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कवित्त विवेक

रचनात्मक प्रतिबद्धता के साथ सलूक के सवाल
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वचन प्रवीण होने और कवि होने के फर्क को तुलसीदास जानते थे। तभी तो कह सके —
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। 
सकल कला सब बिद्या हीनू।।
(रामचरितमानस) 
अपनी रचना अच्छी हो, न हो लेकिन अच्छी लगती हर किसी को। तभी तो कह सके —
निज कवित केहि लाग न नीका। 
सरस होउ अथवा अति फीका।। 
(रामचरितमानस) 
बहुत कम लोग होते हैं जिन्हें दूसरे की भनिति यानी कविता (पढ़ें रचना) सुहाती हैं। तभी तो कहा —
जे पर भनिति सुनत हरषाही। 
ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं।।
(रामचरितमानस)
अपनी प्रतिबद्धता की समझ बहुत साफ और सुदृढ़ थी, तभी तो विनय पत्रिका में कह गये —
जाके प्रिय न राम-बदैही। 
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, 
जद्यपि परम सनेही॥
अब, हमें अपने कवि होने या वचन प्रवीण होने, वाहवाही मिलने या न मिलने की जैसी भी स्थिति हो अपनी रचनात्मक प्रतिबद्धता (Creative commitment) के साथ अपने सलूक के सवाल को कैसे हल करना है। 

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