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गंभीर पाठक का भाव ; हार से ज्यादा जीत में जोखिम है

गंभीर पाठक का अभाव

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लगभग सभी गंभीर लेखक गंभीर पाठक के अभाव को कभी-न-कभी महसूस करता ही है।
निराश भी होता है, फिर सम्हलता है। निराशा के भँवर से बाहर निकलने की कोशिश करता है — कभी जुट जाता है, कभी टूट जाता है! क्या ऐसा सिर्फ आज के लेखकों — हिंदी लेखकों — के साथ हो रहा है? नहीं, बिल्कुल नहीं! करुण रस के सब से बड़े संस्कृत कवि भवभूति ने भी इस दर्द को सहा था। कबीरदास जैसे युगांतरकारी कवि को सराहनेवाले कितने थे? अपने समय में माँग कर खाने और मसीत में सोने, किसी के साथ नातेदारी न जोड़ने की घोषणा करनेवाले तुलसीदास के साहित्य के कितने पाठक थे?  इस मामले में तो भवभूति की पीड़ा की अभिव्यक्ति बहुत प्रेरक है!

ये नाम केचिदिह न प्रथयन्त्यवज्ञां जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः ।

उत्पत्स्यते तु मम कोऽपि समानधर्मा कालो ह्मयं निरवधिः विपुला च पृथ्वी ।।

(साभार: भवभूति : उत्तररामचरित : अनुवाद – इंद्र : राजपाल एण्ड सन्ज़)

समान धर्मा पाठक का आदर न मिलने पर भवभूति जैसा संस्कृत का महाकवि भी निराश हो गया था। टिका रहा इस विश्वास पर भी की पृथ्वी भी बहुत बड़ी है और काल भी विस्तृत है। कभी-न-कभी कोई-न-कोई ऐसा होगा जो उस की रचनाओं का आदर करेगा, सराहेगा।

  

निष्ठा किसी भी विद्वान को ऐसे मजबूत कवच से मंडित कर देती है कि प्रशंसा या निंदा का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह उसे ऐसा पारदर्शी मुखरक्षक भी देती है जो किसी भी दिशा से आने वाले प्रकाश की किसी भी किरण को नहीं रोकती। उसका लक्ष्य होता है अधिक प्रकाश, अधिक सत्य, अधिक तथ्य और तथ्यों का अधिक संयोग। यदि उस लक्ष्य प्राप्ति में वह असफल होता है, जैसा कि उसके पहले कई विद्वान असफल हुए हैं, तो वह यह जानता है कि सत्य की खोज में असफलताएँ कभी-कभी विजय और सच्चे विजेता की शर्त बन जाती हैं, चाहे उसे संसार पराजित कहता है।

(साभार: भारत हमें क्या सिखा सकता है: मैक्समूलर – अनु. सुरेश मिश्र)

आज के लेखकों को भी निराशा की घड़ी में इस भवभूतीय विश्वास और  कवच-प्रदायी निष्ठा को अपने अंदर सक्रिय कर रचना में — विफलता के जोखिम पर भी — तल्लीन रहना चाहिए। लेखक के लिए आज हार से ज्यादा जीत में जोखिम है।

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