पृष्ठ

तुलसी मस्तक तब नवै, जब धनुष बान लो हाथ

कहा कहौं छवि आज की, भले बने हो नाथ।
तुलसी मस्तक तब नवै, जब धनुष बान लो हाथ।।
-------------
मिथ को समझना। समझकर उस के विश्लेषण, इंटरप्रटेशन (तात्पर्यन) से अपने समय को समझना और उसकी समस्याओं के कोई हल निकालना कठिन है, पर असंभव नहीं। मुझे यह सदैव महत्त्वपूर्ण लगा है कि तुलसीदास की मानें तो रघुराई ने मुनि से कहा, निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई। मेरे एक मित्र ने सवाल उठाया कि शस्त्र सुसज्जित राम निर्भय होने का आश्वासन देते हैं, तो क्या शक्ति या शस्त्र ही निर्भय होने को आश्वासन दे सकता है! सवाल महत्त्वपूर्ण है, जवाब कई हो सकते हैं, कई तरह के हो सकते हैं। अधिकतर असंतोषजनक या असहमतिपरक! खैर।
शिव धनु को प्रभु राम ने तोड़ दिया। परशुराम की नाराजगी पर लक्ष्मण ने कहा कि बचपन में बहुत सारे धनुषों को तोड़ने की बात कह दी। प्रभु ने शिव धनु सहित बहुत सारे धनुषों को तोड़ा, लेकिन अपना धनुष छोड़ा नहीं। यहाँ, इतना उल्लेख भर कर देना प्रासंगिक हो सकता है कि राम और कृष्ण के युग्म को अविभाज्य मानकर चलने और उन्हें पारस्परिक प्रासंगिकता में समझना हमारी सांस्कृतिक जरूरत है, इस पर संभव हुआ तो फिर कभी।
मेरा एक लेख है। हिंसा पर टिकी सभ्यता। काफी पहले जनसत्ता में छपा था। उसके संदर्भों को याद कर रहा हूँ। मूल शब्द हिंसा है। हिंसा का निषेध अहिंसा है। हिंसा मौलिक वृत्ति है। जैसे नींद, भूख आदि। मौलिक वृत्ति को नियंत्रित तो किया जा सकता है, लेकिन उसका पूर्ण निषेध संभव नहीं है। अहिंसा सभ्यता की आकांक्षा है। इसलिए, इसे मौलिक विडंबना है कि पूर्ण अहिंसक होने की सभ्यता आकांक्षा पूरी नहीं हो पाई है। दुखद यह है कि इसे नियंत्रित करने में भी कई बार सभ्यता के उपादान विफल हो जाते हैं। उपाय! लघुतर हिंसा यदि वृहत्तर हिंसा को रोकने का उपादान मान लिया जाये तब, ‘तुलसी मस्तक तब नवै, जब धनुष बान लो हाथ।।‘ जैसी उक्ति के मर्म को नये सिरे से समझने की कोशिश की जा सकती है। अभी तो, इतना ही।
Hare Ram Katyayan

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें