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मुमकिन, नहीं मुश्किल: मुमकिन नहीं, मुश्किल

मुमकिन, नहीं मुश्किल!

मुमकिन नहीं, मुश्किल!!

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जीवन में थोड़ा विरमने, थोड़ा हो जाने का महत्त्व भी कम नहीं है। कुछ लोगों को कुटेव होता है, विरमने के नाम पर ठहर ही जाते हैं – टस से मस नहीं। कोई लाख टसमसाने की कोशिश करे बस जावबन – ऊँह आह!

जीवन में कई बातों का बुनियादी महत्त्व है। अभी तीन चीजों के महत्त्व पर बात करते हैं – मति, गति और यति। विद्यापति ने वरदान में सहज सुमति माँगा था। सहज का मतलब तो समझा जाता है आसान, यह ठीक भी है। विद्वान लोगों का जीवन अनुभव बताता है, सहज का अर्थ भले आसान हो, लेकिन सहज होना इतना आसान भी नहीं होता है। सहजता की जटिलता कहाँ से आती है! सहज का अर्थ होता है – साथ में उत्पन्न, जैसे पंकज का अर्थ होता है, पंक में उत्पन्न। आगे बढ़ने पर में से हो जाता है – सहज साथ से उत्पन्न, पंकज पंक से उत्पन्न! “से” संप्रदान है – अलग होने का भाव, “में” अव्यय। अब “में” और “से”, अव्यय और संप्रदान, दोनों साथ-साथ रहकर अर्थ देते हैं – भिन्न होकर भी, न-भिन्न होने की बात! तुलसीदास का संदर्भ लें तो, कहियत भिन्न, न भिन्न की स्थिति! भिन्न के न-भिन्न होने से विभिन्न तरह की जटिलताओं का सूत्रपात होता है। सूत्रपतन में उलझाव बहुत होते हैं। भिन्न और न-भिन्न को एक साथ साध लेने पर मति सुमति हो जाती है। सुमति सहज तब होती है जब भिन्न के न-भिन्न होने की स्थिति बनी और बनती रहती है। भारत की विविधता में एकता को समझने की यह भी एक कुंजी है। यह कुंजी बहुत सारी जटिलताओं से गुजरने के बाद मिलती है। कबीरदास सहित सभी संतों ने सहजता की महिमा को अपने-अपने ढंग से समझाया है – सहज सहज सबकौ कहे, सहज न चीन्है कोइ। दिलचस्पी हो तो सिद्धों के वज्रयान सहजयान के बारे में देखना-जानना प्रासंगिक हो सकता है सरहपा सहित सिद्धों के सहजयान, वैष्णवों के सहजिया संप्रदाय के क्या संदर्भ रहे हैं! धीर मन में थिर मति संपन्न गति! गति – चरैवेति चरैवेति! चलते रहो, चलते रहो! क्यों चलते रहो? प्राण रक्षा के लिए! फिर यति क्यों, रुकना क्यों? प्राण के अर्थात! फिर ययाति?

फिलहाल यह कि लोगों को गति में यति का स्थान बदला-बदला लग रहा है – “मुमकिन, नहीं मुश्किल”, बदलकर “मुमकिन नहीं, मुश्किल” हो गया है! जो मुमकिन था अब तक, वह मुश्किल हो गया! कहाँ-कहाँ? अब देख लीजिये कहाँ, कहाँ! 

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