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विजन कथा

विजन कथा
एवं

क्वचितअन्योपि

वे तीन थे। असल में वे चले तो थे अकेले-अकेले ही। बाद में एक-एक कर तीनों एक होकर तीन हो गये। विडंबना यही थी कि वे तीनों मिलकर एक नहीं हुए, बल्कि तीनों मिलकर तीन हो गये। ये तीनों तीन अवश्य थे। इन तीनों के मिलने को एक नाम पर पहुँचना जरूरी था। अब ये तीनों एक नाम में कैसे समाहित हों! इनके सामने यह पहली चुनौती थी। पहले सोचा कि इनके लिए तिलंगा, यानी तीन तिलंगा ठीक रहेगा। काफी मनन करने के बाद, यह नाम मन पर चढ़ न सका। रही बात माथे पर चढ़ने की, तो सो उन्होंने अब किसी के भी माथा पर चढ़ने की सारी इजाजतें वापस ले ली है। वापस तब ली जब पाया कि माथे पर जिनको बैठाया उन्होंने धोवन व्यवस्था, यानी वाश रूम जैसी व्यवस्था, वहीं करने के अपने अधिकार की बात करने लगे। अधिकार की बात उठे तो वकीलों के मुसकुराने के अवसर खिलते हैं। वकीलों ने खर्चा पानी, पूजा परिग्रह के बाद, सारा किस्सा सुना और अपनी बात रिजर्व रख ली। बात रिजर्व रखने की तजवीज बड़े दिमाग से निकली तावीज है। कोई यह तावीज दिखा दे तो तहजीब कहती है, खामोशी से मान जाओ और इंतजार करो। रिजर्व के खिलाफ की गई हलचल का एक ही नतीजा निकलता ¾ लौट के बुद्धू घर को जाओ। जब बुद्धू का घर ही विवाद में हो, तो बुद्धू कहाँ जाये! घाट? सौंदर्यीकरण के पहले बुद्धुओं के लिए घाट निरापद होते थे। आपत्ति किसी को नहीं थी। आपत्ति तब उठने लगी जब घर लौटकर बुद्धुओं ने अपने घाट-घाट के पानी पीने का हवाला देकर ज्ञान छाँटने लगे। ऐसे में घर से निकाला हो गया। तो बुद्धू फिर घाट पर जमने की सोचने लगे। प्रभु, हमारे गाँव की पंचटोली के प्रभु जी भी घर निकाला होने पर सबसे पहले घाट ही तो गये थे, याद है न! घाट-घाट का पीनी पीनेवालों की जो मर्यादा मिलती है, वह अवघट का पानी गटकनेवालों को कहाँ नसीब! अवघट का पानी पीनेवालों को पापी कहा जाता है। फिर तो माँ गंगा का ही सहारा बचता है ¾ बेसहारा का सहारा! गंगा पाप को ढोती है, धोती नहीं है। धोने की जिम्मेवारी नर्मदा के पास थी, पहले। सारी नदियाँ अंदर पेट मिली होती हैं। खैर नदियों की बातें नदियाँ जानें। पते की बात यह है कि सौंदर्यीकरण के बाद लगभग कोई घाट बुद्धुओं के लायक और निरापद नहीं बचा। लगभग, इसलिए कि बात में लगभग लगा देने से बड़ी सुविधा रहती है। हिंदी का लगभग एक चोर दरवाजा है। घिरने पर निकलने का अचूक रास्ता! एक विद्वान प्रवक्ता की कला से विद्याधर को लगभगाने का पारस मणि हाथ लगा था। ये प्रवक्ता कहीं भी मिल जाते हैं ¾ कॉलेज में, युनिवर्सिटी में, चाय मंडली में और सबसे बढ़कर टीवी चैनलों आदि में ¾ अब जो जहाँ से सीख ले! अब इस आदि, इत्यादि की अपनी महिमा है। कहाँ आदि लगे, कहाँ इत्यादि इस बात के महीन धागों में उलझे बिना चतुर प्रवक्ताओं से जयमंद को इसके उपयोग की निष्णाती हासिल हुई। देखिये न इस आदि, इत्यादि की महिमा ¾ हिंदी के बहुत सारे कवि और सामाजिक कर्मी इसमें अपने होने को लेकर जबर्दस्त ढंग से सदा आश्वस्त रहते एवं आजीवन घिसटते रहते हैं। नरेश बहुत चतुर था। वह भी प्रवक्ताओं से सीखकर यद्यपि तथापि के लाजवाब इस्तेमाल से कमाल की जिरहबंदी में माहिर था।

ये तीनों एक होके तीन हो गये थे इसलिए एक नाम जरूरी हो गया था। त्रिदेव अच्छा नाम हो सकता था। लेकिन एक तो यह नाम बहुत ही पवित्र था, दूजा इन पर फबता भी नहीं था। न त्रिदेव जमा न तिलंगा। इसी चिंता में तीनों अवघट पर साधना मस्त थे। काफी सोच विचार के बाद नरेश का प्रस्ताव साने आया ¾ यद्यपि नाम का गुण से कोई संबंध नहीं होता, तथापि हम तीनों के प्रथमाक्षर को जोड़कर विजन नाम पर विचार किया जा सकता है। जयमंद ने मुँह से निकाला ¾ तरकीब अच्छी है। यही बात है तो जविन, नजवि आदि पर भी विचार किया जा सकता है। नरेश ने छूटते ही कहा ¾ विजन लगभग ठीक है। विद्याधर के मन में बात आई, उसके नाम का प्रथमाक्षर पहला है, तो बड़ी बात है, बड़ी बात का होना हमेशा अच्छा होता है। जयमंद भी इसी लय पर था, चलो बीच में रहना ठीक है, जनता के बीच, खबरों के बीच। बीच का रास्ता। जब चाहो इधर हो लो, जब चाहो उधर! नरेश के दिमाग में बात कुछ दूसरी तरह से चल रही थी ¾ लिफो। हुआ यों कि वह ट्रेन में सफर कर रहा था। उसकी ट्रेन खड़ी रही। सिंगल लाइन थी। विपरीत दिशा की ट्रेन के पास कर जाने तक इस ट्रेन के इंजिन को फेल रहना था। मूँगफली फोड़कर आधा घंटा काट लेना कोई आसान काम नहीं होता है। इस देश में समय काटने के और भी कई जरियों का आम चलन है। इन में तीन बहुत पॉपुलर हैं, दो रूढ़ और एक रूढ़-यौगिक  ¾ धर्म और राजनीति, रूढ़ तथा इनका रासायनिक मिश्रण, रूढ़-यौगिक। ये तीसरा तो बहुत ही पॉपुलर है ¾ एकदम ही नहीं, हरदम ही अचूक रामवाण! बहस के बीच व्यवधान की तरह विपरीत दिशा की ट्रेन आ गई। ऐसा तो होता ही है उद्यमी जीवन में जिसका इंतजार करते हैं, वही उद्मियों के जीवन प्रसंग में बाधा की तरह आ धमके! विपरीत मनोरथवाली ट्रेन आई और खुल भी गई! रासायनिक परिसर से बाहर निकल कर नरेश पेनिक हो गया। यह क्या बाद में आई और पहले निकल गई। अब तक खामोश रहे प्रवक्ता ने कहा ¾ लिफो। नरेश के उलझने से पहले उन्होंने कहा। लिफो एक थियरी है, नहीं समझे ¾ लास्ट इन फर्स्ट आउट। नरेश ने छूटते ही  कहा ¾ बाजा, बाजा। अब प्रवक्ता के चौंकने की बारी थी ¾ बाजा क्या? नरेश ने समझाया ¾ बाद में आ पहले जा। प्रवक्ता इस आशु-प्रतिभा का कायल हो गया, ऊपर से हिंदी की डपट। इस सभ्यता में ज्ञान की पराकाष्ठा है ¾ पहले बीजाक्षर कहो, सामनेवाला मूढ़ता की मुद्रा और अज्ञानता के भँवर में फंसा नहीं कि बीजाक्षर को  फैलाकर ज्ञान का उपवन गढ़ कर खुद मिनटों में ज्ञानमोहन बन जाओ! है न, एकदम कमाल की कला! अन्याय-से-अन्याय, असंगत-से-असंगत बात यदि थियरी के रूप में सामने आये तो इस देश में उसकी स्वीकार योग्यता कानून की स्वीकार्यता को भी मात दे दे। आह क्या बात है! देश कानून से नहीं, थियरी से चलता है। नरेश का मानना था कि कहीं घुसने के पहले उससे निकलने का रास्ता सोच लेना चाहिए चाहे गोदीगिरी का रास्ता हो या कोई और रास्ता। सो बाजा ज्ञान के तहत अपने नाम के प्रथमाक्षर का बाद में आना अच्छा लगा! नाम तय हो गया ¾ विजन।

विजन प्रथमाक्षरों से बना बीजाक्षर। बीज में वृक्ष बनने की आध्यात्मिक लालसा तो होती ही है। विजन का वृक्ष बना ¾ विशाल जुगाड़ निष्ठा। विजन में लगभगाने, आदि-इत्यादि, यद्यपि-तथापि के इस्तेमाल की अपनी-अपनी विशिष्ट-विशेषज्ञताएँ हैं और किंतु-परंतु की अशिष्ट-सर्व-सामान्यताएँ हैं। सुना है, विजन की सक्रियताएँ बढ़ रही हैं ¾ जुगाड़ की फसल का बाजार गर्म है। आगे कुछ-कुछ अन्य बातें भी छन-छन कर आती रहती हैं। कुछ बातें मायने ¾ क्वचितअन्योपि! विजन का नया संस्करण भी इसी नाम से लॉन्च होनेवाला है ¾ विजन क्वचितअन्योपि।

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