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गिरोही चरित, छल-छलावा-छर्रा का खन-खन और छम-छम के माहौल में लोकतंत्र बेदम

गिरोही चरित, छल-छलावा-छर्रा का खन-खन और छम-छम के माहौल में लोकतंत्र बेदम


 

अभी-अभी देश में इतने धूमधाम से धीर, उदात्त ललित चरित के आदर्श — मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान की प्राण-प्रतिष्ठा हुई है और इधर पूरे देश में जैसे कोलाहल मचा हुआ है। एक तरफ औद्धत्य है तो एक तरफ आंदोलन  है! प्रतिष्ठित (अच्छे से बिठा दिये गये) राजनीतिक विश्लेषक  कह रहे हैं — अयोध्या के भव्य और दिव्य मंदिर में राम लला की प्रण-प्रतिष्ठा के बाद पूरा देश राममय हो गया है, फलतः 2024 का आम चुनाव एकतरफा है। बस कुछ संवैधानिक औपचारिकताएँ, कुछ लोकतांत्रिक प्रक्रिया होनी है, सो यथा-समय निर्विघ्न संपन्न हो जायेंगी।  ऐसे प्रतिष्ठित (अच्छे से बिठा दिये गये) राजनीतिक विश्लेषक यह क्यों नहीं बताते कि पूरे देश में जो जगह-जगह  उबाल और आंदोलन  है और सरकारी तंत्र का आंदोलनकारियों के प्रति जो व्यवहार कर रहा है, सरकार के प्रति ‘सम्मान और समर्पण’ के शिकार मुख्य मीडिया घरानों  का जो जनविरोधी रवैया है, उन सबका 2024 के आम चुनाव पर कोई असर, आम नागरिकों के चुनावी रुझानों पर कोई नकारात्मक असर क्यों नहीं पड़ेगा, या क्यों नहीं पड़नी चाहिए? अगर कोई असर न ही पड़े, या न पड़ने दिया जाये तो इसका भारत के लोकतंत्र पर क्या असर पड़ेगा, इस पर भी कुछ जुबानी जमा-खर्च करनी चाहिए। देश अगर राममय है तो, क्या राममय होने का ऐसा दुखद नतीजा हो सकता है? शायद, नहीं!  अभी भारत को ‘भारतमय’ होना बाकी है, भारत इस समय संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। 

समय आ गया है, जब भारत का पुनर्भव और पुनर्नव  होना है —— फिर से होना है और नया होना है। इतिहास में शासकों की जनविरोधी रुझानों  का ही नहीं क्रूरता और अत्याचार की अजीबोगरीब कहानियों से अटी पड़ी है। कुछ कहानियाँ किताबों में दर्ज हैं, कुछ वक्त गर्दोगुबार में खो गई हैं। गर्दोगुबार में खो गई कहानियाँ शब्द-दृश्य में उभरकर बार-बार आती भले न हों, लेकिन मानव-जाति की मानसिक शिराओं में बहती जरूर चलती चली आ रही हैं! असर डीएनए (DNA : DEOXYRIBONUCLEIC ACD) में जिंदा हो सकता है, क्या पता! राजनीतिक नेताओं के पास एक दूसरे के डीएनए का भरपूर प्रमाण, ज्ञान, बखान, निदान और बयान मिलता है, खासकर चुनावी माहौल में। 

यह ठीक है कि मनुष्य के मनुष्य होने में बौद्धिक निपुणताओं का ही नहीं, भावुक सांद्रताओं का भी महत्त्व रहा है।  बुद्धिमत्ता और भावुक सांद्रता के मिश्रित प्रभाव से अपनी जैविक उच्चता की तरफ  अब तक बढ़ता आया है। इस उच्चतर अवस्था तक पहुँचने में बौद्धिक निपुणताओं और भावुक सांद्रताओं से संपन्न प्रबुद्ध लोगों  ने बड़ी-बड़ी  कुर्बानियाँ दी हैं। एक बार फिर ध्यान दें, वैज्ञानिक ज्ञान और विज्ञान विकास के लिए कितने वैज्ञानिक और प्रबुद्ध लोगों ने श्रम, साधना ही नहीं की अपने-अपने शासकों के हाथो  जान भी गवाई है। विडंबना है कि ज्यों-ज्यों  विज्ञान और तकनीक  का विकास होता गया, त्यों-त्यों शासकों के हाथ विज्ञान और तकनीक  की ताकत और उसके व्यवहार पर कब्जा होता चला गया।  

भौगोलिक, ऐतिहासिक एवं अन्य कारणों से बने विभिन्न देशों और राष्ट्रों में होनेवाले दुर्निवार और अवांछित टकराव की स्थिति से निबटने के लिए सेना और हथियार बनाने की जरूरत खड़ी हुई। इस जरूरत को पूरा करने के लिए विज्ञान और तकनीक का सहारा लेते हुए  जानमारा और विश्व-विनाशक हथियार  बनते चले गए। विभिन्न देशों और राष्ट्रों के नेताओं की गलत नीतियों के चलते  राष्ट्रों के बीच टकरावों का नतीजा दुनिया देख चुकी है। आज भी देख रही है! इस समय दुनिया के विभिन्न देशों के बीच जो युद्ध और संघर्ष और चल रहे हैं उन देशों के राजनीतिक नेताओं का चाल-चरित्र-चेहरा विज्ञान और तकनीक के लाभ के आइने में वर्तमान आज देख रहा है, इतिहास कल देखेगा।  कई देशों में, भारत में भी युद्ध और संघर्ष का बाहरी स्वरूप अपनी जगह अधिक चिंता की बात उसका आंतरिक स्वरूप अधिक मुखर हो रहा है। विभिन्न समुदायों और हित-समूहों के बीच अवांछित संघर्ष अब वांछित युद्ध और संघर्ष में बदल रहा है। सतरू (सत्तारूढ़) पक्ष विपक्ष के राजनीतिक दल  को बिखेर देने के लिए विभिन्न हित-समूहों के बीच के असंतोष, संघर्ष को युद्ध स्तर की  अनैतिकता और टकराव की ओर धकेल रहा है, शांति और सामंजस्य सुनिश्चित करने की तो बात ही छोड़ दीजिए। जमानती क्षति (COLLATERAL DAMAGE) का प्रसंग बाहरी ही नहीं भीतरी भी है।  न्याय योद्धा हों या अन्याय योद्धा, मर्म में छुपा तो युद्ध ही रहता है — युद्ध तो तय है।  

पता नहीं सच है या झूठ। बात निकली है, अभी दूर तक नहीं जा पाई है। हवा में बात उड़ रही है कि ‘तृतीय पुत्र’ कहे जानेवाले अब अपने और अपने पुत्र के ‘सुरक्षित भविष्य और सुनिश्चित हित’ की तलाश में, ‘हाथ’ झटककर चले जा रहे हैं। कहाँ! कहने की बात है, मध्य प्रदेश विधान सभा के चुनाव नतीजों को याद कर लीजिए, सब कुछ साफ-साफ दिखेगा। भारत जोड़ो न्याय यात्रा के न्याय योद्धा राहुल गांधी के परिवारवाद की बात कहते हैं तो याद रखिए कि जब अधिकतर लोगों को अपने परिवार के दो पीढ़ी ऊपर के पुरखों के नाम खुद याद नहीं है, राहुल गांधी के पाँच पीढ़ी ऊपर के लोगों के नाम और काम इतिहास को याद है। बीच-बीच में कुछ के नाम तो हुजूर भी लगभग हर रोज उचारते रहते हैं। न्याय योद्धा की बात लोगों को समझ में आ रही है। लोगों के मन में राहुल गांधी के प्रति सहानुभूति भी होगी। समझ और सहानुभूति का वोट में बदलना और मतपेटी में पहुँचना कितना संभव होगा, यह देखने की बात है। 

निराला ने तो पहले ही कहा था — स्वार्थ के अवगुंठनों से लुंठित होने की बात कही थी। एक बात तय है कि धीरे-धीरे भारत में लोकतंत्र नेताओं के भरोसे निश्चित ही निश्चिंत नहीं रह सकता है, कम-से-कम  अभी जो परिस्थिति है उस में तो बिल्कुल ही नहीं। भारत के लोकतंत्र का भविष्य पचकेजिया मोटरी-गठरी ढोनेवालों के ही हाथ है, उन्हें ही तय करना होगा अंततः कि अपना तंग हाथ संभालते हुए, कम-से-कम  अभी की परिस्थिति में हाथ का साथ देते हैं या नहीं! पचकेजिया मोटरी-गठरी ढोनेवालों की असल कीमत का पता शायद अब पता चले जब चुनावी दान (Electoral Bonds) सुप्रीम कोर्ट के झकझोड़ने पर गुप्तावस्था से बाहर निकलेगा।  

इधर दुनिया बहुत तेजी से बदली है। शासकों के रुझान बदले हैं। विज्ञान और तकनीक में जबर्दस्त बदलाव आया है। बौद्धिक और वैज्ञानिक आज विज्ञान और तकनीकी विकास के व्यवहार पर शासकों के कब्जा तो हो ही गया है, इसके व्यवहार में जनविरोधी रुझानों में भी वृद्धि होती गयी है। उदाहरण के लिए एक प्रसंग। पथ निर्माण के बगल से गुजरते समय एक आम नजारा सामने आता है — बड़ी-बड़ी मशीनों का पथ निर्माण में उपयोग रहा होता है। दिनों का काम घंटों में हो जाता है। काम करने के घंटे आठ से बढ़ गये। दर्जनों की जगह एक आदमी काफी होता है।

मजदूरी पर कम खर्च का लाभ पूँजी लगानेवालों को मिलता है, मजदूरों को नहीं मिलता है। कहने का आशय यह है कि लागत के विभिन्न लेखा शीर्षों में आकलन के समायोजन में मानवीय पहलू या श्रमिक-संदर्भों का पर्याप्त ध्यान रखा नहीं जाता है। तात्पर्य यह है कि विज्ञान और तकनीक का लाभ  मजदूरों के नहीं मिलता है। बीमार पड़ जाये तो वहाँ भी यही नजारा देखने को मिल सकता है।  विज्ञान और तकनीक का जितना लाभ अस्पताल चलानेवालों को मिलता है, आम बीमार नागरिकों को उतना नहीं मिलता है। दवाइयों की कीमत पर विचार करें तो स्थिति  तो और भी भयावह दिख सकती है। महात्मा गांधी ने भारी मशीनीकरण से अपनी असहमति की बात खुलकर सामने रखी थी। आज पूरी दुनिया पर्यावरण की समस्याओं से जूझ रही है। विडंबना है कि विज्ञान और तकनीक का लाभ जिन लोगों को कम-से-कम  मिलता है उन लोगों को उसकी अधिक-से-अधिक हानि उठानी पड़ती है।

विज्ञान और तकनीक का लाभ सिमट-सिमटकर  कुछ के ही हाथो न पहुँचे और समाज में संतुलन, सामंजस्य और शांति की परिस्थिति बनी रहे, न्याय के सुनिश्चित रहने की परिस्थिति बनी रहे। इसलिए कल्याणकारी राज्य और लोकतंत्र की संकल्पना सामने आई। जब तक राजनीतिक नेताओं के मन और राजनीतिक दलों में थोड़ी-बहुत लोक-लाज या संवैधानिक मूल्यों के प्रति थोड़ा-बहुत सम्मान और समर्पण बचा रहा तब तक कल्याणकारी राज्य का कारोबार लोकतंत्र के प्रति थोड़ी-बहुत आशा और धैर्य  की स्थिति बनी रही। 

विज्ञान और तकनीक का लाभ सिमट-सिमटकर  कुछ के ही हाथो पहुँचता चला गया। विषमता की खाई लगातार भयावह होती चली गई। समाज में असंतुलन, असामंजस्य और शांति की परिस्थिति बनी। अन्याय का बोलबाला बढ़ता चला गया। राजनीतिक नेताओं में आम जनता पर वर्चस्व कायम करने और संवैधानिक व्यवस्था  के अतिक्रमण की प्रवृत्ति बढ़ती गई है। न्याय विरुद्ध होने का साहस बढ़ता गया है।  जिस तरह से राजनीतिक नेताओं में जनविरोधी गतिविधि और साँठ की अर्थनीति (Crony Capitalism), यानी क्रोनी रुझान बन गया उससे लोकतंत्र ही बेपटरी होता गया है।  चुनावी तंदुरुस्ती के बावजूद लोकतंत्र की आत्मा जरूर खिन्न हो गई है। एक बात पर भरोसे की है कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता हो या मशीन मानव मेधा को पराजित नहीं कर सकती है। पहले से किसे पता था अभी-अभी किसान आंदोलन के दौरान जब आंदोलनकारियों के विरुद्ध पुलिस ड्रोन से ‘हमला’ करने पर आंदोलनकारी पतंग से मुकाबला करने पर आ जायेंगे। अकबर इलाहाबादी ने कहा था — खींचो न कमानों को न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो। ‘अखबार’ तो बिक गये! अब कहिए — जब ड्रोन मुकाबिल हो तो पतंग उड़ाओ!    

लोकलुभावन राजनीति का दौर आया।  राजनीति में ‘दलीय निष्ठा’ का आधार ‘विचारधारा के प्रति व्यापक सहमति’ या राष्ट्र सेवा का स्वप्न न होकर ‘व्यक्ति’ की हुजूरी हो गई राजनीतिक दलों के भीतर गिरोही चरित का समावेश हो गया ——— गिरोही चरित, छल-छलावा-छर्रा का खन-खन और छम-छम के माहौल में लोकतंत्र बेदम। सत्ता से मिली सुख-सुविधा की लपेट कितनी तगड़ी होती है और उसके लपेटे में आने का नतीजा कितना अनिष्टकर होता है, इससे तो हमारे महा आख्यानों के कथानक भरे पड़े हैं। 

रात-दिन महा आख्यानों के कथानकों के अंतःकरण से हितोपदेश छान लानेवाले महापुरुष भी इस लपेटे की चपेट में पड़ने से खुद को बचाने में कितने दयनीय हो जाते हैं। हाल-फिलहाल तक राजनीतिक दलों के अधिकतर नेताओं की जीवन शैली, कम-से-कम,  सार्वजनिक अवसरों पर अवश्य ऐसी जरूर रही है कि लोक-लाज की झलक मिल जाती थी। विपरीत टिका-टिप्पणी होने पर  कैबिनेट मंत्री तक इस्तीफा भारत के लोकतंत्र ने देखा है, हालाँकि, वह भारतीय राजनीति का कोई आदर्श जमाना नहीं था, फिर भी लोक-लाज का खयाल रखा गया। आज की परिस्थिति सामने है! कल तक तपस्वी और त्यागी जैसी जिंदगी जीने पर गर्व करनेवाली सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं के प्रति सम्मान और समर्पण रखनेवाले सुख-सुविधा के लपेटे में पड़कर क्या-से-क्या हो गये! किसी भी उम्र के अपने पिछले साथियों की कभी सोचें तो, किस मनःस्थिति में पड़ जायेंगे ये तो कोई ‘सुखी’ ही बता सकते हैं।  

जी, बातचीत से किसी भी समस्या का समाधान हो सकता है, लेकिन यह निश्चित है कि शोषण का समापन नहीं हो सकता है।

समस्या का समाधान तब असंभव हो जाता है जब बातचीत में टालने और टरकाने की नजर में पड़नेवाली जगजाहिर धूर्तता  भी शामिल हो। कोई पक्ष समाधान के लिए तिकड़म करता है। तिकड़म! दो पक्षों में से जब कोई पक्ष तीसरे को शामिल कर पलड़े को अपनी ओर झुका लेने का इंतजाम करता है तो उसे तिकड़म कहते हैं।  सिद्धांततः लोकतंत्र के चार खंभे होते हैं — पहला स्तंभ विधायिका, दूसरा स्तंभ कार्यपालिका, तीसरा स्तंभ न्याय पालिका और चौथा स्तंभ है मीडिया। जनता स्तंभ नहीं होती है, लोकतंत्र की जमीन होती है, आधार होती है।  पहला स्तंभ विधायिका या तो स्तब्ध है, या कार्यपालिका के प्रति समर्पतित (समर में पतित) हो कर ढह गयी है। हमारे देश में विधायिका और कार्यपालिका दोनों मिलकर एक स्तंभ हो गई है। बची न्याय पालिका और मीडिया। न्याय पालिका तो तमाम तरह के आघात के बावजूद टिकी हुई है। अब बचा मीडिया! सतरू (सत्तारूढ़) पक्ष  और विपक्ष  के बीच लोकतंत्र का तीसरा स्तंभ या तीसरा पक्ष।  भारत में तिकड़म की क्या स्थिति है उसे समझना हो तो, लोकतंत्र के चौथे स्तंभ जो व्यवहार में अब वस्तुतः तीसरा है, के सत्ता रुझानों को देखकर समझ और सहानुभूति से संबंधित सारे कन्फ्यूजनों  के दूर हो जाने की उम्मीद है। 

इसी परिस्थिति में भारत का पुनर्भव और पुनर्नव होना है, आशंका है यह दौर लंबा चलेगा।  कितना लंबा? राम जानें! जब तक कुछ पता चले, प्रसिद्ध अर्थशास्त्री, ज्यां द्रेज़ और अमर्त्य सेन की पुस्तक “An Uncertain Glory : India and Its Contradictionsके हिंदी अनुवाद (अनुवादक : अशोक कुमार) “भारत और उसके विरोधाभास” के अंश पढ़िये, साभार ––-

“भारत सामान्यत: समकालीन मानदंडों के मुताबिक एक सफल लोकतंत्र है, और भारत के लोग इस बात पर खुश हो सकते हैं कि उनके देश को प्राय: दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है। लेकिन विशेष संदर्भों में राष्ट्रीय सुरक्षा तथा दूसरी चिन्ताओं के कथित आधारों पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया का जो उल्लंघन किया जाता है, वह भी इसी तस्वीर का ही हिस्सा। अंततः यह लोकतांत्रिक बहस और विश्लेषण का एक महत्त्वपूर्ण विषय है। वास्तव में, भारतीय लोकतंत्र का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि जहाँ और जब भी लोकतांत्रिक अधिकारों का उल्लंघन होता है, उनकी रक्षा कितनी ताकत के साथ की जाती है।

चुनावों के जरिए जनप्रतिनिधियों के चयन के पीछे बुनियादी विचार यह है कि जनता को अपना प्रतिनिधि चुनने का मौका दिया जाए, जो उसके लिए कुछ करे और उसके हितों का प्रतिनिधित्व करे। लेकिन वोटों की होड़ में यह बात महज एक शर्त बनकर रह जाती है, जिसे बहुत महत्त्व नहीं दिया जाता। सबसे पहला काम तो टिकट हासिल करना हो जाता है, जिसका मतलब है दल के सदस्यों का नहीं बल्कि नेता का कृपापात्र बनना, क्योंकि भारत में दल के अन्दर तो लोकतंत्र नाममात्र का ही होता है। इसलिए जवाबदेही जनता के प्रति नहीं बल्कि नेता के प्रति होती है।

 

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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