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न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए

न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए

मानव सभ्यता की संरचना का नाभिकीय प्रसंग है - न्याय। शुभ-अशुभ, तमस-ज्योति, अंधकार-प्रकाश, प्रेम-विग्रह, संधि-विच्छेद, उचित-अनुचित अस्ति-नास्ति,  दर्शन-निदर्शन, विचार-व्यवहार, अर्थात जितने भी तरह के द्वंद्व हैं उसका मूल द्वंद्व होता है — न्याय-अन्याय। न्याय को बाँग्ला में विचार कहते हैं; न्यायाधीश को विचारपति। काफी समय हो गया। एक नाटक में इस विचारपति पद के प्रयोग पर चौंक गया था। विचार का पति! मन में बहुत मंथन होता रहा, खैर अभी यहाँ उसकी विस्तृत चर्चा नहीं करूँगा। अभी, इतना ही कहना है कि न्याय को सुनिश्चित करने के लिए  विचार बहुत जरूरी होता है। न्याय की अवधारणाओं, प्रारूपों, प्रसंगों की चर्चा की जाती रही है। पिछले दिनों अनिमेष प्रियदर्शी जी से फेसबुक पोस्ट पर टिप्पणी के संदर्भ में ईश्वर और न्याय पर काफी बात हुई। फेसबुक पर जैसा कि होता है, चर्चा अधूरी ही रह गई। जीवन में अधूरी बातें बार-बार लौटती हैं, पूरी होने की चेतावनी और चुनौती लेकर। मोहन राकेश का बहुत प्रसिद्ध नाटक है आधे अधूरे। आधा भी पूरा नहीं, आधा भी अधूरा ही! मौका मिले तो, देखना चाहिए। ज तो वह पहले से भी अधिक प्रासंगिक है। प्रेमचंद साहित्य की शुरुआत में ही यह प्रसंग उपस्थित हो गया था याद कीजिए पंच परमेश्वर। न्याय में सब से बड़ी बाधा होती है — बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहना। अधिकतर मामले में अन्याय को पीछे से प्रियता उकसाती, प्रोमंपटियाती रहती है। सरवाइवल ऑफ द फिटस्टेट की वैज्ञानिकता अपनी जगह, सरवाइवल ऑफ द डियरेस्ट का प्रभाव तो यत्र, तत्र, सर्वत्र दिख ही जाता है। मत्स्य न्याय, मछली न्याय पर तो अक्सर चर्चा होती रहती है — बड़ी मछली, छोटी मछली को निगल लेती है। समाज में मजबूर मान्यता इस की बन ही जाती है। कभी-कभी, अपवाद रूप में, बड़ी मछली के गले में छोटी मछली उपद्रव मचाते हुए बाहर निकल आती है। मजबूर मान्यता के शिथिल होने पर लोगों को मजा भी खूब आता है, सभ्यता विमर्श की चादर पर यह अपवाद बहुत फबता भी है। भारतीय न्याय विचार में तो बहुत सारे और भी प्रसंग हैं — चित्र-तुरंग, न्याय, काग-दधि न्याय आदि।

बहरहाल, बड़ी मछली, छोटी मछली को न निगल पाये इसी के लिए तो इतनी लंबी-चौड़ी, चाक-चौबंद न्याय व्यवस्था, संविधान आदि का इतना महत्त्व है। लॉर्ड हेवर्ट (Lord Hewart) ने 1923 में कहा था — न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए। पूरे सौ साल हो गये। यह उक्ति चर्चा में बनी रहती आई। विद्वानों ने इस पर काफी विमर्श किया, पक्ष-विपक्ष में ढेर सारे तर्क-वितर्क हैं। बावजूद इसके, यह उक्ति न्याय के संदर्भ में सुग्राह्य लोकोक्ति बनी हुई है, खास कर छोटी-बड़ी के अनसुलझे सवाल के कारण। लेकिन फिर भी, यह सवाल तो प्रासंगिक है न कि न्याय होते हुए किस को दिखना चाहिए? उक्ति लोक प्रिय है, दिखना भी लोक चाहिए। तो क्या न्याय को लोक दीठि  में होने के लिए लोक प्रियता के दबाव में आना चाहिए? लोक प्रियता का दबाव अंततः भीड़-न्याय के रास्ते हम्मूरब्बी के आँख के बदले आँख के सिद्धांत पर पहुँच जायेगी और महात्मा गाँधी की चेतावनी के अनुसार पूरी दुनिया अंधी हो जायेगी। इससे बचना होगा। लोक दीठि और लोक प्रियता के दबाव से न्याय को बचना-बचाना होगा। इस प्रसंग में, एक बात और कहना जरूरी है। कि यह अंध लोकवादी रुझान नहीं है। न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए, लेकिन जो दिखे उस पर समझदारों को हो-हल्ला से बचना चाहिए। लोक प्रियता सुनिश्चित करने के दबाव के कारण लोकतंत्र का जो हाल हुआ है, सामने है। ध्यान रहे, लोक प्रियता को बहुमत में बदलना आसान होता है, बहुमत लोकतंत्र का प्राण होता है इसलिए लोकतंत्र पर लोक प्रियता का भयंकर दबाव रहता है। इस दबाव को जन-उत्तेजक नेता (Demagogue) लोक लुभावन बातों के सहारे लोक विन्यास में भारी उथल-पुथल मचाकर लोकप्रियता सुनिश्चित करते हैं, भले ही लोकतंत्र उपद्रव-ग्रस्त हो जाये। कभी-कभार, अपवाद स्वरूप, तथा कथित छोटी मछली बड़ी मछली के गले से बाहर निकलने, निगल लिये जाने से बच जाये। लेकिन तथा कथित बड़ी मछली तो, आखिरकार बड़ी मछली होती है! ऐसे में बड़ी मछली पूरे तालाब में हरबिर्रो मचा देती है। तालाब में मछलियाँ ही नहीं हम जैसे घोघाबसंत भी रहते हैं। इन घोघाबसंतों की हालत सब से ज्यादा दयनीय हो जाती है।

 

 

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