मैं ने सुना है, हो सकता है आपने भी सुना हो। आपने क्या सुना, सुने का क्या किया मुझे नहीं मालूम। मैं तो कभी तय ही नहीं कर पाया कि यह झूठ है या सच। वैसे मैं झूठ सच के चक्कर में अब कम ही पड़ता हूँ। फिर भी आप से कहता हूँ। क्योंकि कहने से सुनने तक और फिर उसे कहने और फिर सुनने तक की विभ्रमकारी शृँखला के अननंत में बहुत कुछ बदल जाता है। इतना बदल जाता है कि हर बार पुराना कुछ नया-नया-सा हो जाता है।
तो, हुआ यों कि एक बार एक नास्तिक अपने एकांत में भगवान की मूर्त्ति के समक्ष नतमस्तक पाया गया। स्व-घोषित नास्तिकों में हड़कंप मच गया। भगवान की मूर्त्ति के समक्ष ही स्व-घोषित नास्तिकों ने उस नास्तिक को घेर लिया। प्रश्न दागे जाने लगे। नास्तिक ने कहा मैं किसी भगवान के समक्ष नतमस्तक नहीं था। मैं उस पत्थर के समक्ष नतमस्तक था, जिसने तराशे जाने का दर्द सहा है। स्व-घोषित नास्तिकों का प्रश्न सन्नाटा में बदलता चला गया। तभी अचानक सन्नाटा को चीरती हुई आवाज मूर्त्ति के पत्थर से निकली। पत्थर कह रहा था :-
मैं पत्थर का हूँ तो क्या हुआ? मेरा भी दिल है! हाँ, मैंने तराशे जाने का दर्द सहा, वह आसान था। मेरा क्या? मैं तो पत्थर का हूँ ही! लेकिन मैं यह सह नहीं सकता कि राज-समाज के तराशे हाड़-माँस का कोई मेरे समक्ष इस तर्क के साथ नतमस्तक हो। जिनका तर्क खो गया या जिन्हें जीवन का तर्क इस तरह से कभी हासिल नहीं हुआ उनका नतमस्तक होना मैं सहता रहा हूँ, लेकिन मैं यह सह नहीं सकता कि राज-समाज के तराशे हाड़-माँस का कोई मेरे समक्ष इस तर्क के साथ नतमस्तक हो। एक मिनट का सन्नाटा और फिर कोलाहल के बीच स्व-घोषित नास्तिकों का समूह कीर्तन-मंडली में बदलता चला गया। नास्तिक अपने एकांत के कोलाहल में और भगवान की मूर्त्ति का पत्थर अपने कोलाहल के एकांत में डूबता चला गया।
आपकी बात! आप ही जानें! हालाँकि, मुझे निस्संदेह पूरा संदेह है!
आप की राय सदैव महत्त्वपूर्ण है और लेखक को बनाने में इसकी कारगर भूमिका है।
आप की राय सदैव महत्त्वपूर्ण है और लेखक को बनाने में इसकी कारगर भूमिका है।
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