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उधो, माधो

न उधो का लेना, न माधो का देना प्रसिद्ध लोकोक्ति है। इस लोकोक्ति का प्रयोग लोग तटस्थता और बेलाग (बाय स्टेंडर एक सिंड्रोम ) स्थिति के लिए करते हैं। इसके मूल संदर्भ को देखने पर प्रसंग का संकेत कुछ अन्य है।
प्रसंग पर गौर किया जाये। माधव यानी कृष्ण के बहुत गहरे मित्र थे उद्धव। उद्धव ज्ञानमार्गी थे। कृष्ण प्रेममार्गी। अक्सर कृष्ण कहा करते थे कि सर्व स्वर्ण की बनी द्वारिका, गोकुल की छवि नाहीं। उद्धव इसे कृष्ण का प्रलाप मानकर ज्ञान देते थे और गोकुल के छूट जाने की आँच को कम करने की कोशिश करते थे। एक दिन कृष्ण ने उद्धव से कहा जाइये और गोपियों को समझाइये। जब उद्धव गोपियों को ज्ञान देने के लिए गोपियों से मिले तो गोपियाँ असमंजस में पड़कर एक दूसरे को सावधान करने लगी कि न उधो का लेना, न माधो का देना! अर्थात प्रेम ज्ञान से विस्थपनीय नहीं है। जब भी ज्ञान प्रैम को विस्थापित करता है, क्षमा, दया, तप त्याग मनोबल आदि को मनोरम बनानेवाली मूल्य शृंखला को तहनहस कर देता है।
कबीरदास ने भिन्न प्रसंग में सावधान किया, साधो चली ज्ञान की आँधी! ज्ञान की आँधी पर फिर कभी। 

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