सपना और सचःः भ्रम का दुख और दुख का भ्रम
एक बार एक दार्शनिक सुबह-सुबह खामोश बैठा था। अपने शिष्य के किसी प्रश्न का कोई जवाब नहीं दे रहा था। शिष्य के बहुत प्रयास के बाद वह बोला▬
▬ मैंने सपना देखा कि मैं चिंटी हूँ। मैं इस बात से बहुत परेशान हूँ।
▬ लेकिन अब तो आप जग चुके हैं! परेशानी क्या है?
▬ परेशानी! परेशानी यह कि मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि मैं आदमी हूँ जिसने सपना में देखा कि वह चिंटी है या फिर चिंटी हूँ जो सपना में अपने को आदमी समझ रही है!
उसके बाद दार्शनिक बहुत देर तक बोलता रहा और शिष्य खामोश हो गया। बाद में दार्शनिक और शिष्य दोनों गहन निद्रा में चले गये। इस गहन निद्रा में उन्होंने क्या सपना देखा, देखा भी या नहीं देखा, यह रहस्य है।
तुलसीदास ने लिखा ▬ जौ सपने सिर काटे कोई, बिन जागे भ्रम (दुख) दूर न होई! तुलसीदास ने सोते हुए समाज से कह दिया कि भ्रम के दुख और दुख के भ्रम से बचने का एक ही उपाय है ▬ जागरण! कबीरदास सोते नहीं थे, जागते थे और रोते थे! हम सपना में रोते हैं; अब कौन बताये कि हम सपना में जगे हुए हैं या जगे हुए में सपना देख रहे हैं!
हमारे सामने कठिन सवाल यह कि हम सपना में जीते हैं या सच में जीते हैं! जवाब...! वह तो, मुँह ढककर सोये हुए किसी और के सपने में विचर रहा है। क्या जीने के लिए हमें सपनों की खनतलाशी करनी चाहिए? क्या हम अंतःकरण की खनतलाशी कर सकते हैं! भ्रम का दुख और दुख का भ्रम यही हमारा जीवन है! क्यों बार-बार पूछते थे मुक्तिबोध कि बहुत-बहुत ज्यादा लिया/ दिया बहुत-बहुत कम;/ मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम!!