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मुक्तिबोध की कविताएं खालिस चावल की तरह नहीं, धान और धनखेत की तरह हासिल होती हैं

मुक्तिबोध की कविताएं खालिस चावल की तरह नहीं धान और धनखेत की तरह हासिल होती हैं

प्रफुल्ल कोलख्यान से अरुण शीतांश और अविनाश रंजन की बातचीत

प्रश्न--21वीं सदी में मुक्तिबोध को (भारत के परिप्रेक्ष्य में) किस रूप में देखते हैं?

उत्तर-- मुक्तिबोध हिंदी के महत्वपूर्ण कवि हैं और 21वीं सदी में भी महत्वपूर्ण रहेंगे। चिंता की बात यह है कि मुक्तिबोध जैसा समाज चाहते थे, वैसा समाज बनने-बनाने की संभावना धीरे- धीरे धूमिल होती चली गई।  जो है, उससे बेहतर की कामना और उस कामना को पूरा करने के लिए 'मेहतर' बन जाने की दिशा में भारत का बौद्धिक वर्ग जरा भी तत्पर नहीं हुआ। इसके कुछ कारण तो साहित्यकारों के अपने चरित्र में भी है। ऐसे में जबकि साहित्यकारों की विश्वसनीयता ही खतरे में है, यह एक कठिन सवाल है। समझौता परस्त और सब कुछ को हासिल कर लेने के लालच से भरे बहुसंख्यक हिंदी साहित्यकारों के इस मध्य-वर्गीय चरित्र को आत्मधिक्कर की हद तक ले जाने वाले सबसे बड़े हिंदी कवि के रूप में मुक्तिबोध हमारे साथ रहेंगे। लेकिन सबसे बड़ा  सवाल यह है कि सामान्य हिंदी जन की तरह ही हिंदी साहित्यकारों का आत्मबोध भी दुर्बल है। न जाने, आत्मधिक्कार का आगे कैसा असर होगा, अब तक जो असर हुआ है वहो तो खैर सामने ही है। लेकिन सवाल तो पूछा ही जाएगा। मुक्तिबोध के शब्दों में - मर गया देश और बच गए तुम...! तुम, यानी हम! कभी प्रेमचंद की कहानी ने सवाल उठाया था कि  क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कहोगे..। अरुण जी! 21वीं सदी का हिंदी साहित्यकार  इन दो सवालों का जवाब किसी अन्य के लिए नहीं, बल्कि अपने लिए ढूढ़ पाएगा? अगर  हां तो मुक्तिबोध और प्रेमचंद हमारे लिए प्रासंगिक (प्रेरक ) बने रहेंगे।

प्रश्न-- मुक्तिबोध को आम पाठक से कविता की कठिनाइयों को लेकर एक अवधारणा अभी तक चली आ रही है । उससे कैसे समझा जाए?

उत्तर-- आम आदमी और आम पाठक, हिंदी कविता या साहित्य के पारस्परिक संबंध कभी बहुत करीबी नहीं थे। लेकिन मुक्तिबोध के संदर्भ में जानबूझकर इस सवाल को बड़ा बना दिया गया। मैंने एक बार विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में पूछा था कि -'चलो! मुक्तिबोध आम आदमी की समझ में नहीं आते हैं। तो क्या अज्ञेय आ जाते हैं? अच्छा चलिए प्रेमचंद तो समझ में आ जाते हैं न! और तुलसीदास भी! तो फिर, विद्वान अध्यापक साल-साल भर उच्च कक्षाओं में छात्रों को क्या समझाते रहते हैं? मेरी, आपकी माने हर किसी की समझ की अपनी कई समस्याएँ और सीमाएँ हुआ करती हैं! अब प्रेमी-प्रेमिका गुलाब को एक तरह से समझते हैं, बागवान एक तरह से, तो बेचनेवाला किसा और तरह से और वनस्पति शास्त्री तो खैर अपनी ही तरह से समझता रहता है। यकीन मानिए अरुण जी! इनमें से कोई भी गुलाब को दूसरे की तरह से समझना नहीं चाहता है, शायद जरूरी भी नहीं है। तो सवाल यह है कि आप मुक्तिबोध को किस तरह से समझना चाहते हैं। अगर मुक्तिबोध को  आप अपनी तरह से अपनी शर्तों पर या अपनी किसी अपरिभाषित सुविधा की जरूरत से समझना चाहते हैं तो आपके लिए यह काम बहुत कठिन है। जाहिर है आम पाठक के लिए भी। तो फिर मुक्तिबोध को कैसे समझा जाए? मुक्तिबोध को मुक्तिबोध की शर्त पर समझा जाए। अरुण जी! मुक्तिबोध 'अंधेरे में' चीखते हुए कविता लिखते थे।और हम उसे 'उजाले में' मुस्कुराते हुए समझना चाहते हैं। और कहते हैं कि धत्! यह तो समझ में नहीं आया । समझ सकते हैं कि 'अंधेरे में 'खड़ा आदमी 'उजाले में' खड़े आदमी को देख सकता है, देखता है। लेकिन उजाले में खड़ा आदमी अंधेरे में नहीं देख सकता है। अरुण जी! मुक्तिबोध अंधेरे में खड़े थे। वह कोई सामान्य अंधेरा नहीं था। जिस उजाले में हम मुस्कुराते रहे हैं, वह कम कलुष नहीं है। मुक्तिबोध अगर समझ में नहीं आते हैं तो यकीनन अपने समय के संकट की हमारी समझ पूरी तरह से अधूरी है। मुक्तिबोध के काव्य प्रयोजन ठीक से समझ लिया जाए तो मुक्तिबोध को समझना उतना मुश्किल नहीं होगा, जितना अब तक बताया जाता रहा है। यह गंभीर सवाल है। मुक्तिबोध  पूछते थे अपने दोस्तों से कि -' पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?' निश्चित रूप से मुक्तिबोध खुद इस पॉलिटिक्स के शिकार रहे हैं। तो सवाल यह है कि मुक्तिबोध को समझने और न समझने की हमारी ‘पॉलिटिक्स’ क्या है। सब चुप! यकीन मानिए, मुक्तिबोध  समय के साथ-साथ और भी तीखे होते चले जाएंगे। वे ‘ब्रह्मराक्षस’ और भयावह होंगे। और तबतक समाज की बेचैनी सुप्त बनी रहेगी, जबतक उनकी हार का बदला चुकाने के लिए कोई प्रकट हो कर विकट नहीं हो जाता है। हमें मुक्तिबोध समझ में नहीं आयेंगे। अरुण जी! हमें तो अपनी-अपनी आत्म-हीन कायर और कातर मजबूरियों के कारण ही समझ में नहीं आते हैं। मुक्तिबोध क्या खाक समझ में आएंगे! वे मुक्तिबोध, जो लगातार अपनी मजबूरियों के सतह से हम सब को गहरी चुनौतियां देते हैं। समझ की भी अपनी एक पॉलिटिक्स होती है, समझ रहे हैं न आप!

प्रश्न-मुक्तिबोध ने धर्म के बारे में अपना पक्ष समाज के सामने किस तरह रखा है?
उत्तर--अरुण जी जिस परिप्रेक्ष्य में यह प्रश्न आपने उठाया है, वह परिप्रेक्ष्य सबके सामने है। इस पर कुछ कहने के पहले, मैं डॉक्टर राम मनोहर लोहिया की एक बात आप के सामने रखना चाहता हूं। उन्होंने कहा था कि लंबे समय तक चलने वाली राजनीति अंतत: धर्म के रूप में संगठित होकर सामने आती है । इस बात को ध्यान में में रखिए की यह बात समझने में देर नहीं लगेगी की दुनिया में और खासकर भारत में कल्चरल कनफिलक्ट की प्रक्रिया क्या रही है और वह किस-किस रूप में प्रकट होती रही है। मुक्तिबोध ने कहा था कि संस्कृति निर्माण की प्रक्रिया अमूर्त प्रक्रिया नहीं है। तो मुक्तिबोध सांस्कृतिक निर्माण की जिस प्रक्रिया की ओर इशारा कररहे थे उस प्रक्रिया को समझना होगा। इतना कहना जरूरी और मुनासिब भी है कि भारत में सांस्कृतिक निर्माण की प्रक्रिया धर्म के आवरण में जारी रही है। देखिए कि सांस्कृतिक संघात की थीसीस अपनी एंटी थीसिस को ही सेंथीसीस मानकर समय के साथ आगे बढ़ती जाती है और इसके लिए धर्म के आडंबर का इस्तेमाल अपने प्रयोजन के लिए करती है। धर्म का यह आडंबर रूप अपनी अंर्तविरोधी जटिलताओं के साथ सामान्य रूप से स्वीकृत होने लगता है। और हाँ, इसके आर्थिक पहलू तो जबर्दस्त होते ही हैं।संत कवि, खासकर कबीर इसलिए धर्म के आडंबर का इतना कड़ा विरोध करते थे। समाज का जागरूक तथा वर्चस्वशाली पक्ष इसे समन्वय कहता है। इस समन्यवय की गति-मति को समझते और स्वीकार करते हुए, उसके प्रवाह में रहते हुए समाज का जागरूक तथा वर्चस्वशाली पक्ष अंतर्विरोध पर अपनी सावधान नज़र  टिकाए रखता है। नजर टिकाए रखता है कि अंतर्विरोध प्रवाह को बाधित या विचलित न कर दे।  आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि भारत वर्ष का नायक वही हो सकता है जो समन्वय वादी हो। बुद्ध को तो समन्वयवादी कहा ही, तुलसीदास को सबसे बड़ा समन्वयवादी कहा। तुलसीदास की तुलना में कबीर दास के समन्य को थोड़ा कमजोर कहा! क्यों? गाहे-बगाहे ऐसे सवाल परेशान करते रहते हैं। मुक्तिबोध ने एक तीखा सवाल किया है; पूछा है कि आज संस्कृति का नेतृत्व किन  हाथ में है? निश्चित रूप से समाज के प्रताड़ित नीचले स्तर और श्रम से जुड़े लोगों के हाथ में नहीं है। लेकिन सदैव ऐसा रहेगा। जरूरी नहीं है। मेरी जानकारी के हिसाब से मुक्तिबोध धर्म विरोधी नहीं थे। ईश्वर विरोधी भी नहीं थे। जैसे कबीर भी ईश्वर विरोधी नहीं थे‌। मैं जब यह कह रहा हूं तो इसका अर्थ जानता हूं। आज इस बात को अधिक स्पष्टता से कहने की जरूरत क्यों है? इसलिए भी कि आजकल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर जिस तरह से चर्चा की जाती है‌। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सांस्कृतिक पक्ष की समझ और मुक्तिबोध के सांस्कृतिक पक्ष की समझ को समझने की जरूरत है। मुक्तिबोध ने एक किताब लिखी थी। उसमें राम कृष्ण आदि भारतीय मिथक में व्याप्त महानायकों के संदर्भ में बहुत सारी बातें कही गई हैं। तो मुक्तिबोध धर्म को संघात से अधिक साधना, संयम और समता के उपकरण के रूप में समाज के सामने रखना चाहते थे। यह उनकी सांस्कृतिक समझ थी। अभी धर्म और  संस्कृति की जो समझ समाज में आम तौर पर बनाई जा रही है या बनती जा रही है, वह  संयम से अधिक सत्ताकांक्षी संघात की करीबी होती जा रही है। यह विडंबना है और चिंताजनक है। अरुण जी यह सच है कि एक पीढ़ी संस्कृति नहीं बना सकती या संस्कृति दशकों में नहीं बनती बिगड़ती है। हम संस्कृति के बनने की नहीं बल्कि संस्कृति की समझ के विकास और झपट्टामार चतुर एवं क्रूर की बढ़ती हुई प्रवृत्ति की लालसापूर्ण सामाजिक वैधता की बात कर रहे हैं। फिर कहूँ, मुक्तिबोध धर्म विरोधी नहीं थे। ईश्वर विरोधी भी नहीं थे।

प्रश्न-- मुक्तिबोध कि यह समझ थी, तो मार्क्सवाद से उनके वैचारिक रिश्ते को आप किस तरह देखते हैं?

उत्तर-- अरुण जी! मार्क्सवाद के बारे में कई भारतीय भ्रांतियां रही हैं। जी, भारतीय भ्रांतियां! मार्क्स ने जब धर्म को अफीम कहा था तो उनके सामने में क्या परिदृश्य था? अच्छा, मार्क्स जिस इलाके में रहते थे, उस इलाके में मेरा ख्याल है कि अफीम नहीं, नशा के दूसरे साधन अधिक उपलब्ध और प्रचलन में थे। तो अगर धर्म को नशा ही कहना था तो वे उनकी चर्चा करते। उनकी उपमा देते। नहीं क्या? लेकिन उन्होंने धर्म को ‘अफीम’ कहा। सोडिए जरा, ‘अफीम’ कहा तो क्यों? मुझे लगता है कि उस समय चीन में सत्ताधारी लोग जीवन की वास्तविक दैनंदिन समस्याओं से परेशान लोगों के बीच इस तरह अफीम का इस्तेमाल करवा रहे थे कि ताकि वे उसकी पीनक में झूमते रहें और अपनी समस्याओं के वास्तविक समाधान की बात सोचें भी नहीं। वह भयानक था। मुझे लगता है, इस पर मार्क्स ने सोचा होगा। इसने मार्क्स को झकझोरा होगा। इसलिए मार्क्स ने सत्ताधारियों द्वारा धर्म का इस्तेमाल अफीम की तरह किये जाने के प्रति सावधान किया होगा। ऐसा मेरा अनुमान है। मुझे तो लगता है, मार्क्स ने सीधे धर्म का विरोध नहीं कलुषित प्रयोजन से धर्म के इस्तेमाल का विरोध है। लेनिन का एक लेख है ऑन रीलिजन, देखियेगा। मुक्तिबोध धर्म के खिलाफ नहीं, धर्म के इस तरह के इस्तेमाल के खिलाफ थे।

प्रश्न- बहुलतावादी समाज में तमाम तरह की परेशानियां और दिक्कते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में आपका क्या कहना है?

उत्तर--यह सच है कि ग्लोबलाइजेशन का पैकेज जिन लोगों ने बनाया वे ग्लोबलाइजेशन के राजकीय सलूक से विचलित होकर इससे बहुत पहले अलग हो गये। फिर भी, उदारीकरण निजीकरण और भूमंडलीकरण ने, जिस संक्षेप में (उनिभू) कह सकते हैं, अपनी प्राथमिक धमक में ही बहुत सारे साइडइफेक्ट पैदा कर दिए। अरुण जी! भूमंडलीकरण की परियोजना और  अंतर्राष्ट्रवाद में निहित आकांक्षा की तात्पर्य-भिन्नता को आप जानते हैं। मोटे तौर पर, पहले का संबंध पूंजी से है। दूसरे का संबंध विश्व समाज व्यवस्था से है। और मुक्तिबोध की कविता हमें इतना तो बता ही बता ही देती है कि पूँजी से जुड़ा हुआ ह्रदय बदल नहीं सकता‌। हालांकि मुक्तिबोध को पुरजोर विश्वास था कि स्वतंत्र व्यक्ति का वादी छल नहीं सकता। आज के मुक्तिबोधों के मन में यह विश्वास जिंदा नहीं रहा। जो विश्वास जिंदा बचा वह लहूलुहान है। सवाल फिर वही है कि वह मेरे आदर्शवादी मन, वो मेरे सिद्धांतवादी मन, अबतक क्या किया/ जीवन क्या जीया। मामला यह है कि ज्यादा  लिया और दिया बहुत- बहुत कम। मर गया देश, अरे! जीवित रह गए तुम। ऐसी स्थिति में मुक्तिबोध याद तो बहुत आएंगे। लेकिन मुझे डर है कि सुनामी में आनंद खोजने या फिर मजा के चक्कर में लिप्त  समय और समाज  में मुक्तिबोध की कविताओं में निहित विश्वास की सभ्यता को हम अंतत: बचा नहीं  पायेंगे। किसी हद तक बचा भी पाये तो उसे कर्मकांडिए  अभिव्यक्ति में बदल जाने से रोक नहीं पायेंगे।

प्रश्न-- जब पहली बार मुक्तिबोध को पढ़ रहा था उस समय जो चंद पंक्तियां बीच-बीच में तल्ख रुप से दिखाई दे रही थीं। ज्यादा प्रभावित कर रही थी, लेकिन उसके पहले की पंक्तियां और बात की पंक्तियां हमें एक कड़ी के रूप में दिखाई दी। कविता का ऐसा विन्यास आज के दौर में कहीं न कहीं छूटता नज़र आ रहा है। अभिप्राय है कि हम समय के साथ ठीक ढंग से नहीं लिख पा रहे हैं। ऐसा मुझे लग रहा है। आपको क्या लग रहा है सर?

उत्तर-- मुक्तिबोध अपने साथी को सर नहीं पार्टनर कहा करते थे। वे साहसी थे, बल्कि दुस्साहसी! खैर जाने दीजिए। हमलोगों ने पहले भी चर्चा की है। मुक्तिबोध कविता के अनफिनिस्ड स्वभाव और अधूरेपन के सौंदर्यबोध के अप्रतिम कवि थे। मुक्तिबोध की रचना प्रक्रिया की खासियत यह थी कि अभिव्यक्ति के मूल विन्यास को  वे उसके  मौलिक स्तर पर पकड़ते थे। उनकी स्थिति उस बागवान की तरह होती थी जो फूल के नन्हे-से पौधे को उसकी जड़ों की समस्त कोशिकाओं को अविकलतः हासिल करने के लिए, बहुत बड़े मिट्टी के टुकड़े के साथ हासिल करने के लिए व्याकुल रहता है, जड़ का बहुत बड़ा थल काटने का प्रयास करता है। हासिल करता है और उसे फिर अपने बाग में रोपता है। मुक्तिबोध भी अपने काव्य तत्व को रेडिकली (Radically) हासिल करने के लिए अपनी काव्यभाषा बहुत सारे रूपाकार को उसके साथ आजमाते रहे हैं। मुक्तिबोध की कविता में दिखनेवाला यह अ-सारपक्ष  उनकी कविता के सार पक्ष को संभव करने का सृजनात्मक उपक्रम है। मुक्तिबोध की कविताएं खालिस चावल की तरह नहीं, बल्कि कई बार धान की तरह और अधिकतर तो धनखेत की तरह हासिल होती हैं। अरुण जी, मुक्तिबोध भी अपने काव्य तत्व को रेडिकली ( Radically) हासिल करने के लिए आत्मालाप और संलाप के विभिन्न स्तर पर सृजनशील रहते थे। आजकल तो रेडीकल से अधिक रेडीमेडली हमें लुभाता है। ऐसे में, कविता का वह विन्यास आज के दौर में छूटता नज़र आ रहा है तो सही ही नजर आ रहा है, भाई।

प्रश्न--- मुक्तिबोध ने आम आदमी की बातों को अपनी कविताओं में तल्ख़ रूप से रखा है। उनकी कठिनाइयों और तमाम तरह के गुत्थम - गुथ समस्याओं का किसी-न-किसी रूप में वर्णन किया है। श्रम को विचार में बदल दिया है। आज वैसी कविताएं कम हैं।
उत्तर ---- यह सच है कि मुक्तिबोध ने श्रम को विचार में बदल दिया, कम-से-कम बदलने का काव्य-प्रयास किया। अविनाश जी, हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहां विचार ही मर गया बताया जा रहा है। विचार के मरने की जोर-शोर से बौद्धिक घोषणा हुई। व्यवहार के स्तर पर तो विचार पहले से ही बहुत दुर्बल था, थोड़ा संदिग्ध भी। खैर, उसे जाने दीजिए। मुक्तिबोध रचना के तीन क्षणों की बात करते थे, उसे ध्यान में रखिए। उस पर फिर कभी बात करेंगे। लेकिन अभी तो यह याद कीजिए कि मुक्तिबोध विचारधारा के साथ -साथ भावधारा की बात भी किया करते थे। विचारधारा उनके लिए महत्वपूर्ण थी ही, भावधारा भी कम महत्वपूर्ण न थी। उनके समय में कुछ लोगों के लिए भावधारा ही सब कुछ थी तो कुछ के लिए विचाराधारा ही सब कुछ। मुक्तिबोध किसी भी चीज के ‘सब कुछ हो जाने’ की  नीच ट्रेजेडी को समझते थे । न सिर्फ समझते थे, बल्कि इसके विक्टिम भी हुए। कह लीजिए भोगा हुआ सच। न तो पूरी तरह से भावधारावादियों ने उन्हें अपनाया,  न ही विचारधारावादियों ने अपना माना। अच्छा, कम्यूनिस्ट पार्टी के तत्कालीन महासचिव को मुक्तिबोध के द्वारा लिखे गए बेनामी पत्र की याद तो आपको होगी। मुक्तिबोध की पृष्ठभूमि को समझिए। मार्क्सवाद से जुड़ाव रखने वाले हिंदी के जिन महत्वपूर्ण प्रगतिशील कवियों और साहित्यकारो को हम जानते हैं उनके प्रगतिवाद तथा मार्क्सवाद से जुड़ाव और झुकाव की प्रक्रिया को याद कीजिए। उनमें से अधिकतर दो रास्ते से प्रगतिवाद तक पहुंचे। एक रास्ता बौद्ध विचार से बना था, तो दूसरा रास्ता आर्य समाज की तत्कालीन अपील से बना था। लेकिन मुक्तिबोध उस रास्ते से प्रगतिशीलता या मार्क्सवाद तक नहीं पहुंचे। उनका रास्ता अस्तित्ववाद और कई पाश्चत्य दर्शनधाराओं के अंतर्विरोधों से टकराते हुए मार्क्सवाद तक पहुँचता है। मुक्तिबोध अपनी रचना प्रक्रिया के बिखरे सूत्रों को बटोरते हुए अपनी भावधारा के तारतम्य को विचारधारा की प्रगाढ़ता में बदलते हुए अपनी रचनाशीलता में हासिल कर ले जाते हैं। ज़ाहिर है कि इन अंतर्विरोधों को अतिक्रमित करते हुए मुक्तिबोध की कविताओं ने अपने होने में ख़ुद को भी कम अतिक्रमित नहीं किया है। अविनाश जी, मुक्तिबोध हिंदी के लगभग एकमात्र कवि हैं जिन्हें अपनी हर कविता अधूरी- सी लगती थी। और शायद इसीलिए बार- बार वे उनका पुनर्लेखन, कह लीजिए संपादन करते थे। ये अधूरापन कैसा था! ज़रा सोचिए तो। मोहन राकेश का नाटक है ‘आधे – अधूरे’। मुक्तिबोध को पढ़ते हुए, ‘आधे – अधूरे’ की याद ज़रूर आएगी। यह अधूरापन भी पूरा नहीं था, बल्कि आधा ही था। यह ज़रूर है कि मुक्तिबोध के दौर से लेकर आज तक लिखी जा रही फिन्स्ड कविताओं के बीच मुक्तिबोध की कविता अजनबी है। इसी अनफिनिस्ड अधूरेपन और अजनबीपन में मुक्तिबोध की कविताओं का सौंदर्य है, महत्त्व भी। अब अजनबियत तो हमेशा समझ के लिए चुनौती बनी रहती है और इसलिए मुक्तिबोध की कविता भी हमारी समझ के लिए अपने प्रत्येक पाठ में चुनौती बनी रहती है। असल में जहां मुक्तिबोध की कविता का टेक्स्ट समाप्त होता है, वहां से मुक्तिबोध की कविता में निहित स्पंदनशील प्राणधारा के प्रवाह की शुरुआत होती है। अविनाश जी,  हमारी विडंबना यह है कि  मुक्तिबोध की अधूरी  कविताओं को हम पूरी तरह से समझ लेना चाहते हैं। समझ लेने की इस जिद को समझना जरूरी है, खासकर मुक्तिबोध के रचना प्रसंग में। समझना अगर वश में करना है, तो हम मुक्तिबोध को कभी नहीं समझ पाएंगे। यह सच है कि मुक्तिबोध ने श्रम को विचार में बदलने की सर्जनात्मक कोशिश की, लेकिन उससे बड़ा और भयावह सच यह है कि हिंदी कविता ने गंभीरता से विचार को श्रम में बदलने की कभी कोई सचेत और सातत्यपूर्ण कोशिश नहीं की।

प्रश्न --   मुक्तिबोध का जीवन बहुत कठिनाईयों से गुज़रा है। उनकी एक तस्वीर बीड़ी पीते हुए बहुत मशहूर हुई। यह तस्वीर और कठिनाई दोनों का सामंजस्य कविता और जीवन से कैसे जुड़ता है।
उत्तर ---- अविनाश जी आपने ठीक सवाल उठाया है। यह संयोग है । यह चित्र जो उनकी प्रतिनिधि कविताओं के संकलन के कवर पर छपा है, वह बहुत प्रतीकात्मक है । मगर ध्यान रखिए कि प्रतीकों की अपनी कई सीमाएँ होती हैं। यह चित्र मुक्तिबोध के रचना चरित्र को कुछ हद तक प्रतिभासित तो करता है लेकिन परीसीमित नहीं करता है। जहां तक मुझे ज्ञात है, वे रात की नीरव भयावहता और अंधेरे की विराटता की अचंभा को महसूस करते हुए गश्ती के कार्य में लगे अपने किसी अज्ञात प्रहरी साथी के साथ रात के अंधेरे में यदा-कदा घूमते-भटकते रहते थे। भटकन के इसी दौर में बीड़ी की लत उन्हें लग गई थी। यह कोई अच्छी बात नहीं थी। लेकिन एक धुंआ  बाहर फैलता रहता था। इस धुएं की प्रतिक्षण बदलती आकृति सम्मोहन की हद तक मुक्तिबोध को ले जाती थी। कई बार, पकड़ में न आनेवाली धुएं की इस लकीर को पकड़कर ऊपर उठते हुए अंधेरे के पार हो जाने के ख़्वाहिशमंद सरीख़े लगने लगते हैं मुक्तिबोध। बावज़ूद इसके, मैं ज़ोर देकर कहना चाहता हूं कि मुक्तिबोध हिंदी के वैसे कवि नहीं हैं जिसे मुश्किल घड़ी में किसी बीड़ी-सिगरेट ने बचाया हो।

प्रश्न   ---- बीसवीं शताब्दी में हिंदी में लंबी कविताओं को लिखने की एक समृद्ध परंपरा रही है । निराला ने "राम की शक्ति पूजा" लिखी और मुक्तिबोध ने "अंधेरे में"। पर आजकल की कविताओं को जब हम देखते हैं तो वह छोटी होती हैं। क्या बड़े उद्देश्य को लंबी कविताओं में ही हासिल किया जा सकता है या फिर   छोटी कविताओं में। कृपया, इस बारे में कुछ बताएं।
उत्तर ----  अविनाश जी आपका प्रश्र बड़ा दिलचस्प है। अब देखिए क्या है कि हमारी समझ पर आकार का भी एक वर्चस्व होता है। जब हम लंबी कविता कहते हैं तो क्या लंबी से आशय उसके बड़ी होने का भी होता है! समझिए कि कविता को हम लंबी या छोटी जैसे विशेषण से नहीं समझ सकते। हमारे यहां जिसे कहानी कहा जाता है अंग्रेज़ी में वह शार्ट स्टोरीज  कहलाता है। अब शॉर्ट स्टोरीज का अनुवाद यदि लघुकथा करें तो यह हिंदी की अपनी एक विशिष्ट विधा है जो अंग्रेज़ी के शॉर्ट स्टोरीज से भिन्न है। असल में 'राम की शक्ति पूजा ' और 'अंधेरे में' दोनों बड़ी कविताएं हैं, हालाँकि इनकी बनक में कई महत्तवपूर्ण एवं बुनियादी फर्क है। इन्हें ख़ास संदर्भ में लंबी कहा गया होगा या कहा जाता है। छोटी कविताएं भी बड़ी कविताओं की श्रेणी में आ सकती हैं। लेकिन बात करते हैं निराला की कविता 'राम की शक्ति पूजा' और मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में' के संदर्भ पर। 'राम की शक्ति पूजा' एक मिथकीय पृष्ठभूमि पर है। और इस कविता की जो मुख्य प्रेरिका (driving force ) की अभिव्यक्ति इस रूप में सामने आती है कि जिधर अन्याय है, उधर शक्ति है। इसे पलट कर देंखे जिधर शक्ति है, उधर अन्याय है। शक्ति जिसे पावर कहते हैं, न्याय जिसे जस्टिस कहते हैं। तो, ये कविता शक्ति और न्याय के अंतस्संबंध को नए सिरे से अनुभूति और अभिव्यक्ति के स्तर पर उपलब्ध करती है। पूरी दुनिया आभाव से नहीं अन्याय से परेशान है। कई दार्शनिकों और विचारकों ने अपने-अपने स्तर पर महसूस किया है, निष्कर्ष निकाला है, जैसा कि ब्रिटिश राजनीतिज्ञ लॉर्ड ऐक्टन (Lord Acton) ने भी कहा है ---- "Power tends to corrupt and Absolute Power corrupts absolutely "। खैर, असल बात यह है कि शक्ति के विभिन्न स्रोत होते हैं। और अन्याय के भी विभिन्न प्रकार होते हैं।  'राम की शक्ति पूजा' को सिर्फ़ मिथकीय संदर्भ में देखना अपर्याप्त है। इसे सभ्यता विकास के विमर्श में देखा जाना ज़रूरी है। और  यह वह सभ्यता है जिसके बारे में निराला ने कहा  "दग़ा की / इस सभ्यता ने दग़ा की ....."  तो निराला ने इस सभ्यता को दग़ा करने वाली सभ्यता क्यों कहा!  और यह सवाल हम जितनी गंभीरता से उठाएंगे, सभ्यता निर्माण के विमर्श में हम उतनी गहराई में धंसते चले जाएंगे। इधर दूधनाथ सिंह का एक उपन्यास आया  'आख़िरी कलाम'। उसमें एक प्रसंग है जिसके अनुसार डर यह नहीं है कि हम असंगठित होकर कितने बिखर जायेंगे, शक्तिहीन हो जायेंगे, बल्कि उपस्थित भयावहता यह है कि संगठित और शक्तिवान बनकर हम कितने क्रूर और अन्यायी होते जायेंगे। तो, अविनाश जी मैं आपसे अनुरोध करूंगा कि शक्ति और न्याय के अंत: संबंध को सभ्यता विमर्श की हदों में ले जाया जाये तो, 'राम की शक्ति पूजा' के काव्य-वस्तु को हासिल किया जा सकेगा और सभ्यता के दग़ाबाज़ चरित्र को भी समझना आसान होगा। मुश्किल होगा दग़ाबाज़ मुक्त समानांतर सभ्यता की आकांक्षा को किसी संगठित क्रियाशीलता से जोड़ना।

प्रश्र ---- प्रफुल्ल जी आप 'राम की शक्ति पूजा' को मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में' के साथ कैसे जोड़ते हैं ? 
उत्तर ---- अविनाश जी, आजकल संस्कृति शब्द का बड़ा हल्ला है। सभ्यता पर कोई-कोई चर्चा करता है। प्रेमचंद ने एक लेख लिखा 'महाजनी सभ्यता ', टैगोर ने लिखा  'सभ्यता का संकट' और कुछ दिन पहले सभ्यता के संघात यानी Clashes of Civilization के नाम से एक किताब आई । सभ्यता हमें आगे ले जाती है और संस्कृति हमें पीछे की ओर रोक के रखती है। अब फर्ज़ कीजिए एक जगह शादी का समारोह है तो आप उनके सांस्कृतिक चिन्हों से समझ जाएंगे कि वे हिंदू हैं या मुसलमान। सभ्यता के चिह्न, यानी गाड़ी, मोबाइल, पकाश के स्रोत आदि दोनों में एक ही होते हैं। 'राम की शक्ति पूजा' को जब हम सभ्यता विमर्श से जोड़ने की कोशिश करते हैं तो मुझे मुक्तिबोध की सभ्यता-समीक्षा का प्रसंग याद आता है। 'अंधेरे में' की संरचना को ध्यान में रखें तो यह मिथकीय तो नहीं है लेकिन इसमें फंतासी है । अविनाश जी, मुक्तिबोध मिथ से बचने के लिए कई बार फंतासी में चले जाते हैं। और मुख्यधारा या शास्त्रीय स्रोतों से उपलब्ध मिथकीय बिंबों के इतर हासिए पर हासिल लौकिक स्रोतों से अपना मिथकीय बिंब ग्रहण करते हैं। ‘अंधेरे में’ कविता की मुख्य driving force  है ----
कविता में कहने की आदत नहीं है
.................................जन को।
और इसी संदर्भ में अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने की बात करते हैं।
अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
................................
................................
दुर्गम पहाड़ों के उस पार
                   (अंधेरे में)
दुर्गम पहाड़ों के उस पार जाने का मतलब ही है एक समानांतर न्यायपूर्ण अंतर्विरोध मुक्त समानांतर सभ्यता की तलाश। जी हां,  आपने ठीक समझा। यह यूटोपिया है। यूटोपिया को हम ठीक समझते हैं। लेकिन डिस्टोपिया को ठीक से नहीं समझते हैं। एक डिस्टोपिया ग्रस्त समाज और सभ्यता से मुक्ति की छटपटाहट अगर सभ्यता विमर्श में किसी यूटोपिया की तलाश तक हमें ले जाती है तो हमें इस डिस्टोपिया के मर्म को भी समझना होगा। और ज़ाहिर है इसमें अभिव्यक्ति के अपने ख़तरे हैं। खतरा यह कि जो डिस्टोपिया के विरुद्ध खड़े नहीं होना चाहते वे ऐसी कविताओं को यूटोपिया कहकर ख़ारिज या कमतर कर देने के उद्यम में सहज ही लग जाते हैं। मुक्तिबोध जब दुर्गम पहाड़ों के पार जाने की बात करते हैं तब उसमें ‘अंधेरे में’ निहित ‘अंधेरे’ के पार जाने की छटपटाहट को महसूस करना होगा। भूल जाइए मार्क्सवाद को, अगर किसी को डिस्टोपिया के पार जाना है तो मुक्तिबोध की इस कविता को वह अपने साथ उसी तरह रख ले जिस तरह से भूत पिसाच के आतंक से बचने के लिए, कुछ लोग हनुमान चालीसा को अपने साथ रख लेते हैं। अविनाश जी, अभिव्यक्ति को ठीक से समझना ज़रूरी है और यह तब संभव होगा जब हम उक्ति से अभिव्यक्ति की भिन्नता को समझ पाएंगे। उदाहरण के तौर पर बहुत सीमित संदर्भ में कहना चाहता हूं कि दिनकर मुख्यत: उक्ति के कवि हैं और मुक्तिबोध मुख्यत: अभिव्यक्ति के कवि। यह ध्यान में जरूर रखा जाना चाहिए कि गीतात्मक उक्ति (Lyrical statements) और काव्यात्मक अभिव्यक्ति (Poetic expressions)  दोनों का अपना-अपना महत्त्व है। 

प्रश्र ----   मुक्तिबोध की कविता में प्रतिरोध की संस्कृति दिखती है जिसमें अभिव्यक्ति के ख़तरों को उठाने की प्रवृत्ति मिलती है। आज के कवि आख़िर किस सीमा तक अभिव्यक्ति के ख़तरे उठा रहे हैं ?
उत्तर---- अविनाश जी , बड़ा कठिन सवाल है। यह सच है कि मुक्तिबोध के समय में अभिव्यक्ति के ख़तरों का एक रूप था तो आज के समय में उससे एक भिन्न रूप है।  सोचने की बात है कि अभिव्यक्ति में ऐसा क्या होता है कि उसके साथ ख़तरा जुड़ जाता है। अगर आप ब्रेख़्त को याद करें तो उन्होंने सच के कई ख़तरे गिनाए थे। इन्हें ध्यान से देखें तो सच के साथ जो ख़तरे जुड़े हुए होते हैं वही ख़तरे अभिव्यक्ति के साथ भी जुड़े हुए होते हैं। अभिव्यक्ति के ख़तरे तो कबीरदास के साथ भी जुड़े थे और तुलसीदास के साथ भी। तो यह कि अभिव्यक्ति के साथ ख़तरे तो जुड़े ही रहते हैं। उनका स्वरूप देश-काल की भिन्नता के अनुसार भिन्न-भिन्न होता है। प्रसंगवश, जो पत्रकार समाचारवाचन की सीमा से बाहर निकलकर वाचन की जगह सामाचार की अभिव्यक्ति करने लग जाते हैं उनके समक्ष उपस्थित खतरों पर जरा कभी फुरसत से गौर कर लीजियेगा। मुक्तिबोध जब बोलते हैं ‘उठाने ही होंगे अभिव्यक्ति के ख़तरे अब’ तो इसका मतलब यह भी है कि उन के काव्य-समय और पिधि में अभिव्यक्ति के ख़तरे को उठाने में किसी प्रकार की आत्मघाती हिचक भी सक्रिय रही होगी।
ख़तरा का पहला स्तर होता है अनुभूति की अविकल और अक्षुण्ण तत्व को पकड़ना  उसे मानस भाषा में अर्जित करना और उसे सामाजिक भाषा में काव्य शक्ति के साथ हासिल करना। अविनाश जी, अभिव्यक्ति का सबसे बड़ा ख़तरा होता है उसका असूयाग्रस्त समय-समाज में होना। आज के कवि इस ख़तरे को उठाते हुए ही अपनी कविता को संभव कर रहे हैं। यह सच है कि कोई दूसरा मुक्तिबोध हो नहीं सकता। मुक्तिबोध ही क्यों कोई दूसरा निराला, अज्ञेय, नागार्जुन, समशेर आदि नहीं हो सकता। साहित्य में इस तरह के दूसरा होने की गुंजाइश नहीं होती है। लेकिन विडंबना यह है कि हर गली, मुहल्ले, ग्रुप , गोष्ठी आदि में एक-दो मुक्तिबोध तो हमें मिल ही जाते हैं। नहीं क्या! अभिव्यक्ति के ख़तरे जीवन से जुड़े होते हैं। आज अभिव्यक्ति के इतने सारे माध्यम हैं कि यह अपने आप में ख़तरा है। एक बात बताऊं, भरत मुनि के नाट्य शास्त्र में कहा गया है कि जिनको वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है उनके लिए ही कविता (नाट्य) प्रयोज्य होता है। लेकिन संस्कृति में घटित यह हुआ कि वेद पाठियों ने ही इस कविता (नाट्य) पर भी कब्ज़ा जमा लिया। जन विचिछन्न होना, आज की अभिव्यक्ति का सबसे बड़ा ख़तरा है। आकांक्षा के स्तर पर जन जुड़ाव होने पर भी ख़तरा कम नहीं होता।  क्या करें कवि जब सत्य को ही लकवा मार गया, याद है न नागार्जुन की वह कविता!

प्रश्र----  कविता किन अर्थों में ऐतिहासिक होती है और उसके ऐतिहासिक होने पर समाज में किन अर्थों में बदलाव के संकेत मिलते हैं?
उत्तर  ---- कविता के ऐतिहासिक होने का सीधा-सा मतलब यह है कि वह प्रासंगिक बनी हुई है। ऐतिहासिक कविता हम उसे कह सकते हैं जिसका इतिहास के किसी कालखंड के संदर्भ में ही महत्व बना रहता है, जबकि प्रासंगिक कविता हमारे समय को भी समझने में अपनी भूमिका निभाती है। महत्त्वपूर्ण कविताएं ऐतिहासिक होने के साथ ही प्रासंगिक भी हुआ करती है। अविनाश जी, अतीत होकर भी जो व्यतीत नहीं हो जाता है उसे ही हम इतिहास समझते हैं। समकालीन कविताएं प्रासंगिक तो होती हैं लेकिन ऐतिहासिक होना उसके लिए समय सापेक्ष होता है। वैसे तो कई हैं लेकिन उदाहरण के लिए लेकिन ठीक इस समय मेरे मन में कबीर और मुक्तिबोध का नाम ख़ासतौर पर कौंध रहा है। इनकी रचनाएं ऐतिहासिक भी हैं और प्रासंगिक बने रहकर समकालीन भी हैं। जिन ऐतिहासिक परिस्थितियों में कोई कविता लिखी जाती है वे ऐतिहासिक परिस्थितियाँ अगर हमारे समय में भी बनी रहती हैं तो ऐसी कविताएँ हमें उस ऐतिहासिक समय को भी और अपने समय को भी जोड़कर समझने में मदद करती हैं।

प्रश्न ----   मुक्तिबोध पर जितने शोध बढ़ गए हैं क्या उस हिसाब से पढ़े जा रहे हैं वो?
उत्तर ----   आपने भारी सवाल खड़ा कर दिया। मुक्तिबोध जितना शोधे जा रहे हैं उतना पढ़े नहीं जा रहे हैं, ऐसा माने में मुझे कोई झिझक नहीं है। इस समय मुक्तिबोध पर शोध ही नहीं किया जा रहा है बल्कि मुक्तिबोध को साधा भी जा रहा है। शायद इसका हक़ भी है। असल में एक कवि को पढ़ने का मतलब क्या होता है! उत्तर पुस्तिकाओं को पढ़ने या उत्तर पुस्तिकाओं के लिए कनविताओं पढ़ने और कविताओं को कविताओं को सामाजिक के तौर पर पढ़ने में कोई तो अंतर होता होगा! असल में पढ़ना एक जटिल प्रक्रिया है। कह लीजिए कि पढ़ना क्रिया की पूर्व क्रिया है। अविनाश जी, हमारे समय में पढ़े लिखे लोगों ने अपढ़ लोगों से अधिक समस्याएं खड़ी कर रखी हैं। अविनाश जी, एक बात कहूं!  मुझे लगता है, निरक्षरता जितनी बड़ी समस्या नहीं है जितनी बड़ी समस्या निरक्षराचार है। ‘पढ़े-लिखे’ के आचार-व्यवहार से ‘न पढ़े-लिखे’ के आचार-व्यवहार में कोई उल्लेखनीय गुणात्मक अंतर नहीं हो पाना। यह अंतर मे नहीं दिख रहा है, तो यह मेरी सीमा हो सकती है। वैसे, शोध की जो हालत है वह तो देख ही रहे हैं। शोध का अपना एक सीमित उद्देश्य और शायद महत्त्व भी होता है। डिग्रीपन का महत्त्व! हम कविता पढ़ने की बात करते हैं और यह पढ़ना यदि डिग्री पाने या अन्य काव्येतर और प्रयोजन से सीमित हो जाए तो क्या आप इसे कविता का पढ़ा जाना मानेंगे? मेरे मन में गहरी दुविधा है। दुविधा है इसलिए शायद, इसलिए आपके प्रश्न का उत्तर मेरे पास एक चलताऊ अर्थ में ‘हाँ’ है और एक गंभीर अर्थ में ‘ना’ है।
चलिए, यह बात-चीत अधूरी ही सही पर हुई तो! इसे अनफिनिस्ड ही रहने दीजए। इसे पूरा तो क्या कर पायेंगे, हाँ, बातचीत के इस सिलसिले को फिर कभी शुरू करेंगे। समय होत बलवान!

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