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साहित्य में लोकप्रियता

साहित्य में लोकप्रियता

साहित्य में लोकप्रियता का मतलब वास्तव में होता क्या है। वास्तविक का मतलब कितना वास्तविक हो सकता है, साहित्य में। इस पर विस्तार से लिखा जा सकता है। विस्तार का मतलब कितना विस्तार हो सकता है? बहुत उलझा हुआ है, सब कुछ। जितना विस्तार उतना उलझाव। जनता साहित्य में होती नहीं है, लायी जाती है, यह किसने कहा था, ज्यादा जरूरी सवाल क्यों कहा था। इस क्यों का जवाब कहनेवाले ने खुद दिया था, या हम अनुमान के आधार पर खुद ही कारण निर्धारण करने की स्वतंत्रता है? मैं समझता हूँ है। साहित्य और आलोचना के संबंधों के साथ  ही अलग-अलग एवं समग्र रूप से इनकी स्वायत्त लोकप्रियताओं   के अवलोकन का इरादा है। कैसा अवलोकन? विहंगावलोकन करूँ या सिंहावलोकन करूँ? अभी तय नहीं किया है। बस इरादा कर लिया है। निकल जाऊँ बाट पर या आपकी बाट जोहूँ? पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले, यह सलाह किस कवि ने दी? बाट ही बाट बताता है या पहले बाट तय कर लेना होता है? तयशुदा बाट तो तयशुदा मंजिल पर पहुँचा देते हैं। तयशुदा रास्ते पर तो पहले भी ढेर सारे बटोही चलकर वहाँ पहुँचकर आराम फरमा रहे होंगे, वहाँ कुछ नया और नायाब मिल सकता है क्या? रुकिये कोई कह रहा है, तुम्हें श्रान्त भवन में टिकना नहीं है, बेटा इस पथ का उद्देश्य है पहुँचना उस सीमा तक जिसके आगे राह नहीं है। यह कौन इतने प्यार से कह रहा है? जिसके आगे कोई रह नहीं हो, वहाँ पहुँचकर क्या करूँगा? लौटना ही होगा न? लौटकर कहाँ जाऊँगा? यह कैसी आवाज है? कोई कह रहा है, जाना है तो जाओ लेकिन अबकी अगर लौटो तो घर नहीं घर-घर लौटो? यानी गुदड़िया बबाजी? मैं गुदड़िया बबाजी बन जाऊँ और गुदड़िया बबाजी सत्ता का सिंगार? मन के कोने में एक और मन जो कभी थकता नहीं है, लेकिन मन के दालान का चौकीदार कहता है — कुकुरमाछी काटा है तो जाओ, नहीं तो विहंगावलोकन, सिंहावलोकन के चक्कर से बाहर निकलो अपने अश्रांत भवन में ही टिके रहकर जो दुष्टावलोकन करते रहो। समझते क्यों नहीं जीवन जीओ, जीवन सत्य को मत खोजो, कुछ भी हाथ न आयेगा, पाँव चला जायेगा ऊपर से। पाँव ऊपर से चला जायेगा का मतलब, कुचल दिया जाऊँगा? कुचल दिये जाने से बहुत डर लगता है। डर लगता है तो सोचो, सोचो कि सब इसी जनम में कर लोगे तो अगले जनम में क्या करोगे? हँस-हँसकर यह कौन कह रहा है — पुनरपि जनमम, पुनरपि मरणम, पुनरपि जननि जठरे शयनम। सो एक ही उपाय है — भज गोविंदम, गोविंदम भज मूढ़मते। बेटा कोई नहीं पूछेगा —  वार्ता कोपि न पृच्छति गेहे। इस चक्कर से बाहर न निकले तो, न गेह रहेगा न देह। यह आवाज कहाँ से आ रही है — या देही बिन सबद न स्वादम? शांत पापम। हरिशंकर परसाई का साल है, सोचा कुछ उनके काम को आगे बढ़ा दूँ, न-न आगे बढ़ाने का मतलब दुकान बंद करना नहीं। उनका गुणगान तो करना ही होगा, क्यों न उनके दिखाये रास्ते को टटोल लूँ? न-न आप नहीं कुछ बोलेंगे, क्या पता बोल ही दें, अरे तुनमुन तून चिड़ै है न सिंह, न विहंगावलोकन कर सकता है, न सिंहावलोकन; दुष्टावलोकन कर सकता है या सत्तावलोकन सो कर पापी, बाकी अगिले जनम करि लिओ। करना-धरना कुछ है नहीं बस पूछे जा रहा  है, ढपोरशंख कहीं का। पिछले मेले में तो तरह-तरह के फूँके गये थे अबकी बस ढपोरशंख।

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