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धर्म की सत्ता और सत्ता का धर्म



धर्म और सत्ता में बहुत नजदीकी संबंध रहा है। धर्म अपने आप में एक तरह की सत्ता है तो सत्ता अपने काम-काज को धार्मिक आभा की पवित्रता में देखे जाने की आग्रही होती है। धर्म और सत्ता में टकराव के बिंदु भी कम नहीं हैं, लेकिन मनुष्य को इन दोनों के टकराव के साथ नहीं सहकार के साथ जीना पड़ता है। धर्म और सत्ता दोनों की आकांक्षा रहती है कि मेरे शरण में आ जाओ। दोनों ही मनुष्य से निःशर्त्त समर्पण की माँग करते हैं। दोनों ही इस समर्पण को मनोरम और पवित्र बनाने के सारे प्रबंध करते हैं। इस प्रबंध में प्रेम का इस्तेमाल कौशल और तत्त्व दोनों के रूप में होता है। इस तरह समर्पण धर्म में आस्था और श्रद्धा आदि के रूप में प्रकट होता है। यही समर्पण सत्ता में प्रतिबद्धता और बफादारी आदि के रूप में प्रकट होता है। भारत का अनुभव तो इस मामले में अद्भुत है। यहाँ द्वि-राष्ट्रीयता की सिद्धांतिकी ऐसी परवान चढ़ी कि राज और राष्ट्र एक ही अर्थ ध्वनित करने लगे। पहले राज के साथ प्रेम की कोई गुंजाइश नहीं थी। राज प्रेम का कहीं कोई प्रसंग नहीं बनता था। राज धर्म और राज भक्ति का चलन था। राजा या शासक का प्रजा के प्रति किया जानेवाला सलूक राज धर्म से परिभाषित होता था और राजा या शासक के प्रति प्रजा का सलूक राज भक्ति से मार्यादित होता था। राज के स्थान पर राष्ट्र के आने के साथ पहले प्रेम जुड़ा, फिर धर्म जुड़ा और फिर भक्ति भी जुड़ गई ▬▬ राष्ट्र प्रेम, राष्ट्र धर्म और राष्ट्र भक्ति के प्रसंग के बनने की प्रक्रिया शुरू हुई। यह साधारण प्रक्रिया नहीं है। इसे समझना जरूरी है। यहाँ एक और बात को ध्यान में रखे जाने की जरूरत है, सत्ता को धर्म निरपेक्ष बनाने के लिए बहुत प्रयास हुए, कमोबेश सफल भी हुए लेकिन धर्म को सत्ता निरपेक्ष बनाने की बात ही कभी नहीं उठी। क्यों? क्या इसलिए कि सत्ता को, कुछ हद तक ही सही, धर्म निरपेक्ष बनाया जा सकता है, लेकिन धर्म को सत्ता निरपेक्ष नहीं बनाया सकता है! भारत के संविधान में भारत राष्ट्र की सत्ता को तो धर्म निरपेक्ष बनाने का प्रावधान है, लेकिन धर्म को सत्ता निरपेक्ष बनाने का कोई प्रवाधान नहीं है। धर्मनिरपेक्ष राज्य और धर्म पर आधारित भारतीय समाज के बीच जाति-धर्म की राजनीतिक रस्साकशी चलती रहती है।

धर्मनिरपेक्ष राज्य और धर्म पर आधारित भारतीय समाज के बीच के संबंधों की जटिलताओं को समझने के लिए इनके गठन की ऐतिहासिक प्रक्रियाओं को भी समझना जरूरी है। इन जटिलताओं को बहुत संवेदनशील बना दिया गया है। इस पर किये जानेवाले संवाद में अतिरिक्त संवेदनशीलता और संतुलन की भी जरूरत है। किसी भी प्रकार के सरलीकरण और अधीर कथन से संवाद की प्रक्रिया क्षतिग्रस्त हो सकती है। सभ्यता में आधुनिक चेतना के समावेश के बाद से शिक्षा का एक वैश्विक आयाम सर्वदा आकांक्षित रहा है। इसी आकांक्षा के कारण शिक्षा के शिखर संस्थानों को विश्वविद्यालय कहा जाता है। आज जीवन के अन्य प्रसंगों में भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को, विश्व-स्तरीय जनविरोध के बावजूद, निर्बाध चलाने की कोशिश की जा रही है, राष्ट्र बोध सिकुड़ रहा है। अद्भुत यह कि 'राष्ट्र बोध' का दायरा सिकुड़ रहा है और 'भारत बोध' का दायरा बढ़ रहा है। ध्यान रहे, राष्ट्रीयकरण और भारतीयकरण एक ही नहीं। ‘राष्ट्रीयकरण’ की नहीं, शिक्षा के ‘भारतीयकरण’ की भावुक माँग बार-बार उठाई जाती रही है। शिक्षा के ‘भारतीयकरण’ की यह भावुक माँग अपने आशय में इस भूमंडलीकरण की प्रक्रिया की विरोधी है या राष्ट्रीय चेतना से ओत-प्रोत प्रतीत होनेवाली यह माँग भूमंडलीकरण की प्रक्रिया की ही मददगार है? विज्ञान और वाणिज्य की शिक्षा का भारतीयकरण क्या हो सकता है! सीधी-सी बात यह है कि ‘भारतीयकरण’ की इस माँग का संदर्भ मानविकी से जुड़ता है। हम जानते हैं मानविकी से जुड़े विषयों, विशेषकर इतिहास, साहित्य आदि से संबंधित विषयों, को लेकर पिछले कुछ वर्षों से किस प्रकार का शैक्षणिक और सामाजिक वातावरण बनाने की कोशिश निरंतर की जा रही है। इस वातावरण में इस माँग से जो संकेत मिलते हैं उससे तो यही लगता है कि ‘भारतीयता’ और ‘हिंदुत्व’ को एक दूसरे का समव्यापी पर्याय मानकर ही यह माँग की जाती रही है। शिक्षा के ‘भारतीयकरण’ की माँग असल में शिक्षा के ‘हिंदुत्वीकरण’ की ही माँग ठहरती है। इस माँग का एक सिरा मिशनरियों के स्कूलों और मदरसों के पाठ्यक्रम से भी जुड़ जा सकता है। सर्वोच्च न्यायलय का इस मामले में एक महत्त्वपूर्ण फैसला भी है। मोटे तौर पर राज्य से अनुदान प्राप्त शिक्षण संस्थान को ही सरकार के अनुमोदन की जरूरत रह जाती है। जो अनुदान न दे, उसके अनुमोदन की परवाह वैसे भी कौन करता है! जब शिक्षा के आधार पर राज्य हमें जीवनयापन की बुनियादी सुविधाएँ देने की स्थिति में नहीं रहे तब उसके द्वारा किसी की शिक्षा को मान्य या अमान्य ही करने से क्या फर्क पड़ता है! लेकिन शिक्षा का मकसद क्या रोजगार उपार्जन में सक्षम बनाने के प्रयोजन से ही सीमित है या जटिल परिस्थितियों में बेहतर सामाजिक और नागरिक निर्णय लेने में सक्षम सामाजिक और नागरिक मन बनाने तक फैला हुआ है? इस सवाल पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। औपनिवेशिक राज्य शिक्षा के मकसद को रोजगार में सक्षम बनाने तक सीमित रखता है। स्वाधीन राज्य शिक्षा के मकसद को जटिल परिस्थितियों में बेहतर निर्णय लेने में सक्षम सामाजिक और नागरिक मन बनाने तक फैलाने की कोशिश करता है। ऐसा सामजिक और नागरिक मन सिर्फ धर्मनिरपेक्ष शिक्षा ही बना सकती है, धर्म आधारित शिक्षा नहीं। धर्म से संबंधित, विचार विज्ञान और तर्क का विरोध करता रहा है। धर्म से संबंधित विचार और विश्वास को अटूट मान कर मनुष्य उस से चिपका रहता तो आज कहाँ और किस दशा में होता, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। धर्म से संबंधित विचार और विश्वास को अतिक्रमित करता हुआ मनुष्य आगे बढ़ा, तो इस में राज-सत्ता, चाहे वह अपनी घोषणाओं में जितनी भी धर्म निरपेक्ष रही हो, का अधिक योगदान नहीं रहा है। 

असली सत्ता जनता में निहित होती है। जनता समाज बनाकर रहती है। इसलिए असली सत्ता मूल रूप से समाज के पास होती है। समाजों के समवेत से बने राज्य में समाज की सत्ता अंतरित हो जाती है। राज्य का यह दायित्व हो जाता है कि वह समवेत समाज से प्राप्त सत्ता का सही और सार्थक इस्तेमाल करते हुए समवेत समाज के हितों की शांतिपूर्ण रक्षा करे। सत्ता के समाज से राज्य में अंतरित हो जाने से समाज में एक प्रकार का खालीपन बनता है। इस खालीपन के दुष्प्रभाव से समाज को बचाने की सतत चेष्टा राज्य को करनी चाहिए। यह काम सबसे अधिक जनतंत्रात्मक राज्य में ही संभव हो सकता है। जनतंत्र के प्रति व्यावहारिक सम्मान में कमी और वोट के समीकरण में जनतंत्र के उलझकर रह जाने के कारण इस खालीपन के दुष्प्रभाव से समाज को बचाने का काम अधूरा रह जाता है। नतीजा, एक ही राज्य के विभिन्न समाजों में तनाव बना रहता है। इस तनाव को टूट और सहनशीलता की सामान्य सीमा से बाहर नहीं जाने देने का दायित्व राज्य और समाजों का होता है। इस संदर्भ में, राज्य की भूमिका सामाजिक न्यायकर्त्ता के रूप में महत्त्वपूर्ण हो जाती है। इसके लिए राज्य की न्यायिकता को प्रमाणिक आधार संविधान देता है। चूँकि जनतंत्र में संख्या का अपना महत्त्व होता है, इसलिए संख्याबल की दृष्टि से अधिक शक्तिशाली समाज और कमजोर समाज के बीच राज्य किसी प्रकार का कोई भेदभाव न करे, इसका प्रवाधान सत्ता के धर्म-निरपेक्ष स्वरूप में होता है। समाज के बनाव के कई आधार होते हैं। इन कई आधारों में से कोई एक मुख्य आधार होता है। यह मुख्य आधार उस समाज के अधिकतर सदस्यों के मूल चरित्र का निर्मायक और नियामक होता है। यह दुखद ही है कि ज्ञान-विज्ञान के आज के युग में भी सामाजिकता के लिए ‘हम’ और ‘अन्य’ के रूप में चिह्नित किये जाने के मुख्य आधार का अधिकांश धर्म ही बनाता है। इस पेंच को समझना होगा कि ऐसा क्यों होता है! यदि आर्थिक आधार पर सामाजिकता का बनाव होगा तो संसार के सारे धनवान अल्पसंख्यक हो जायेंगे। कहने की जरूरत नहीं कि बहुसंख्यक समाज में अल्पसंख्यक समाज पर चढ़ बैठने की तीव्र प्रवणता होती है। अर्थ के आधार पर बने बहुसंख्यक समाज की अंर्निहित प्रवणता के खतरों से अल्पसंख्यक समाज को बचाने, अर्थात गरीब लोगों के दबाव से अमीर लोगों को बचाने के वास्ते यह जरूरी हो जाता है कि ‘हम’ और ‘अन्य’ के रूप में चिह्नित किये जाने के लिए मुख्य आधार के बनाव का निर्मायक और नियामक तत्त्व अर्थ के प्रसंग से तय न होने लगे। तब, ‘हम’ और ‘अन्य’ के रूप में चिह्नित किये जाने के लिए मुख्य आधार के बनाव के लिए धर्म से अधिक विश्वसनीय आधार और क्या हो सकता है? सामाजिकता के बनाव के निर्मायक और नियामक तत्त्वों का मुख्य आधार धर्म बना रहे इसके लिए धनवानों की सत्ता सदैव सक्रिय रहती है। ऐसी सत्ता, एक हाथ से धार्मिक अल्पसंख्यकों को धार्मिक बहुसंख्यकों के किसी भी प्रकार के दबाव से बचाने का आश्वासन देती है और दूसरे हाथ से धार्मिक बहुसंख्यकों को धार्मिक अल्पसंख्यकों के मन में डर बैठाने के लिए उकसाती भी रहती है। इसमें राज्य सत्ता के द्वारा धर्मनिरपेक्षता का सबसे कुत्सित इस्तेमाल होता है। दुखद है कि भारतीय राज्य सत्ता भी धर्मनिरपेक्षता के इस कुत्सित इस्तेमाल से पूरी तरह बच नहीं पाई है। बल्कि ज्यों-ज्यों भारतीय राज्य में पूँजीवादी रुझानों के समावेश का आग्रह बढ़ता गया त्यों-त्यों धर्मनिरपेक्षता के कुत्सित इस्तेमाल की प्रवृत्ति भी बढ़ती और उजागर होती गई है। राज की धर्मनिरपेक्षता और समाज की धर्मनिरपेक्षता में भी अंतर होता है। धर्म में सत्ता-निरपेक्षता का अभाव राज-सत्ता और समाज-सत्ता दोनों को संकट में डाल देता है। इस संकट के दुष्प्रभाव के चलते सामाजिक साझापन कम होता जाता है।

भयावह यह कि इधर हमारे शासकों के अंतर्मन में जनतंत्र से प्राप्त शक्तियों के बल पर राजतंत्रीय आचरण के प्रति तीव्र आकर्षण बढ़ता ही जा रहा है। राज्य और नागरिक के संवैधानिक संबंध की आत्मीयता में भारी गिरावट आई है। जन के लिए जनतंत्र कवच का काम करता है। कवच आघातों से हमारी रक्षा करता है, अगर हम कवच की रक्षा कर सकें। अभी तो राज-सत्ता खुद इस कवच को धर्म की सत्ता-सापेक्षता की चौकठ पर गिरबी रखने को तत्पर है और इस काम में उसे धन-सत्ता का साथ और निर्देश, दोनों ही मिलता है। जन-सत्ता की सक्रियता के अभाव में चमचम जनतंत्र बुनियादी और सामान्य नागरिक अभिलाषा के पूरी होने की प्रयोजनीयता की दृष्टि से भी बहुत काम का नहीं रह पाता है। सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया, लेकिन वह उनका व्यक्तिगत धर्म था। बाबर ने हुमायूँ के लिए लिखे वसीयतनामा में दर्ज किया है कि भारत धार्मिक बहुलता से संपन्न देश है, इसलिए सभी धर्म की भावनाओं का ख्याल रखते हुए निष्पक्ष होकर न्याय करना। अशोक ने बौद्ध धर्म को व्यक्तिगत तौर पर अपनाया और बाबर ने निष्पक्ष होकर न्याय करने के महत्त्व को समझा। यह समझ उस समय थी जब न तो ज्ञान, विज्ञान का इतना विकास हुआ था, न मानवाधिकार का प्रसंग आकार में आया था और न ही भारत में धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक जनतंत्र की स्थापना ही हुई थी। आज कुछ लोग यह धारणा फैलाने में लगे हैं कि भारत एक धर्मप्राण देश रहा है। धर्म इसके लिए सबसे बड़ा मूल्य रहा है। धर्मनिरपेक्षता अ-भारतीय अवधारणा है। यह सेकुलरिज्म का अनुवाद मात्र है, भारतीय अनुभव नहीं। यह सच है कि भारत धर्मप्राण देश है लेकिन सच यह भी है कि जब पूरी दुनिया के धर्मों में अपेक्षाकृत अधिक कट्टरता थी, तब भी धर्म को लेकर भारतीय समाज में उदारता थी। धर्मनिरपेक्षता का अनुभव दुनिया को अप्रतिम भारतीय देन है। आज विज्ञान और मानवीय विकास के इस युग में जब पूरी दुनिया समानता और स्वतंत्रता का आश्वासन देनेवाले जनतंत्र को सामाजिक व्यवस्था के मूलाधार के रूप में बरत रही है तब धुरंधर लोग समाज को धर्म के जंजाल में नये सिरे फाँसाने के कूट उद्यम में लगे हुए हैं। कूट उद्यम को बल मिलता है धर्म की सत्ता-सापेक्षता से। 

अशोक के बौद्ध और बाबर के इसलामिक संदर्भ के साथ-साथ हिंदु संदर्भ से भी यह बात पुष्ट होती है। हिंदु जीवन में चार पुरुषार्थों अर्थात जीवन के चार महान लक्ष्यों की बड़ी चर्चा होती है। ये चार पुरुषार्थ या महान लक्ष्य हैं--- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इनके पारस्परिक संबंध के बारे में बताया जाता है कि वही धर्म है जो अर्थ के अर्जन में सहायक होता है; वही अर्थ है जो काम की संतुष्टि में सहायक होता है; वही काम है जो मोक्ष लाभ करने में सहायक होता है। मोक्ष परम मूल्य है, सबसे बड़ा पुरुषार्थ। धर्म सबसे शुरुआती पुरुषार्थ है। मिलकर चलने की बात वेद में भी कही गई है। चरैवेति, चरैवेति भारतीय जीवन के अन्य पक्षों के साथ-साथ इसके धर्म की गत्यात्मकता को भी प्रतिध्वनित करता है। जब विभिन्न धर्म अपने आज के रूप में नहीं थे तब भी धर्म को लेकर भारतीय मानस बहुत गतिशील था। यक्ष ने यह भी तो पूछा था धर्मराज से कि क्या है धर्म। इस सवाल का जवाब उतना ही आसान होता जितनी आसानी से आज के धर्मधुरंधर इसका जवाब दे देते हैं, तब यह प्रश्न यक्ष-प्रश्न बनता ही क्यों? धर्म बहुत ही जटिल मामला है। इसे किसी एक ही ओर से समझने का दुराग्रह हमें खतरे में डालता है। मूल बात यह है कि एक घाट पर बँध कर धर्म गतिशील नहीं रह सकता है। गतिशीलता के बिना धर्म जीवित नहीं रह सकता है। धर्म अपने से निरपेक्ष रहकर ही गतिशील रह सकता है। इसलिए धर्मनिरपेक्षता धर्म के प्राणवंत बने रहने की भी अनिवार्य शर्त है। इस तथ्य को अपने ऐतिहासिक विकासक्रम में भारतीय राज और समाज दोनों ने हासिल कर लिया था। न सिर्फ हासिल कर लिया था बल्कि अपने अस्तित्व के लिए इसे अपनी संवेदना का अंग बना भी लिया था। बावजूद इसके धर्म सत्ता-निरपेक्ष नहीं रहा, यह भी सच है। धर्म के सत्ता-निरपेक्ष नहीं रहने के कारण ही भारतीय समाज अंदर से विखंडित समाज बनकर रह गया। 

धर्म की सत्ता-सापेक्षता धर्म को पुरोहितवाद के सांस्थानिक संकोच की तरफ ले जाती है। धर्म की सत्ता-निरपेक्षता धर्म को भक्ति के सामाजिक विस्तार की तरफ ले जाती है। भक्ति धर्म की सत्ता-सापेक्षता का विस्तार नहीं है, बल्कि भक्ति धर्म का सत्ता-निरपेक्ष विकल्प है। इसीलिए भक्ति तो संतन को कहा सीकरी सौं काम कह कर सत्ता से अपने को दूर रखने की लगातार कोशिश करती रहती है, लेकिन पुरोहितवाद से सक्षम धर्म ऐसा कह कर अपने को सत्ता से दूर रखने की बात भी नहीं सोचता, बल्कि सत्ता के बिना तो वह जी ही नहीं सकता! स्पष्ट है कि राजनीतिक-सत्ता और धर्म-सत्ता ने एक दूसरे के साथ मिलकर समाज-सत्ता का दुरुपयोग किया है। इस दुरुपयोग का अपना इतिहास रहा है। सच्चे साधु-संतों और साहित्यिकों ने उस ऐतिहासिक विकासक्रम में इस दुरुपयोग को समझा भी है और उसके प्रति सावधान भी किया है। इस सावधान करने का भी अपना इतिहास है। बहुत विस्तार में जाने की गुंजाइश यहाँ नहीं है, फिर भी प्रसंगवश कुछ की चर्चा तो की ही जा सकती है। इससे साधु-संतों और साहित्यिकों की चिंता के मूल केंद्र और उस समय के सामाजिक संबंध में धार्मिक परिप्रेक्ष्य से बनाये जा रहे मारक तनाव का भी पता चलता है। हम जानते हैं कि धर्म और भक्ति एक ही नहीं है, फिर भी ध्यान में रखने की बात यह है कि ये कवि उस अर्थ में अ-धार्मिक नहीं थे। आज के किसी भी स्वनामधन्य धार्मिकों से अधिक धार्मिक थे। लेकिन उनका अपना धर्म उनके निर्विशिष्ट मनुष्य बनने में कहीं से बाधक नहीं बन रहा था। बल्कि निज धर्म के ढाँचे की कोष्ठबद्धता से बाहर निकलकर उनके मनुष्यतर बनने की प्रेरणा बन रहा था। गोरखनाथ, नामदेव, कबीर, दादूदयाल, रज्जबजी आदि के भक्ति संदर्भ से हम समझ सकते हैं कि सामाजिक एकता के संदर्भ में धर्मनिरपेक्ष होकर किस प्रकार धार्मिक हुआ जा सकता है। धर्म मूलत: उस लोक का मामला माना जाता है, लेकिन इन कवियों के यहाँ धर्म के ये भक्ति संदर्भ पूर्णत: इसी लोक से संबंधित है। यह स्थिति उस राजतंत्र में थी जिस राजतंत्र में देश के शासन की बागडोर उन मुसलमान शासकों के हाथ में थी, जिन्हें आज कट्टर और क्रूर बताया जाता है। इस पूरे प्रकरण में एक बात की ओर ध्यान गये बिना नहीं रहता है कि उस समय भी सवर्ण कवियों की वाणी में अन्य उदात्त चेतना चाहे जितनी हो लेकिन हिंदू मुसलमान संबंधों में मधुरता के लिए राम और रहीम के एक होने की बात या तो है ही नहीं या बिल्कुल अ-प्रभावी है। यह तथ्य तब और परेशान करता है जब हम आज के भारतीय राज्य में जनतंत्र की उपस्थिति में भी लक्षित करते हैं कि हिंदू मुसलमान के बीच कटुता पैदा करनेवालों में निर्णायक स्वर सवर्णों का ही दिखता है। क्या यह महज संयोग है? या इसके पीछे सामाजिक-आर्थिक संरचना के धर्मेतर प्रसंगों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान है?

धर्म और सत्ता दोनों कहती है कि मेरे शरण में आ जाओ, निःशर्त्त समर्पण ही सुख और समृद्धि का रास्ता है। आज यही बात बाजार की सत्ता भी कहती है। मनुष्य से समर्पण करवाने की धर्म, राज्य और बाजार की संयुक्त इच्छा इनके संश्रय की नाभिकीय बिंदु है।

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