रोशनी और साहस
मैं अपने काम पर जा रहा था। एक अपरीचित
महिला, एक बहुत ही छोटे
बच्चे को स्कूल ले जा रही थी। लगभग घसीटते हुए। बच्चा बहुत डरा हुआ था और बेतहाशा
रो रहा था। रोते-रोते उसका चेहरा लाल हो गया था। उस बच्चे का
स्कूल ड्रेस लार, पसीने और आँसू से लतपथ था। मुझे जरा ध्यान
से बच्चे की ओर देखते हुए देखकर उस अपरीचित महिला – जो शायद उसकी
माँ थी -- ने बांग्ला में जो कहा उसका आशय यह था कि आज स्कूल में उस बच्चे का पहला
दिन है, इसलिए इतना हलकान हो रहा है। मैंने भी सहानुभूति
जताते हुए कहा कि हाँ, धीरे-धीरे
अभ्यास हो जायेगा फिर सब ठीक हो जायेगा और अपनी राह पर आगे बढ़ गया।
उस बच्चे को देखकर मुझे अपने बचपन
की याद आने लगी। काम पर जाने की राह पर कदम तो आगे बढ़ता रहा लेकिन दिमाग लगातार
पीछे की ओर ही जा रहा था। वे गुजरे हुए दिन जो सुनहरे तो नहीं थे, लेकिन उनकी
स्मृति की मधुरिमा अपनी ओर खींच रही थी। जीवन में पहले-पहल की स्मृति का अपना महत्त्व है।
एक धुंधली-सी स्मृति है। गृह देवी के सामने केले के पत्ते पर
चावल पसार कर रखा हुआ था। उस अंधेरे घर में पंडित जी जोर-जोर
से कुछ पढ़ रहे थे, शायद कोई मंत्र। मेरी माँ और दादी उस अँधेरे घर के
एक कोने में खड़ी थी। कुछ महिलाएँ गीत गा रही थीं, शायद गृह
देवी को प्रसन्न करने के लिए। दादा जी ने मेरे दाहिने हाथ में भट्ठा पकड़ाया और
हाथ को पकड़कर केले के पत्ते पर पसरे हुए चावल पर कुछ लिखवाया, कोई अक्षर-आकृति बनवाई होगी शायद!
अधवयस को ‘पहले-पहल’
के महत्त्व का एहसास बहुत होता है। माता-पिता
के अतीत के बारे में बच्चों में कोई खास दिलचस्पी नहीं होती है। माता-पिता के दिल में टूटे हुए सपनों की नुकीली किरचें होती हैं, न मिले हुए जिंदगी के हिसाब के लंगड़े भिन्नांक होते हैं। बच्चों के सामने
प्रतीक्षित भविष्य होता है, सजते हुए सपनों का सुकोमल रोमिल
स्पर्श होता है, जिंदगी के हिसाब में पूर्णांक की ओर बढ़ते
हुए प्रतीत होनेवाले समीकरणों के सूत्र होते हैं। पीढ़ी-संवाद
के वर्तमान में भूत और भविष्य का संवाद और संघात होता है। उत्तरोतर संघात के अधिक
होते जाने और संवाद के घटते जाने से भविष्य दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है। संवाद और
संघात की इस प्रवृत्ति का प्रतिफलन सामाजिक संचरण की प्रवृत्ति में भी परिलक्षित
होता है। जब भविष्य के मानस-चित्र भयावह हों, आदमी आजमाये हुए का ही व्यवहार करना चाहता है।
हमारे सामने दुर्घटनाग्रस्त भविष्य
का भयावह चित्र उभर रहा है। सारे मूल्य ढह-ढनमना रहे हैं। सपने उदास होकर अंतत: अनुपस्थित होते जा रहे हैं। रोजगार हीन विकास और वृद्धि के सामने हमारे
समाज का यौवन हतप्रभ और अप्रतिभ है। सूरज अपने पूरे परिवार के साथ क्रूर हो गया
है। चारों तरफ अँधेरा ही अँधेरा है। बदली हुई आवाजों का घेरा कसता जा रहा है। एक
बहुत बड़ी काली छाया चारों तरफ से हहाती हुई दौड़ी चली आती प्रतीत हो रही है। यह
काली छाया हर चीज को ग्रसने के लिए अब-तब कर रही है। इस
घनघोर ‘अँधेरे में’ याद आते हैं मुक्तिबोध
लेकिन बचा नहीं है अचरज कि ‘बड़े-बड़े
नाम कैसे शामिल हो गये इस बैंड दल में !’ अचरज बचे
भी कैसे, जबकि हम खुद भी इस बैंड दल में शामिल हों या न हों
पीछे, बहुत पीछे ही सही, चल रहे हैं लेकिन इसी बैंड दल के पीछे! दुनिया को हम लोगों ने कचरे का वह ढेर बना दिया है, जिस
पर दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट, कोई भी मुरगा,
जोरदार बाँग दे कर मसीहा बन जा रहा है। यह साधारण अँधेरा नहीं है।
यह वह अँधेरा नहीं है जो मशाल देखकर पीछे की ओर टहल जाता है। यह वह अँधेरा है जो
आगे बढ़कर मशाल को ही बदल देता है। यह वह अँधेरा है जिसमें वनैले पशुओं की आँख की
चमक रोशनी की खबर बनकर आती है।
इस शशधर-तारा हीन गहरे अंधकार में स्वतंत्रता
और समृद्धि एक दूसरे की पूरक नहीं विरोधी बनकर रह गई है। आज स्वतंत्रता या समृद्धि
दोनों में से किसी एक को ही चुनने की छूट है। आदमी को स्वतंत्रता और समृद्धि दोनों
चाहिए। समृद्धि इतनी चाहिए कि न खुद भूखा रहना पड़े, न साधू
को भूखा जाना पड़े; स्वतंत्रता इतनी कि सिर उठाकर चला जा
सके। इससे अधिक समृद्धि गुलाम और इससे अधिक स्वतंत्रता असामाजिक बनाती है। इस
अंधकार में ‘ढिबरी’ और ‘लालटेन’ को फिर से आजमाना जरूरी है। ‘सब की आवाज के पर्दे’ में छिपे ‘सत्य’ का पीछा करते हुए अश्वथकित मन से विष्णु खरे
ठीक ही निष्कर्ष निकालते हैं, ‘लालटेन जलाना उतना आसान नहीं है, जितना
उसे समझ लिया गया है।’ यह ‘लालटेन
जलाना’ उतना आसान इसलिए नहीं है कि गरीबी की मार झेलते-झेलते और आर्थिक पगबाधाओं को पार करते-करते हम इतने
थक चुके हैं कि यह प्राथमिक पाठ ही भूल गये कि स्वतंत्रता से समृद्धि आती है,
किंतु हर प्रकार की समृद्धि से स्वतंत्रता नहीं आया करती है। हम भूल
गये कि स्वतंत्रता निर्विशिष्ट मनुष्य के जनतांत्रिक अधिकारों के प्रति सच्चे आदर
से हासिल होती है। हम भूल गये कि स्वतंत्रता अपने-आप में
बहुत बड़ी समृद्धि है। हम भूल गये कि ‘संतुष्ट सूअर’ से अधिक श्रेयस्कर है ‘असंतुष्ट मनुष्य’ होना। ‘पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं’, जैसे मूल सांस्कृतिक संदेश को भी हम भूल गये। इन भूले हुए पाठों को फिर से
नये अर्थ-संदर्भ और साहस के साथ पढ़े जाने की जरूरत है।
हमें ‘समृद्धि’ अपनी
ओर बड़ी तेजी से खींच रही है। इतनी तेजी से कि हम अपने समूह को हिकारत की नजर से
देखते हुए अकेले ही ‘मुक्त’ होना चाहते
हैं। हम उस सभ्यता के शिकार हो गये हैं जहाँ समूह स्वीकार्य नहीं होता है। ‘सच पूछो तो’ भगवत रावत ‘सभ्यता
और संस्कृति’ के इस अँधेरे में बतायेंगे कि यह लालटेन जलाना
इसलिए भी मुश्किल है कि ‘सभ्य आदमी समूह में मिलकर नहीं गाते,
समूह में मिलकर नहीं नाचते, समूह में मिलकर
समय नहीं गँवाते’; सभ्य आदमी अकेले रहना पसंद करते हैं,
‘सभ्य आदमी समूहों में नहीं पाये जाते हैं’।
अँधेरे को सिर्फ रोशनी ही कम कर
सकती है। भय को सिर्फ साहस ही कम कर सकता है। इस समय हमें रोशनी और साहस दोनों
चाहिए। रोशनी से साहस बढ़ता है और साहस हो तो आदमी रोशनी कर लेता है। मेरी माँ और
दादी चर्खा कात कर घर भर के लिए वस्त्र का इंतजाम कर लेती थी। इस याद को मैं बार-बार टटोलता हूँ। ऐसी यादों से साहस
मिलता है। इसी साहस से शायद वह रोशनी पैदा होगी जो जीवन की उदास होती अल्पना
को इंद्रधनु के रंगों से सजा देगी।
adhik samriddhi aur swatantrata asaamajik banati hai...bahut samyak nishkarsh.
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