ओनामासीधं
आज के जीवन में तकनीक का महत्त्व धीरे-धीरे बहुत बढ़ गया है। इतना कि तकनीक के बिना जीवन के बारे
में सोचना भी मुश्किल होता जा रहा है। आज तो साँस लेने की भी तकनीक विकसित हो गयी
है। ऐसे गुरुओं की भी कोई कमी नहीं जो साँस लेने की तकनीकी जानकारी का व्यवसाय
धड़ल्ले से कर रहे हैं। पहले के जमाने की प्राणायाम पद्धति की बात नहीं है,
यह तो नये जमाने की योगा है, योगा। इसके
स्वास्थ्य संबंधी अच्छे असर का महात्म्य तो तब भी था और आज भी है। लेकिन इसकी यह
चमक सिर्फ आज की ऊपज है। और रहस्य है तकनीक। बच्चे तकनीक से पढ़ते हैं। पास या फेल
करते हैं तो उसमें भी बताते हैं कि तकनीक का ही हाथ हुआ करता है। विचार भी आज
तकनीक के बल पर बनते-बिगड़ते, सफल-असफल हो रहे हैं। एक बार किसी एक के दिमाग से बात निकलती है और दूसरे के दिमाग तक पहुँचते-पहुँचते तकनीक में बदल जाती है। कहते हैं इस तकनीक का राष्ट्र-गुरू अमेरीका है। तकनीक बेचने में वह उस्ताद है। हैं, और भी तकनीक-बहादुर देश हैं। लेकिन अमेरीका तो
अमेरीका है; अमेरीका का कोई जबाव नहीं है किसी के पास। तकनीक
के मामले में अमेरीका को जितना गुमान है उससे कहीं ज्यादा उसे दुनिया में मान भी हासिल है। अमेरीका को तकनीक के अलावे
अपने लोकतंत्र का भी गुमान है। कुछ लोग भले ही कहते हों कि अमेरीका अपने लोकतंत्र
का वैसा ही तकनीकी इस्तेमाल करने में माहिर है जैसा अपने यहाँ का बूढ़ा बाघ कंगन
के इस्तेमाल में माहिर हुआ करता है।
अमेरीका में एक बार राष्ट्रपति चुनाव के नतीजों की घोषणा में बड़ी परेशानी हुई थी। जैसा कि विदित है चुनाव में गणना का अपना महत्त्व हुआ करता है और गणना में तकनीक से अधिक और कोई विधा या विद्या विश्वसनीय नहीं है आज के जमाने में। इसी तकनीकी गणना के बल पर अमेरीका पूरी दुनिया को मुष्टिगत करने में कामयाब होता आ रहा है और एक दिन पूरी तरह कामयाब होकर रहेगा। जरूर होगा! लेकिन उस समय वहाँ लोकतंत्र और तकनीक दोनों एक दूसरे की मदद नहीं कर पा रहे थे। कहते हैं कि गणना में हाथ के दखल या कहिये उपयोग को लेकर विचारों को मिट्टी देने के इस मौसम में भी कई तरह के आवारा विचार सामने आ गये पंख पसार कर। फैसला मननीय अदालतों को करना पड़ा। लोकतंत्र के तकनीकी हो जाने का नतीजा सामने है। हालत यह है कि कोई समझ ही नहीं पा रहा है कि जब ‘लेखा-जोखा थाहे तब लइका बुड़ल काहे’ का जबाव क्या होगा। घोषणा करनेवाले तरह-तरह की घोषणा करते रहते हैं। एक घोषणा यह की गयी थी कि अबकी विश्वयुद्ध का फैसला मल्ल युद्ध से होगा यानी हाथ की ही जीत या हाथ की हार होगी। अमेरीका में शायद हाथ की सफाई को ही मान्यता मिलेगी।
अमेरीका में एक बार राष्ट्रपति चुनाव के नतीजों की घोषणा में बड़ी परेशानी हुई थी। जैसा कि विदित है चुनाव में गणना का अपना महत्त्व हुआ करता है और गणना में तकनीक से अधिक और कोई विधा या विद्या विश्वसनीय नहीं है आज के जमाने में। इसी तकनीकी गणना के बल पर अमेरीका पूरी दुनिया को मुष्टिगत करने में कामयाब होता आ रहा है और एक दिन पूरी तरह कामयाब होकर रहेगा। जरूर होगा! लेकिन उस समय वहाँ लोकतंत्र और तकनीक दोनों एक दूसरे की मदद नहीं कर पा रहे थे। कहते हैं कि गणना में हाथ के दखल या कहिये उपयोग को लेकर विचारों को मिट्टी देने के इस मौसम में भी कई तरह के आवारा विचार सामने आ गये पंख पसार कर। फैसला मननीय अदालतों को करना पड़ा। लोकतंत्र के तकनीकी हो जाने का नतीजा सामने है। हालत यह है कि कोई समझ ही नहीं पा रहा है कि जब ‘लेखा-जोखा थाहे तब लइका बुड़ल काहे’ का जबाव क्या होगा। घोषणा करनेवाले तरह-तरह की घोषणा करते रहते हैं। एक घोषणा यह की गयी थी कि अबकी विश्वयुद्ध का फैसला मल्ल युद्ध से होगा यानी हाथ की ही जीत या हाथ की हार होगी। अमेरीका में शायद हाथ की सफाई को ही मान्यता मिलेगी।
भारतीयता के तथाकथित सच्चे
विरासतदारों की नजर में स्थितियाँ ठीक महाभारत की तरह है। और अब भारत का असली
विश्व-रूप दुनिया के
सामने प्रकट होगा, जैसे कभी कृष्ण का विश्वरूप प्रकट हुआ था।
तब भारत इस ब्रह्मांड को कंदुक की तरह हाथ में उठाकर क्रीड़ा और उत्तर-क्रीड़ा करेगा। भारत को इसलिए भी विश्वग्रामीकरण में दिलचस्पी होनी चाहिए
कि एक दिन उसी को इसकी चौधराहट मिलेगी। समकालीन साधू यह सोच-सोचकर
सुखी, संतुष्ट, मुदित और प्रसन्न हैं
कि चोरों ने किया हमारा काम।
समाचार माध्यमों से सूचना मिलती रहती है कि भारत के विभिन्न में राज्यों में हिंदी-भाषी होने के कारण मारे जा रहे हैं।
सभी तरह की आर्थिक और सामाजिक हैसियत के समूहों से संबद्ध लोगों के नाम मृतकों की
सूची में रहते हैं। इन में बिहारी मजदूरों की संख्या सबसे ज्यादा होती है। ये हत्याएँ
किसी व्यक्तिगत राग-द्वेष के कारण नहीं होती हैं और न संभवत:
हत्यारों के किसी तात्कालिक लाभ से ही इसका कोई लेना-देना होता है। उनका एक मात्र मकसद है फिलहाल बिहारी और सच पूछिये तो बाहरी
लोग उस राज्य को छोड़कर चले जाएँ। यद्यपि इसका सूत्र-संचालन
बाहर से होता हुआ बताया जा रहा है, जो और खतरनाक सच है।
हलांकि अभी ऐसी कोई नौबत तो नहीं आई है लेकिन इसकी क्या गारंटी है कि कल कोई अटल-मुद्रा में यह घोषणा नहीं करने लग जायेगा कि यह सब उस राज्य की अस्मिता के
प्रकटीकरण की घटनाएँ है। और फिर मामला किसी एक राज्य तक ही सीमित नहीं रहता है,
एक राज्य से दूसरे राज्य में रोजी-रोटी की
तलाश में जानेवाले लोगों के साथ इस तरह का सलूक धीरे-धीरे आम
होता जा रहा है। समाचार माध्यमों में छन-छनकर इस तरह की खबर
बीच-बीच में आती ही
रहती है। यह एक आम प्रवृत्ति बनती जा रही है और किसी-न-किसी तर्क से उस राज्य के अधिकतर मूल अधिवासी लोगों का समर्थन, निष्क्रय और उदासीन ही सही, इस प्रवृत्ति को मिल रहा
है। विश्वग्रामीकरण की आकांक्षा से लबालब इस समय में जब पूरा देश बाहरी लोगों और
बाहरी पूँजी के स्वागत में पलक पाँवड़े बिछाये हुए बताया जा रहा है अपने देश के
लोगों के साथ इस तरह के सलूक का अर्थ और गहरा हो जाता है। इस प्रवृत्ति को यदि समय
रहते समाप्त नहीं किया जा सका तो इसके बड़े घातक परिणाम के लिए हमें तैयार रहना
चाहिए। क्योंकि प्रत्येक राज्य में, विशेषकर विकसित
क्षेत्रों में, अन्य राज्य के लोगों का अस्थाई या स्थाई रूप
से रहना आम बात है। वैसे तो किसी भी आधुनिक राष्ट्र राज्य के बारे में यह बात कही
जा सकती है लेकिन भारत की तो सांस्कृतिक-राजनीतिक बनावट और
बुनावट अपने मूल-चरित्र में ही अंत:मिश्रणकारी
रहा है। इसलिए भारत के राज्यों में इस तरह की घटनाओं का न सिर्फ राजनीतिक, औद्योगिक, आर्थिक बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक
दृष्टि से भी विघटनकारी असर होगा। समय रहते चेतना चाहिए।
राजनीति और राजनीतिज्ञों की सार्थक पहल की प्रतीक्षा किये बिना साहित्य और संस्कृति के किसी भी रूप से जुड़े लोगों को आगे आना चाहिए खासकर जहाँ इस तरह की घटनाएँ हो रही है वहाँ के लोगों को तो इस प्रवृत्ति के विरोध में अपनी पूरी ताकत लगा देनी चाहिए। कुँवर नरायण जी की एक कविता का आशय यह है कि किसी समुदाय से बुरा सलूक करने पर उस समुदाय के प्यारे लोगों की याद बुरा सलूक करने से रोकती है। ऐसे प्यारे लोगों को अपने समुदाय के लोगों को भी रोकना ही चाहिए। अन्यथा भावनाओं के प्रकटीकरण के इस मौसम में देश को पक्षाघात लगते देर न होगी। बचपन में हमलोग ओनामासीधं गुरूजी खसला -- गिर पड़े -- चितंग कहकर अपने गुरूडमयुक्त साथी के साथ ठट्ठा किया करते थे। बाद में जाना कि असल में ‘ऊँ नम: सिद्धम’ ही जनविमुख होकर अंतत: ‘ओनामासीधं’ के रूप में बचा हुआ है। यदि समय रहते सचेत नहीं हुआ गया तो कोई विश्वग्रामीकरण, कोई तकनीक हमें नहीं बचा पायेगा और बड़ी-बड़ी योजना बनाकर हमारे समय के सिद्धांतकार जिसे ‘ऊँ नम: सिद्धम’ घोषित कर रहे हैं उसे ओनामासीधं होने मे देर नहीं लगेगी।
कृपया, निम्नलिखित लिंक भी देखें :
1.ओनामासीधं.pdf
राजनीति और राजनीतिज्ञों की सार्थक पहल की प्रतीक्षा किये बिना साहित्य और संस्कृति के किसी भी रूप से जुड़े लोगों को आगे आना चाहिए खासकर जहाँ इस तरह की घटनाएँ हो रही है वहाँ के लोगों को तो इस प्रवृत्ति के विरोध में अपनी पूरी ताकत लगा देनी चाहिए। कुँवर नरायण जी की एक कविता का आशय यह है कि किसी समुदाय से बुरा सलूक करने पर उस समुदाय के प्यारे लोगों की याद बुरा सलूक करने से रोकती है। ऐसे प्यारे लोगों को अपने समुदाय के लोगों को भी रोकना ही चाहिए। अन्यथा भावनाओं के प्रकटीकरण के इस मौसम में देश को पक्षाघात लगते देर न होगी। बचपन में हमलोग ओनामासीधं गुरूजी खसला -- गिर पड़े -- चितंग कहकर अपने गुरूडमयुक्त साथी के साथ ठट्ठा किया करते थे। बाद में जाना कि असल में ‘ऊँ नम: सिद्धम’ ही जनविमुख होकर अंतत: ‘ओनामासीधं’ के रूप में बचा हुआ है। यदि समय रहते सचेत नहीं हुआ गया तो कोई विश्वग्रामीकरण, कोई तकनीक हमें नहीं बचा पायेगा और बड़ी-बड़ी योजना बनाकर हमारे समय के सिद्धांतकार जिसे ‘ऊँ नम: सिद्धम’ घोषित कर रहे हैं उसे ओनामासीधं होने मे देर नहीं लगेगी।
कृपया, निम्नलिखित लिंक भी देखें :
1.ओनामासीधं.pdf
atal mudra..bura sulook karte vaqt pyaare logon ki yaad bura sulook karne se rakti hai...pyara lekhan
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