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मँजी हुई शर्म का जनतंत्र



वह बात, जो फिर उभर कर आ गई..

10 जून 2013 पर 07:32 पूर्वाह्न



मेरी कविताओं के संकलन का नाम है – मँजी हुई शर्म का जनतंत्र। मँजी हुई शर्म का जनतंत्र – पद मेरी एक कविता में आया है... धर्म है, ईमान है, सब है, प्रसाद पाने के लिए, बढ़े हुए हाथ की मँजी हुई शर्म है। एक बार एक सज्जन ने पूछा था कि शर्म तो शर्म है .. ये मँजी हुई शर्म क्या होती है। मँजी हुई शर्म को समझना थोड़ा टेढ़ा है। मेरी लिखावट के टेढ़ेपन से अक्सर मित्र (पाठक तो हैं नहीं) परेशान हो जाते हैं, कभी-कभार शिकायत भी करते हैं। मैं अपनी तरफ से सावधान रहता हूँ। मगर क्या करूँ कई बार फेल कर जाता हूँ। फेल कर जाने का दुख मुझे भी बहुत होता है।

बहरहाल, ‘मँजी हुई शर्म का जनतंत्र’ पद पर आता हूँ। हिंदी में खूबसूरत आँखवाली को मृग नयनी कहा जाता है। एक खूबसूरत आँखवाली को देखकर मेरे मन में भी उसके लिए यही पद उभरा – अहा.. मृग नयनी। अब मेरे सामने समस्या मृग की आँख को लेकर खड़ी हो गई यह जानने की, कि मृग की आँख में खूबसूरत क्या होता है। यह ठीक है कि संस्कृत के हिसाब से पशु मात्र को ही मृग कहते हैं लेकिन अर्थ-संकोच के बाद हिंदी में मृग का अर्थ हिरण है। मृग की आँख देखने के बाद ही आगे कुछ हो सकता था। अब मृग कहाँ मिले! उन दिनों कोलकाता के राष्ट्रीय पुस्तकालय में हमारा आना-जना बहुत था। पुस्तकालय के पास ही कोलकाता का चिड़िया खाना है। एक दिन पहुँच गये वहाँ मृग की आँख देखने। बहुत कोशिश के बाद भी मृग की आँख में कोई खूबसूरती दिखी नहीं। मन बहुत उदास हो गया था लेकिन फिर एक दिन हौसला बाँधकर इसी खोज में निकल पड़ा। उस दिन सफलता मिली। शताब्दियों का जमा हुआ जो डर है, एक हल्की-सी आहट पर भी हिरण की आँख में कौंध जाती है। कितनी भयानक बात है कि खूबसूरती डर की इस कौंध में मुझे दिखी। शायद, स्त्री की आँख में पुरुष की उपस्थिति से उत्पन्न डर जब कौंधती है तो उससे पुरुषत्व के मिथ्या अहं की तुष्टि होती है और ऐसी आँख सुंदर लगने लगती है। भय और लाज का भी गहरा संबंध है। शताब्दियों का जमा हुआ भय लाज में बदल जाता है और इसे स्त्रियों का आभूषण कहा जाता है। खैर, हिंदी में एक और कहावत है --- नाच में घूँघट क्या ? मेरा ग्रामीण अनुभव है कि नाच में घूँघट का अर्थात लजाने के भाव का बड़ा महत्व होता है। जब सामनेवाले को पता हो कि उसका शर्माना आप के मनोभाव को अच्छा लगता है तब वह मन में शर्म के न होने पर भी शर्माने का स्वाँग कर आपके मनोभाव को काबू में कर लेता है। मनोभाव को काबू में करनेवाली यही शर्म मँजी हुई शर्म है। जनतंत्र का प्राण है लोक-लाज या शर्म। यह सच प्रतीत होता है कि हमारे जनतंत्र के अधिकतर संचालकों में कोई लोक-लाज या शर्म शेष नहीं है। वास्तविक लोक-लाज या शर्म के नहीं रहने पर भी लोक या जनता के मनोभाव को काबू में करने के लिए वे इसका इस्तेमाल करते हैं और हमारे जनतंत्र को मँजी हुई शर्म के जनतंत्र में बदल देते हैं। इतनी टेढ़ी बात को मित्र लोग (पाठक तो हैं नहीं) सहज ही कैसे पकड़ सकते हैं? और नहीं पकड़ सकते तो क्या यह मित्रों का दोष है? नहीं। बिल्कुल नहीं। यह तो मेरी समस्या है कि इस टेढ़ी बात को सहज ढंग से क्यों नहीं कह पाता हूँ!

मैं फेल हो जाता हूँ। फेल हो जाना किसे दुखी और उदास नहीं करता है? मैं दुखी और उदास हो जाता हूँ। मेरे इस दुख का, इस उदासी का तुम क्या करोगे प्रियंवद ..


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Sushil Chaudhary, Sanjay Parate, Sudhir Kumar Jatav और 5 अन्य को यह पसंद है.


Shesh Amit मृग के दीर्घ,चपल नयनों में सुंदरता के साथ सत्य और शिव का भी साथ होता है।महाकवि गेटे ने कहीं कहा था,इतिहास का निचोड़ या मधु है मिथक और मिथक का निचोड़ या मधु है रहस्यबोध।मृगनयन में हंस,विष्णु और शिव छिपे बैठे हैं।बस यवनिका का उठना है।शाश्वत अभयदान से र्न...और देखें
19 जुलाई पर 12:13 अपराह्न · पसंद · 1


प्रफुल्ल कोलख्यान Shesh Amit सर, पुरुष मृगनैन क्यों नहीं होते! इतने पांडित्य-निचोड़ की जरूरत यहाँ नहीं थी। वैसे गवाक्ष का अर्थ... खैर जाने दीजिये.. आभार...
20 जुलाई पर 06:35 पूर्वाह्न · पसंद


Shesh Amit
प्रफुल्ल सर नमस्कार। आप लगता है नाराज़ कहो गये ।करबद्ध क्षमायाचना। आपके हर पोस्ट को प्रतिदिन ध्यान से पढ़ता था ,गुनता था।पढ़ने के बाद मन में जो भावनायें आती हैं उसे निर्भय होकर कहना भी चाहता था।एक अध्यापक का एक छात्र से ईमानदार विमर्श की चाह। आपने एकप्रश्न किया है और एक पर चिह्ण लगाकर छोड़ दिया है।बात से बात निकलती है और संदेह संशय हटते हैं लेकिन आपकी टिप्पणी में छुपा हुआ एक रोष प्रतीत हुआ। मेरा दूर दूर तक कोई इरादा नहीं था अखन त बाजते छि हारलौं कोना सिद्ध करना।अगर आपको कष्ट हुआ तो सविनय माफी र्मागते हुये मैं सदा के लिये आपकी नज़रों से ओझल होने की आज्ञा चाहूँगा ।
20 जुलाई पर 09:32 पूर्वाह्न · पसंद


प्रफुल्ल कोलख्यान Shesh Amit सर मैं नाराज क्यों होऊँगा भला! मेरी सहज जिज्ञासा है कि पुरुष मृगनैन क्यों नहीं होते!
20 जुलाई पर 09:36 पूर्वाह्न · संपादित · पसंद

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