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अस्पताल

कैंसर अस्पताल

कैंसर भयानक बीमारी है। किसी भी परिवार में इसकी आशंका से ही दिल दहल उठता है। वैसे संवेदनशील लोगों का दिल तो विश्व में इसके होने से ही दहला रहता है। आज तक इसका सही इलाज नहीं मिल पाया है। इस बीमारी का असली कारण बड़े डॉक्टर लोग जानते होंगे। आम आदमी की जानकारी तो इतनी ही होती है कि अनियंत्रित और असंतुलित वृद्धि से यह बीमारी होती है। यह असंतुलन किसी भी क्षेत्र में हो सकता है।

कैंसर अस्पताल का जिक्र आते ही मन कसैला हो जाता है। यह स्वाभाविक ही है। कैंसर लग जाने पर अस्पताल तो जाना ही होता है। रोगी के ठीक होने की उम्मीद बिल्कुल ही कम होती है। फिर भी थोड़ी-बहुत उम्मीद तो होती है। उम्मीद कभी खत्म नहीं होती है। ढेर सारे खर्च के बाद भी रोगी ठीक हो जाये, बड़ी बात। इस बड़ी बात की होनी को संभव करने के लिए लोग कैंसर अस्पताल का चक्कर लगाते हैं। इस या उस कारण से इसका या उसका चक्कर लगाते रहना तो नियति है। चक्कर लगानेवाले जानते हैं कि इसमें एक बात पक्की होती है, यह कि खर्च का बहुत बड़ा बोझ उसके माथे पड़नेवाला है। चक्कर एक बार शुरू हो जाये तो फिर उसके व्यूह से निकलना मुश्किल होता है।

मेरा परिवार पहले भी कैंसर की चपेट में आया है। इस बार तो दिल दहलने के साथ ही चिंता और घबराहट दोनों बहुत बढ़ गई। पहले जैसी ताकत और पहले का हौसला अपने अंदर अब कहाँ! परिवार के अन्य सदस्य जूझने के लिए तैयार थे। फिर भी मन तो मन है। मन नहीं माना। दूसरों को न भानेवाली जिद करके मैं भी साथ लग गया। अस्पताल की लॉबी में बैठने की व्यवस्था थी। व्यवस्था चाहे जितनी हो वह कम पड़ ही जाती है। समय और स्थान को घेरा तो जा सकता है कुछ हद तक, बढ़ाने-घटाने की अनुमति प्रकृति हमें बिल्कुल नहीं देती है। बैठने की जगह तलाशती हुई नजर कोने में स्थापित एक आवक्ष प्रतिमा पर टिक गई। पास जा करके देखा। प्रतिमा के नीचे लिखा था :-

JAMSETJI NUSSEERWANJI TATA

FOUNDER

3RD MARCH 1839 – 19TH MAY 1904

 

19 मई 1904! लेकिन यह अस्पताल तो बाद में बना है, तो इसके संस्थापक ये कैसे हो सकते हैं? उमड़-घुमड़ कर बात समझ में आई ऐसे लोग तो अमर होते हैं। अमरता क्या है! अमरता अपनी संततियों में खुद की यात्रा को जारी रखने की प्रक्रिया है। प्रतिमा पर कोई फूल-माला नहीं थी। नजर घुमाकर देखा तो किसी की नजर उस प्रतिमा पर किसी की नजर नहीं थी। अलबत्ता, नजरों में कुर्सी की तलाश जरूर थी। पहली नजर में प्रतिमा उदास लगी। गौर से देखने पर मुद्रा गंभीर लगी। आँख निस्तेज लगी। गौर से देखने पर दृष्टि सपनीली लगी। अंकित तारीखों से पता चला कुल जमा पैंसठ वर्ष का दैहिक जीवन। मैंने बोलती प्रतिमा की बात सुन रखी है। कभी किसी प्रतिमा की आवाज या वाणी सुनने के प्रति गंभीर नहीं रहा। इस प्रतिमा को देख कर लगा कि कुछ कहना चाहती है। इस बार जाने क्यों मेरा भी मन कुछ सुनने की हो रहा था। लेकिन कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। जवानी के दिनों सुने खिलाफी नारों की अनुगूँजें मन को घेरे रही। इस प्रतिमा को सुनने की बेचैनी महसूस कर रहा था। शायद यह उम्र का असर हो। शायद, समय के बदले हुए मिजाज का असर हो।  

चिंतित मुख मुद्रा में लोगों की आवाजाही जारी थी। मेरे परिवार के लोग भी इसी आवाजाही में शामिल थे। मैं इस आवाजाही से फिलहाल बरी था। 1857 इसकी मसें भीग रही होगी। पास रखी कुर्सी पर बैठ गया। मन 1839 और 1904 के टाइम-स्केल पर दौड़ता रहा। सदी के आर-पार मन की आवाजाही तेज हो गई। पिछली सदी यानी आजादी हासिल करने की सदी। जारी सदी आजादी की उपलब्धियों को महसूसने की सदी। मन आजादी के संघर्ष का बयान करनेवाली किताबों के बीच से गुजर रहा था। अब किताबें चाहे जितनी निष्पक्षता से लिखी जायें, कुछ-न-कुछ इधर या उधर के झुकाव की गुंजाइश तो रह जाती ही है। खासकर जब भारत की आजादी के दर्द को बयान करने का मामला हो। यह इसलिए कि इस आजादी को पाने के लिए जितना खून बहा था, उससे कहीं ज्यादा इस आजादी के बाँट-बखरा में बहा था। यह बाँट-बखरा हिंदू और मुसलमान के बीच का था। आजादी का हासिल होना अधिकांश में युक्तियों से संभव हो रहा था। आजादी का विभाजन शक्तियों के खेल का नतीजा था। युक्ति की शक्ति का दौर पीछे चला गया था। सामने शक्ति की युक्ति का दौर था। अपनी विविधता, बहु-धार्मिकता पर गर्व करनेवली भारतीयता के अन्य समुदायों का इस बाँट-बखरा में क्या हुआ?   

पंजाब में सांप्रदायिक दंगों का भयानक दौर जारी था। हिंदू-मुसलमान-सिख खून के प्यासे गली-मुहल्ले घूम रहे थे। लोगों में अपनी पहचान जाहिर करने और छिपाने की होड़ लगी थी। अपनी पहचान को जाहिर करने या छिपाने की तरह-तरह की युक्तियाँ इस्तेमाल की जा रही थी। लोग अपने घर के बाहर हिंदू, सिख या मुसलमान का पट्टा लगा रहे थे। एक घर के बाहर बोर्ड लगा था, हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई तो भाई-भाई हैं, यह घर पारसी परिवार का है। प्रतिमा के पास बैठा था, जिसे अपने अमरत्व में इस अस्पताल का फाउंडर बताया गया है। यह प्रतिमा पारसी सज्जन का है। इन्होंने मंदिर, मस्जिद, गुरु द्वारा नहीं बनवाया। मुझे लगा प्रतिमा बोल उठी है। जो हमने  बनवाया उसमें सभी आते हैं। दुख से निजात पाने आते हैं। मैं आने-जानेवाले लोगों को पहचानने कि कोशिश करने लगा, पाया कि प्रतिमा सच कह रही है।

डाक्टर ने देख लिया है। दवा लाने के बाद केमो चालू होगा। इस बीच बारी-बारी से कुछ खा पी लेना होगा। प्रतिमा की आवाज के ऊपर यह मेरे बेटे की आवाज है। उसकी आवाज में उम्मीद है। इस उम्मीद ने मेरी मुरझाती हुई उम्मीद को सहारा दिया। दवा आ गई। हमने कुछ खा पी लिया। मेरा बेटा अपनी चाची को साथ लेकर केमो के लिए चला गया। भीड़ भी कुछ छँट गई। मैं फिर इंतजार में कि प्रतिमा के मन से कोई आवाज आये। कोई आवाज नहीं। शायद प्रतिमा का मन आराम कर रहा है। तभी एक आवाज आई अमरता में आराम नहीं। मन ने कहा आराम में कोई अमरता नहीं। प्रतिमा हँस पड़ी। इतना जानते हो! सभ्यता कैंसर ग्रस्त हो चुकी है। नहीं जानते! तन हो या वतन कैंसर ग्रस्त हो जाये तो इलाज मुश्किल होता है। तन का कैंसर ठीक हो भी जाये, वतन के कैंसर का क्या? कुछ सोचा है कभी! कुछ सोच पाता इसके पहले बगल में एक नौजवान जोड़ी आ कर बैठ गई। मैं उनका संवाद सुनने लगा।

-      तुम बहुत इमोशनल हो जाती हो।

-      तुम नहीं होते!

-      नहीं।

-      होना पड़ता है। उन्हें बल मिलता है। जीने का बल। किसी को उनके होने की कद्र है। इतना वे भी जान गये होंगे कि किसी के जीने मरने की कोई कद्र कहीं नहीं। फिर भी करना पड़ता है जानू। दुनिया इसी झूठ के बल पर चलती है।

केमो हो गया। आज का काम खतम। अब कैब देखते हैं।  यह मेरे बेटे की आवाज है। उसकी आँख में खुशी के कुछ कण चमक उठे। उसने अपना एप मेरी नजरों के सामने कर दिया। मैंने पढ़ा, टाटा-इंडिका, ह्वाइट कलर। बेटे ने समझाया कम भाड़ा पर ही ले जाने के लिए ड्राइवर राजी हो गया है। मरे मन में आया कह दूँ कि उसकी कोई मजबूरी होगी कम भाड़ा पर जाने की। हमारी क्या मजबूरी है कम भाड़ा पर जाने की। कुछ कहता इसके पहले मन के एक कोने से अपने एक मैनेजर की आवाज टपक गई। किसी की मजबूरी किसी की अपरट्युनिटी होती है। अपनी अपरट्युनिटी के लिए किसी की मजबूरी तलाशो, न हो तो मजबूरी पैदा करो। ससटेन करने का यही एक तरीका है। कैब आ चुका था। मेरे मन टाटा-इंडिका के टाटा पर लटका हुआ था।

रास्ते में चारों तरफ विकास की कहानियाँ बिखरी पड़ी थी। टाटा की बस, टाटा की कार, टाटा का ट्रक। हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई सभी के काम  रहा था। लगा पूरा हिंदुस्तान टाटा पर लदा हुआ है। मेरे असंतुलित होते मन को ड्राइवर की आवाज ने सम्हाला। वह कुछ कह रहा था। बहुत मुश्किल से सुनने में आ रहा था। हो यह भी सकता है कि कुछ और कह रहा हो वह, मैं कुछ और सुन रहा होऊँ। ऐसा तो होता ही है जीवन में। हम कहते कुछ और हैं, सामनेवाला सुनता कुछ और है। घर अदालत कोट कचहरी सभी जगह थोड़ा-बहुत ऐसा ही होता है। वह कह रहा था :-

-      इतना कम भाड़ा पर कोई उधर नहीं जाता। इतना तो आप भी जानते हैं। मेरा घर भी उसी साइड में है। मेरी मजबूरी कि घर से फोन आया। पापा को अटैक आया है। इस बार शायद ही बचें। लौटने की जल्दी मची है। आप लोग भी घर परिवारवाले हो। आगे जो भी मुनासिब लगे देख लेना।

मेरे मन में एक नैतिक मरोड़ उठी। मन किया सहानुभूति के दो बोल कहूँ। मगर नहीं। कैब बेटा ने किया था। पैसा वही देगा। सिर्फ बोल-भरोस दे सकता हूँ। बोल-भरोस का क्या मोल! उसके साथ बात-चीत में उलझना बेटा को बुरा भी लग सकता था। इसका बोझ मैं उठा नहीं सकता था। मेरा बोझ तो बेटा उठा रहा था। सुन तो बेटा भी रहा ही होगा, पर खामोश बना रहा।

घर पहुँचा तो छोटी-सी पोती ने पूछा। शायद उसकी मॉम ने पुछवाया हो।

-      दादा जी कैसा रहा सफर!

-      कैंसर अस्पताल से लौटकर आया हूँ।

मैं जानता हूँ यह सच नहीं था। चारों ओर कैंसर फैला है। अपने मन को खुटरी पर टाँग कर हल्का हुआ। जानते हुए भी कि यह सच नहीं है, मैंने फिर दोहराया :-

-      कैंसर अस्पताल से लौटकर आया हूँ।

 

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