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लेखक संगठन की भूमिका

लेखक संगठन की भूमिका

साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है, - उसका दरजा इतना न गिराइए। वह देश-भक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सचाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सचाई है। - प्रेमचंद

(1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में किये गये अध्यक्षीय भाषण से)

सत्य हिंदी के ताना-बाना पर डॉ मुकेश कुमार को लेखक संगठनों की भूमिका पर सार्थक परिचर्चा आयोजित करने की कोशिश के लिए धन्यवाद और आभार। रेखा अवस्थी, वैभव सिंह और राकेश बिहारी को परिचर्चा में शामिल किया गया। इस परिचर्चा में मंतव्यों के लिए जितनी जगह हो सकती थी उसका सदुपयोग हुआ।  इस विषय पर अधिक तैयारी के साथ बात करने की नहीं, करते रहने की जरूरत है। इस संदर्भ में कुछ अन्य बिंदुओं को चर्चा में शामिल किया जा सकता है।

वामपंथी दलों को छोड़ दें तो, किसी राजनीतिक दल के सदस्य बनने की कोई बुनियादी शर्त नहीं होती है। इन दलों का सदस्य बनते ही कोई नेता मंत्री नहीं बन जाता। लेखक संगठन का सदस्य बनने के लिए भी कोई शर्त नहीं होती है। कई तो सदस्य पहले बनते हैं, लेख भी पहले ही बन जा सकते हैं, लेखन बाद में शुरू करते हैं। इसके तात्कालिक और दीर्घकालिक  लाभ की संभावनाओं को हिंदी साहित्य के  होशियार छात्र अच्छी तरह समझते हैं। मन बनाकर पहला वाक्य लिखते ही ऐसा मोह दबोचता है कि वे बिना देर किये खुद को लेखक घोषित कर देते हैं। बाकी रही-सही कसर उनके जैसे ही क्लासमेट, चाहें तो सहपाठी लेखक पूरी कर देते हैं। संख्या बल का कमाल यहाँ भी होता है।  अहो रूपम, अहो ध्वनि का सिलसिला शुरू हो जाता है। हिंदी साहित्य का वेतन भोगी अध्यापक कुछ लिखे या न लिखे खुद को साहित्य का पद-सिद्ध आलोचक लेखक मानकर चलता है। विश्वविद्यालय परिसर इसकी समानांतर प्रक्रिया चलती रहती है। इस तरह घिसे हुए लेखक आलोचनात्मक प्रोत्साहन, अंग्रेजी में कहें तो क्रिटिकल एप्रिशियेसन, के नाम पर संख्या बल को अपने पक्ष में करने की कोशिश करते हैं। बाकी सोशल मीडिया तो है न! राजनीति में जो मेरे दल में नहीं है वह भ्रष्टाचारी है, हिंदी साहित्य में जो मेरे गुट में नहीं है,  वह साहित्यकार कैसा! उसका सामाजिक सरोकार ढकोसला के अतिरिक्त कुछ नहीं। आप चिल्लाते रहिए आबद्ध हूँ, संबद्ध हूँ, प्रतिबद्ध हूँ।

जिस विचारधारा की बात लेखक संगठन करते हैं, उसके असली ठेकेदार तो लेखन में कोई दिलचस्पी नहीं लेते। उनकी दिलचस्पी इस बात तक सीमित रहती है कि वह उनके द्वारा घोषित राजनीतिक कार्यक्रमों में कितनी तत्परता से अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। समाज इसमें कहीं होता ही नहीं है। जिस तरह नागरिक, प्रजा कहना शायद अधिक सही हो, वोटर में लघुमित (रिड्यूस्ड) हो गया है, उसी तरह लेखक भी लघुमित हो गया है। कोई दल यह नहीं कहता कि आप विचारधारा से सहमत हों तभी हमें अपना वोट दें। जैसे भी हो बस वोट दे दें, आप का वोट मेरा स्वार्थ, आप का हित बाद में सधता रहेगा। हिंदी साहित्य में पाठकों की भूमिका या पक्ष पर क्या बात हो सकती है, इसकी जरूरत ही क्या है, जो है नहीं उस पर समय बर्बाद करना!

जब लेखन का ही कोई उद्देश्य नहीं रह गया तो संगठन के उद्देश्य की क्या बात! लेखन की भूमिका ही तय नहीं, तो लेखक संगठन की भूमिका! वेतन से, या किसी स्रोत से कुछ पैसा हाथ आया तो छपवा लीजिये, मुफ्त बाँट दीजिए। खुद को लेखक मनवाने के सुकर्म में लगे रहिए, राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय हो जाइए, क्या फर्क पड़ता है। पता चला घर के लोग ही आप को लेखक मानने के लिए तैयार नहीं हैं, मन या मान रखने के लिए भले ही आप पर केंद्रित किसी आयोजन में कभी-कभार उपस्थित हो जाएँ। चुपके से पैसा देकर, पचास खुशामद करके अपनी कृति छपवानेवाले रॉयल्टी वसूलने के आंदोलन के लट-लकार की पुकार पर कान धरेंगे! पागल हैं! मेरी बातों पर मत जाइए, लेखक संगठनों की भूमिका है। मैं लेखक नहीं। न गाड़ी खींचनेवाला बैल, न गाड़ी के आगे फुदकता हुआ दौड़नेवाला कुत्ता।  आप लेखक हैं, आप लेखक संगठन की भूमिका तलाशिए। देश भक्ति और राजनीति के आगे .... बस राम राम।

 

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