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अब दायें झुको, अब बायें झुको

अब दायें झुको, अब बायें झुको

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अब क्या कहें कि प्रजातंत्र है। बड़े और गौर-तलब लोगों की जिंदगी में आचार-विचार, व्यवहार और मनस्विता की जो सहूलियतें हासिल रहती हैं वह साधारण लोगों को नहीं रहा करती हैं। उसकी जिंदगी का हर मसला हमेशा मरम्मत-तलब बना रहता है। प्रजा, नागरिक के हकों के बारे में वह कब, कितना और किस तरह सोचने का मौका निकाले! किस से कहे, कैसे दावा करे जो उसका है – दावा करने की सोचने तक की भनक लगने से जीने के दायरे से निकाल दिया जा सकता है। जो जिंदगियों के लिए मायने रखते हैं उनकी नजर में साधारण आदमी न प्रजा है, न नागरिक बस रियाया है, रैयत है – उसका हक बस रियायत है! रियायत किसी लिखित कानून के तहत नहीं, देनेवाले के विवेक पर निर्भर करता है। मुनरो साहब को क्या याद करना! यहाँ तो, साहब ही साहब हैं! ऐसी जीवन-स्थिति में मनुष्य की उत्पादक क्षमता की गुणवत्ता पर नकारात्मक असर डालता है। मशीन अब मनुष्य से अधिक जहीन है। जाहिर है, मनुष्य की जीवन-स्थिति से अधिक मशीन के डोमेन इन्वायरामेंट को अग्राधिकार प्राप्त है। यह कब तक! मनुष्य जो उत्पादित करता है, उपभोग भी करता है। मशीन जो उत्पादित करती है, उपभोग नहीं करती है। उत्पादन के दायरे से विरत मनुष्य उपभोग के दायरे से बाहर हो जाता है – चीजों के अंबार लगे होंगे, उसे हासिल करने के लिए बहुत बड़ी आबादी ग्रहण की आधिकारिकता से वंचित रहेगी। मनुष्य है तो मूल्य है। मशीन का अपना मोल है उसके लिए कोई मूल्य नहीं है; मशीन में कोई ललक नहीं होती, राग-विराग नहीं होता। ऐसे में कोई क्या दायें, बायें सोचे। हरि अनंत, हरि कथा अनंता!  सुकूनदेह तो नहीं, फिर भी मीराजी की दो पंक्तियाँ दुहरा लेते हैं :

राजा तो कहाँ, परजा प्यासी एक और ही रूप में नाचती है

अब दायें झुको, अब बायें झुको, यूँ, ठीक, यूँ ही, ऐसे ऐसे

(साभार : मीराजी : कथक)

 

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