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भारतीय साम्यवाद का भविष्य

भारतीय साम्यवाद का भविष्य

0 साम्यवादी विचारधारा के भारत के साथ संबंधों को आप किस तरह व्याख्यायित करते हैं? विस्तार से बताएं?

जिस विशिष्ट वैचारिक अर्थ में हम साम्यवादी विचारधारा को ग्रहण करते हैं उसका संबंध पाश्चात्य दार्शनिक परंपरा के विकास से है। संक्षेप में कहें तो जो कांट हीगेल आदि से होते हुए मार्क्स तक पहुँचकर अपना आकार पा लेता है। इससे इतर भारत में समतामूलक या कहें तो समताकांक्षी मनोभावना रही है। इस समताकांक्षी मनोभावना का साम्यवादी विचारधारा से सहमिलानी संबंध स्थापित होना था। लेकिन यहाँ एक गड़बड़ी हुई। गड़बड़ी यह कि, कम-से-कम शुरुआती दौर में, साम्यवादी विचारधारा के आग्रही लोगों ने जाने-अनजाने न सिर्फ भारत की इस समताकांक्षी मनोभावना की, न सिर्फ उपेक्षा की, बल्कि जानबूझकर अवहेलना भी की। मैं सोचता हूँ कि आखिर ऐसा क्यों हुआ! तो जो कुछ बातें समझ में आती हैं उनकी ओर इशारा मैं करना चाहता हूँ। समताकांक्षी मनोभावना की जो परंपरा हम भारत में देखते हैं उसका नाभि-नाल संबंध उन समूहों से रहा है जिनको असमान बनाने का काम बाह्मणवाद, आपत्ति हो तो कह लें वर्णवाद, ने किया। साम्यवादी विचारधारा के आग्रही लोगों में से अधिकतर उच्चवर्ण से आते थे  और वे इस समताकांक्षी भावना या चेतना के मुख्य स्वर को पहचान नहीं पाते थे, या पहचान नहीं सकते थे। मेरा इशारा खासकर साम्यवादी विचारधारा के आग्रही लोगों में, आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक एवं धार्मिक आधार पर, दलितों की अनुपस्थिति से है और उससे भी कहीं अधिक इस अनुपस्थिति को दूर करने के प्रति उदासीनता से है। दूसरी बात यह कि साम्यवादी विचारधारा के राजनीतिक उपकरण में बदलकर महत्त्वपूर्ण हो जाने का संबंध औद्योगीकरण की प्रक्रिया से रहा है। यह दुनिया के मजदूरों और सर्वहारा की बात करता रहा है। सर्वहारा का अर्थ उस व्यक्ति से नहीं है जो अपना सब कुछ हार या खो चुका है। बल्कि उन लोगों से है जो भूमिदास की अवस्था से मुक्त हो चुके हैं और जिनके पास अर्थोपार्जन के लिए व्यक्तिगत हुनर के अलावा कुछ नहीं होता है। हुनर का होना अपने आप में ही बड़ी बात है। इस अर्थ में देखें तो सर्वहारा न दीन होता है और न हीन होता है। भारत में सर्वहारा की छवि दीन, हीन ही नहीं बल्कि मलीन की भी बनी रही और इस छवि को बदलने का उपाय तो नहीं किया गया, बल्कि उलटे इस छवि को ही ‘महिमा मंडित’ ही किया गया या होने दिया गया।

मजदूर औद्योगीकीकरण की प्रक्रिया में अस्तित्व में आये। खेतिहर व्यवस्था में लगे लोग लोगों को पारंपरिक रूप से मजदूर नहीं जन या जोन कहा जाता रहा है। मजदूर और जन या जोन में एक बारीक अंतर की और ध्यान दिलाना लाजिमी है। जल या जोन उत्पादन के साथ ही उत्पाद में भी भागीदार थे। मजदूर उत्पादन की प्रक्रिया में तो भागीदार होते हैं लेकिन उत्पाद के भागीदार नहीं होते, अधिकतर मामलों में सीधे भोक्ता भी नहीं होते। जो हो, भूमि संबद्धता को भूमिदास मानने का भी बड़ा असर हुआ। ध्यान में रखना चाहिए कि संबद्धता सिर्फ स्वामित्व की स्थिति से तय नहीं होती है। भारत में असमानता एक सामाजिक सवाल भी था, आर्थिक सवाल भी था और जनतंत्रात्मक व्यवस्था में यह गहन राजनीतिक सवाल के साथ ही सांस्कृतिक सवाल बनकर भी उभरा। और यह बहुत जटिल स्थिति है। जटिल इसलिए कि ऊपर से सामाजिक दिखनेवाला सवाल अपने मूल रूप में धार्मिक कट्टरताओं से जुड़ा था और यह धार्मिक कट्टरता असल में उतना धार्मिक नहीं है जितना पुरोहितवादी है। पुरोहितवाद किसी एक जाति के ही रोजगार से जुड़ा नहीं था। समाज में विभिन्न जातियों की जजमनिका का अस्तित्व रहा है। विडंबना यह कि यह पुरोहितवाद किसी एक जाति या समुदाय से ही जोड़कर देखा-समझा गया। पुरोहितवाद जाति की सेवा नहीं करता, बल्कि यह राज की सेवा करता रहा है। आज चुनावों के माध्यम से राजसत्ता पर दखल जमाने के चक्कर में पड़े लगभग सभी राजनीतिक दल इस पुरोहितवाद का सेवन कर रहे हैं। जातिवाद पर आधारित कोई भी प्रक्रिया पुरोहितवाद का सेवन करने के लिए बाध्य है। लेकिन पुरोहितवाद या ब्राह्मणवाद को किसी एक जाति या समुदाय की सेवा से जोड़कर देखने के कारण यह साम्यवादी विचारधारा के आग्रही लोगों अपनी वास्तविक व्याप्ति की तुलना में बहुत छोटा दिखकर छलता रहा। अधिक कड़ाई से कहूँ तो इस छल में साम्यवादी विचारधारा के आग्रही लोग शरणागत होते रहे।

भारत मूलतः कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के सामंती अवशिष्टों और वह भी निकृष्ट अवशिष्टों के चंगुल में फँसा रहा और अधिकतम रियायत के साथ भी कहूँ तो, साम्यवादी विचारधारा के आग्रही लोग उत्तर-औद्योगिक पूँजीवादी के अप्रकट क्रूर चेहरे का भय दिखाकर उससे मुक्तिदाता के रूप में अपने होने को विश्वसनीय बनाने के निर्दोष उपाय में लगे रहे। हुआ यह कि तत्काल जो सता रहा है उससे मुक्ति की बात न कर अप्रकट भय की बात करनेवाले लोगों पर स्वाभाविक रूप से जनता ने विश्वास नहीं किया। खुद मार्क्स के चिंतन के हवाले से भी समझा जा सकता है कि साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना की शुरुआत सघन औद्योगिक वातावरण में ही हो सकता है। जहाँ सघन औद्योगिक वातावरण नहीं है वहाँ यह स्थानीय विशिष्टताओं के अनुसार अपना रूप बदलकर आगे बढ़ सकता है। उदाहरण, चीन और रूस का है, मार्क्सवाद और माओवाद, मार्क्सवाद और लेनिनवाद। कुल जमा यह कि भारत में साम्यवादी दर्शन का समताकांक्षी सामाजिक मनोभावना की आकांक्षाओं में निहित स्थानीय विशिष्टताओं के साथ संयोग विकसित न हो सका।  

0 साम्यवादी दर्शन का जब से भारत के चिंतन और निजी-सार्वजनिक जीवन में प्रवेश हुआ है, तब से लेकर अब तक आप उसकी भूमिका और योगदान को किस प्रकार आंकते हैं?

साम्यवादी दर्शन जीवन की किसी एक चर्या का नहीं, बल्कि एक तरह से कहें तो समग्र जीवन दर्शन और सभ्यता के मानवीय होने की अनिवार्य भौतिक शर्त्त है।  एक उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है। मनुष्य के सामाजिक जीवन का आधार है परिवार। परिवार में संसाधनों और आर्थिक भागीदारी के लिए जिस सिद्धांत को अपनाया जाता है, वह निश्चित रूप से साम्यवादी सिद्धांत है। परिवार के सभी सदस्य अपनी योग्यता के अनुसार देते हैं और जरूरत के अनुसार लेते हैं। योग्यता के अनुसार देने और जरूरत के अनुसार लेने की स्थिति के टूटते ही परिवार टूटकर बिखर जाता है। लेकिन भारत के चिंतन और निजी-सार्वजनिक जीवन में यह सिर्फ वर्ग चेतना या बोध के रूप में ही लागू हो सका वह भी आधा अधूरा।

0 हमारे राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक जीवन और मूल्य को साम्यवादी विचारधारा में कितना प्रभावित किया है?

साम्यवादी दर्शन का समताकांक्षी सामाजिक मनोभावना की आकांक्षाओं में निहित स्थानीय विशिष्टताओं के साथ संयोग विकसित न हो सकने के कारण साम्यवादी विचारधारा जीवन मूल्य के रूप में विकसित न हो सका। हाँ, औद्योगिक क्षेत्र में और खासकर सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में पूँजी और मजूरी के संबंधों को इसने प्रभावित किया। इस प्रभाव का सकारात्मक असर अन्यत्र भी पड़ा। लेकिन यह तो मानना ही होगा कि अंततः यह सकारात्मक असर जीवन मूल्य का विकास न कर नये किस्म के लालच को ही हमारे चरित्र का हिस्सा बना दिया।

0 क्या भारत के परंपरागत सिद्धांतों, मूल्यों और दृष्टिकोण ने भारतीय साम्यवाद को भी प्रभावित किया है?

नहीं। राजनीतिक और दलीय गतिविधियों के बाहर, मुझे नहीं लगता कि साम्यवाद का कोई भारतीय संस्करण या विलक्षण प्रस्ताव तैयार हो पाया। यह एक सचाई है और इससे मुँह चुराना आत्मघाती है। बुनियादी तौर पर इस बात को समझते थे। समझते थे इसलिए भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी और भारत की कम्युनिष्ट पार्टी के अंतर को वे भरत सके। लेकिन, इस बरताव का कोई कारगर असर नहीं हुआ।

0 भारतीय साम्यवाद का मुख्य संघर्ष भारत में किन विचार-तत्वों, मूल्यों और परंपराओं से हुआ है?

भारतीय साम्यवाद जैसी किसी बात की कोई संकल्पना मेरे विचार में है नहीं। हाँ, भारत में साम्यवाद के प्रसार और स्वीकार में जातिवाद सहित पुरोहितवाद के सभी संस्करणों और ग्रामीण सामंती मिज़ाज में निहित आंतरिक औपनिवेशिक प्रसंगों से उत्पन्न यथार्थ मुख्य अवरोधक रहा है। भारत की राजनीतिक आजादी के आंदोलन का उत्ताप के प्रभाव में डूबा भारत का सक्रिय मन ऐसी किसी भी बात को मानने से प्रभावकारी ढंग से हिचक जाता था जिसमें औपनिवेशिक दासता का जरा भी आभास हो। राजनीतिक रूप से बहुत ही भोथड़े ढंग से इसे लागू करने की कोशिश की गई, खासकर 15 अगस्त 1947 के बाद। यह राजनीतिक भोथड़ापन का ही नतीजा था कि साम्यवाद को गाँधीवादी जीवन शैली के विकल्प या विस्तार के रूप में न पेश कर उसके विरुद्ध पेश किया गया या पेश होने दिया गया।

0 ऐसा समझा जाता है कि भारत के लिए गांधी-दर्शन और साम्यवादी चिंतन दो विपरीत ध्रुव हैं, जिन दोनों के बीच भारतीय जनमानस उलझकर रह जाता है। क्या आप इन दोनों विचारों के बीच कोई ऐसी समानता देखते हैं जो हमारे लिए व्यवहारिक हो?

गांधी-दर्शन और साम्यवादी चिंतन दो विपरीत ध्रुव नहीं हैं। गांधी-दर्शन और साम्यवादी चिंतन में दिशा और आकांक्षा की समानता है और कार्य प्रणाली में अंतर है। कार्य प्रणाली में अंतर पर की जानेवाली बहस ने ऐतिहासिक रूप से दिशा और आकांक्षा की समानता को बहुत मलीन और धुँधला बना दिया, इतना ही नहीं दोनों ने एक दूसरे को मजबूत बनाने के बदले कमजोर किया और अविश्वसनीय ही बनाया।

0 भारतीय समाज और यहां की राजनैतिक-लोकतांत्रिक व्यवस्था मूलत: मध्यमार्गी समझी जाती है। ऐसे में आप साम्यवादी दर्शन की हमारे देश में सैद्धांतिक व व्यवहारिक सफलता के प्रति आश्वस्त हैं या आप उसकी कामयाबी को संदिग्ध मानते हैं?

साम्यवादी चेतना की बिखरी हुई अंतर्वस्तु के प्रभावकारी बनते जाने के प्रति मैं आश्वस्त हूँ लेकिन इस साम्यवादी चेतना की बिखरी हुई अंतर्वस्तु को सहेजनेवाले, इस में तारतम्य विकसित करनेवाले राजनीतिक सांस्कृतिक ढाँचा का अभाव मुझे गहरी शंका में डाल देता है।       

0 एक बुद्धिजीवी के रूप में आप साम्यवादी दर्शन को किस प्रकार से व्याख्यायित करते हैं?

पहले कह चुका हूँ, साम्यवादी दर्शन जीवन की किसी एक चर्या का नहीं, बल्कि एक तरह से कहें तो समग्र जीवन दर्शन और सभ्यता के मानवीय होने की अनिवार्य भौतिक शर्त्त है।

0 इस दर्शन ने विश्व के साहित्यिक-कलागत-सांस्कृतिक जगत को किस प्रकार प्रभावित किया? भारत के संदर्भ में अगर चर्चा की जाए तो साम्यवाद हमारे सांस्कृतिक पहलुओं को किस प्रकार प्रभावित करता है? कला, साहित्य और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से वे कौन से तत्व हैं, जिनके कारण हमारा बुद्धिजीवी वर्ग इस चिंतन से जुड़ता है?

जीवन दर्शन और सभ्यता के मानवीय होने की अनिवार्य भौतिक शर्त्त को सामाजिक सांस्कृतिक आधार पर स्वीकार्य और ग्राह्य बनाने के संदर्भ में साम्यवादी दर्शन ने विश्व के साहित्यिक-कलागत-सांस्कृतिक जगत को निश्चित ही प्रभावित किया है।

0 वैचारिक स्तर पर साम्यवादी विचारधारा ने बुद्धिजीवियों, लेखकों, नाटककारों को बहुत प्रभावित किया है। प्रगतिशील लेखक संगठन, इप्टा जैसी संस्थाओं से जुड़े लोगों ने अपने- अपने स्तर पर समाज प्रबोधन का काम किया है। वर्तमान में आप उनकी स्थिति, भूमिका और योगदान को किस प्रकार देखते हैं?

यह सच है कि शुरुआती दौर में लेखकों और संस्कृति कर्मियों को थोड़ा बहुत महत्त्व मिला। लेकिन बाद के दिनों में यह महत्त्व छीजता चला गया। साम्यवादी विचारधारा से जुड़े राजनीतिक लोगों ने बुद्धिजीवियों, लेखकों, नाटककारों के महत्त्व को न सिर्फ भुला दिया बल्कि उन्हें अपना पिछलग्गू बना दिया। उदाहरण के लिए, शुरुआती दौर में उस समय के लगभग सभी महत्त्वपूर्ण लोगों ने प्रगतिशील लेखक संघ के घोषणापत्र को पढ़ा समझा उस पर चर्चा की और सहमति में हस्ताक्षर भी किया। बाद में दृष्टि की इस व्यापकता में खतरनाक सिकुड़न आती गई। यह कैसे हुआ, इस पर बहुत सारी बातें हैं। उदाहरण  के तौर पर एक प्रसंग। प्रगतिशील लेखक संघ से जैनेंद्र का भी जुड़ाव था। वस्तुतः रचनाशीलताएँ परस्पर भिन्न होती हैं विपरीत नहीं। यह सच है कि प्रेमचंद और जैनेंद्र की रचनाशीलता में अंतर है, लेकिन ये परस्पर विरोधी रचनाशीलता नहीं है। फिर भी बाद में जैनेंद्र की रचनाशीलता को विरोधी माना गया। साम्यवादी विचारधारा से जुड़े राजनीतिक लोगों का साहित्य आदि से कैसा जुड़ाव है, मुझे नहीं मालूम। वे पढ़ते भी नहीं हैं। पढ़ते भी हैं, मुझे इसमें पूरा संदेह है, तो स्थापित और चर्चित को ही। बहुत चर्चा करना यहाँ, संभव भी नहीं है और जरूरी भी लेकिन यह कहना जरूरी है कि साहित्य और संस्कृति कर्म राजनीतिकों का उपनिवेश नहीं है। लेकिन साहित्य और संस्कृति कर्म को संगठनों और मंचों के माध्यम से राजनीतिकों का उपनिवेश ही बनाने की आत्मघाती कोशिश की। हाँ, अगर किसी अन्य कारण से साहित्य और संस्कृति कर्म में लगे लोग चर्चा में आ जाते हैं, अक्सर असहमतों और विरोधियों की गतिविधियों या कार्रवाइयों के कारण, तो जरूर ये भी उसकी तरफ बढ़ते हैं। कन्हैया प्रकरण में और भी कई मामले हैं, विचार के कई प्रसंग और स्तर हैं, फिर भी साम्यवादी विचारधारा से जुड़े राजनीतिक लोगों के इस संदर्भ में किये गये व्यवहार को याद किया जा सकता है। खैर छोटा मुँह, बड़ी बात।

0 क्या देश के पुनर्जागरण और आधुनिकता पर आप साम्यवाद का प्रभाव देखते हैं? इसे जरा विस्तार से बताएं!

पता नहीं पुनर्जागरण से क्या आशय है। पुनर्जागरण और नवजागरण में अंतर है। आधुनिकता और आधुनिकतावाद में भी अंतर है। ऐतिहासिक द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की बात को ध्यान में रखें तो ऐतिहासिक रूप से बहुत सारी प्रवृत्तियाँ एक साथ जारी रहती हैं एक दूसरे को द्वंद्वात्मक गति में डालती हैं और प्रभावित करती हैं। यह एकतरफा या सिर्फ दो तरफ नहीं, बहुतरफा होता है। एक दूसरे के ऊपर पड़नेवाले इन के पारस्परिक प्रभावों को कार्य-कारण सिद्धांत की दृष्टि से नहीं, बल्कि वाद-विवाद-संवाद की गतिमान प्रक्रिया के नजरिया से समझा जा सकता है।

अंत में, यह कि मैं यह साफ कर दूँ कि इतने महत्त्वपूर्ण सवालों का जवाब देने के लिए मैं बहुत उपयुक्त व्यक्ति नहीं हूँ। मेरा अनुभव भी बहुत-बहुत ही सीमित है और ज्ञान भी। मैं दर्शन से जुड़े संदर्भों में अपनी राय तो रख सकता हूँ लेकिन दल से जुड़े सवालों का जबाव देना न तो मेरे लिए मुमकिन है और न जरूरी। इसे इसी रूप में ग्रहण किये जाने का अनुरोध है।


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