध नहीं किया था। शीश उतारकर प्रेम के घर में तभी प्रवेश किया जा सकता है जब प्रेम हाट में न बिकता हो। जब प्रेम हाट में बिकने लगे तो शीश उतारकर प्रेम के घर में पैठना व्यक्ति, समाज, जाति और राष्ट्र सबके लिए प्राणांतक हो सकता है। आज तो बड़े प्रेम से हाट में प्रेम बिक रहा है। देश प्रेम भी, भगवत्प्रेम भी।"
    जी, बिलकुल सही कहा आपने। आजकल लोगों के नज़रिए या हर क्षेत्र में प्रोफेशनलिज्म हावी होता जा रहा है। हर जगह स्वार्थ का बोलबाला है। पहले जैसे नि:स्वार्थ भाव रहे नहीं। अगर आज कोई हमारी तरफ सहृदयता से मदद का हाथ भी बढ़ाता है तो हम उसमें उसका स्वार्थ ढूंढने में लग जाते हैं या फिर खुद भी लोग अपनी तरफ से कोई पहल करने से पहले सोचते हैं कि इससे मुझे क्या हासिल होगा। गिव ऐंड टेक के इस ज़माने में प्रेमभाव तो दरकिनार हो जाता है। -नीलम अंशु

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  2. prafull.........prem pe likha tumhara aalekh yun to kai tathyatmak pahluon ko smete huye h par fir bhi isme mujhe kuchh chhuta huaa sa lga ..............wo kya h?? kya tumhe samjh aa rha h????/ btana jarur

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    1. jaan , टिप्पणी के लिए आभार। पाठ का अधूरा रह जाना ही उसकी सार्थकता है। अधूरा पाठ अपने पाठक के लिए पूरा स्पेस बनाता है। सच पूछो jaan तो, पाठ तो पाठक के मन में ही आकार और विस्तार पाता है, इस थोड़ा और अधिक पूरा होता है। रचना-प्रक्रिया पर बात होती रहती है। पाठ-प्रक्रिया पर बात की जानी चाहिए। गंतव्य तक पहुँच कर ही यात्रा का एक आयाम पूरा होता है। पाठ का गंतव्य पाठक ही होता है। वैसे भी, प्रेम के बारे में कितना कुछ लिखा गया फिर भी जैसे सारा-का-सारा अभी लिखा जाना बाकी ही है। शुक्रिया...

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