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पांच किलो की मोटरी तले जन, भारी गठरी के तले नायक: कैसे बचेगा लोकतंत्र!

पांच किलो की मोटरी तले जन, भारी गठरी के तले नायक: कैसे बचेगा लोकतंत्र!

अयोध्या के राम मंदिर में भगवान राम की प्राण-प्रतिष्ठा का कार्यक्रम हो चुका है। आयोजन की भव्यता और दिव्यता के राजनीतिक प्रभाव का प्रसार हो रहा है। राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा जारी है, उसे अपने हिसाब से जनसमर्थन भी मिल रहा है। लेकिन किसी को यह यकीन नहीं है कि इन सब से भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से बाहर कर पाना संभव है। हालाँकि, 28 दलों को मिलाकर बना इंडिया गठबंधन (I.N.D.I.A – इंडियन नेशनल डेवलेपमेंटल इनक्लुसिव अलायंस) का चुनावी इरादा तो यही है।

राजनीतिक लक्ष्य यह है कि भारतीय जनता पार्टी सत्ता से बाहर न हो तब भी कम-से-कम अपने दम पर बहुमत के आँकड़े को न छू सके और किसी अन्य राजनीतिक दल के समर्थन पर निर्भर हो जाये ताकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की तानाशाही या मनमानी पर थोड़ा-बहुत अंकुश लग जाये। तानाशाही की ओर बढ़ते पैर में लोकतंत्र की पैजनिया पहनाई जा सके!  

अब यह लक्ष्य भी इंडिया गठबंधन की पहुँच से बाहर होता जा रहा है। क्योंकि इंडिया गठबंधन के घटक दल हिचकोले खा रहे हैं। हिचकोले खा रहे हैं या स्वार्थांध होकर महत्वाकांक्षाओं की रस्सी पर झूला झूल रहे हैं, कहना मुश्किल है। कल तक विपक्षी गठबंधन के नायक नीतीश कुमार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की तरफ कदम बढ़ा रहे थे। अब, बढ़-चढ़कर कभी आर, कभी पार का गीत गानेवालों से आर-पार की निर्णायक लड़ाई जीतने की उम्मीद कमजोर पड़ती जा रही है।  

गजब का राजनीतिक खेल चल रहा है। भारतीय लोकतंत्र का बंटाढार! नीति न विचार, वाह-वाह नीतीश कुमार! मीडिया में खबर चल रही है, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की ओर बढ़ चले हैं नीतीश कुमार! खबर सच्ची लग रही है। सच हो तो भी और झूठ हो तो भी, नीतीश कुमार की रहस्यमय चुप्पी से उनकी साख पर बट्टा तो लग ही चुका है, उसकी भरपाई होना असंभव है; न जायें तो भी और टहलकर दो-चार दिन में उधर से चहल कदमी करते हुए फिर से वापस इधर आ जायें तो भी। क्या वे फिर से इधर भी आ सकते हैं? क्यों नहीं! नीतीश कुमार कुछ भी कर सकते हैं! जब उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की कुटिया का दरवाजा ही नहीं, कठोर कपाट भी खुलवा लिया तो कुछ भी कर सकते हैं! इंडिया गठबंधन की झोपड़ी में तो दरवाजा भी नहीं है, इधर आ जाना उनके लिए क्या मुश्किल है! 

अगर यह कोई राजनीतिक पैंतराबाजी है, तो इससे बुरा कुछ हो नहीं सकता। वे तो बात कर रहे थे देश और संविधान पर फासीवादी खतरे की, महँगाई, बेरोजगारी जैसी समस्याओं की! इनका क्या हुआ? इन खतरों से निपटने के लिए बढ़-चढ़कर अगुआई कर रहे थे उस का क्या हुआ? कोई लोक-लाज नहीं! यह सब राजनीति है, तो फिर जो लोग लोकहित के लिए जिंदगी भर दुख सहते रहे, जान तक गँवा बैठे, जिनके घरबार उजड़ गये वे क्या कर रहे थे? क्या, भोला पासवान शास्त्री और कर्पूरी ठाकुर जैसे बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री की राजनीति कोई राजनीति ही नहीं थी! भजन-कीर्तन था!

उनके राजनीतिक उत्तराधिकार का क्या हुआ? उनकी राजनीतिक उत्तरजीविता (पूर्वजों से स्वतः  प्राप्त) की नैतिक चेतना से लोकतंत्र को क्या हासिल हो रहा है? लोकतंत्र के दिन बहुत भारी हैं। खैर, नीतीश कुमार को यदि लग रहा है कि वे लोक-हित के अपने राजनीतिक एजेंडे को इंडिया गठबंधन में रहकर, कांग्रेस के चलते, लागू नहीं करवा सकते हैं और एनडीए में घुसकर माननीय मोदी जी के बल पर लागू करवा सकते हैं तो वे जानें या राम जानें! कोई दूसरा इस मामले में कह और कर भी क्या सकता है!

आजादी के आंदोलन के दौरान विकसित कांग्रेस पार्टी में सभी तरह के मनोभावों के नेता और समूह शामिल थे-दक्षिणपंथी भी, वामपंथी भी, समाजवादी भी। दक्षिणपंथी और वामपंथी विचारधारा की अपनी-अपनी अलग पार्टियां भी अपने तरीके से काम कर रही थीं। समाजवादी विचारधारा की ‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’ थोड़ी देर से 1934 में बनी। कुछ दिन बाद की राजनीतिक परिस्थितियों में इसके नाम में से ‘कांग्रेस’ शब्द हटा दिया गया। कांग्रेस के साथ सभी विचारधारा से संपन्न और मनोभावापन्न  लोगों का खट-मधुर संबंध रहा तब भी, आना-जाना तो आज भी बदस्तूर जारी है। घर में अनाज न हो, न हो राशन-पानी तो भला कौन मेहमान आये फिर उस घर पर राष्ट्रीय पार्टी होने का ही बोर्ड क्यों न झूल रहा हो।

नीतीश कुमार के इस बार की ‘राजनीति’ से जनता का लोकतंत्र पर से विश्वास उठने में और अधिक तेजी आयेगी। नेताओं कि गिरती हुई साख, से लोकतंत्र पर लोक का विश्वास उठने लग जाता है। लोग क्या कहेंगे! इसकी क्या परवाह! इनके राजनीतिक और बौद्धिक समर्थक अपना-सा मुंह लेकर रह जायेंगे। उस समाज का क्या हो सकता है, जिस समाज में बेईमानों की कृपा से ईमानदारों को ‘मरणोपरांत सम्मान’ मिलता है। एक बे-सिर-पैर की कानाफूसी तो यह भी है कि कर्पूरी ठाकुर को ‘भारत रत्न’ देना-दिलाना भी इस बार डील या सौदेबाजी का हिस्सा है।

लोकतंत्र की विडंबना है, नेता लोग जनता को तो गुस्से में लाउड स्पीकर से संबोधित करते हुए वोट माँगते हैं और आपस में कानाफूसी करते हुए हँसते-मुस्काते हुए मन चाहा रद्दोबदल कर लेते हैं — इधर या उधर। असल में, इस देश को खतरा जनता को झुंड मानने, स्थाई ‘मतबंधक’ और मतलुआ समझने वाले नेताओं से है। आम नागरिकों के एक हिस्से को लगने लगा है कि राजनीतिक दल और लोकतांत्रिक संस्थाएँ हमारे लोकतंत्र को बचाने में शायद ही कोई दिलचस्पी रखती हैं।

यह सच है कि महात्मा गांधी कांग्रेस पार्टी को लोकसेवा से संलग्न करना चाहते थे लेकिन कांग्रेस एक राजनीतिक दल बनने की तरफ ही बढ़ती जा रही थी। कांग्रेस पर सोशलिस्टों को निकाले और पूँजीपतियों, संप्रदायवादियों को शामिल करने का आरोप लगाया गया। बाद में ऐसी राजनीतिक परिस्थिति बनी, खासकर राजनीतिक आपातकाल के कारण, कि सोशलिस्ट लोग ‘तथाकथित संप्रदायवादियों’ के साथ दूध-पानी की तरह  मिल तो नहीं गये, लेकिन बड़ी मजबूती से हाथ तो मिला ही लिया। राजनीतिक आपातकाल लगाने के पीछे इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के असर की भी बात की जाती है।

राजनीतिक आपातकाल के अत्याचार के खुद भी शिकार बने पत्रकार कुलदीप नैयर अपनी किताब ‘इमर्जेंसी की इनसाइड स्टोरी’ में लिखते हैं — “राज नारायण 1 लाख से अधिक वोटों के अंतर से हार गए थे। वास्तव में, ये अनियमितताएँ वैसी नहीं थीं, जिनसे हार-जीत का फैसला हुआ हो। ये आरोप एक प्रधानमंत्री को अपदस्थ करने के लिए बेहद मामूली थे। यह वैसा ही था जैसे प्रधानमंत्री को ट्रैफिक नियम तोड़ने के लिए अपदस्थ कर दिया जाए।”

अदालत ने श्रीमती इंदिरा गांधी को एक जैसे दो भ्रष्ट आचरणों का दोषी पाया, जिसे कुलदीप नैयर ने ट्रैफिक नियम तोड़ने जैसा बताया- पहला, चुनाव प्रचार में  प्रधानमंत्री सचिवालय में ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी यशपाल कपूर की संलग्नता दूसरा, यह कि चुनावी मंच के लिए लाउडस्पीकर, बिजली की व्यवस्था में उत्तर प्रदेश के अधिकारियों की सेवा का उपयोग। आज लगता है, अदालत के फैसले के संदर्भ में उस समय के राजनीतिक उठा-पटक को देखते हुए जैसी राजनीतिक परिस्थिति बनी उसमें जितनी स्वाभाविकता थी, उतनी दूरंदेशी नहीं थी। 

यह मानना ही होगा कि देश की राजनीति में सोशलिस्ट पार्टी ने देश की राजनीति की कम सेवा नहीं की है। एक-से-एक महान विचारकों और राजनीतिक नेताओं का जुड़ाव इस धारा से रहा है और आज भी है। बावजूद इसके नीतीश कुमार फिर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के साथ दिख रहे हैं, यह आज की असामान्य राजनीतिक परिस्थिति में चिंताजनक है। 

यह मानना भूल होगी कि कांग्रेस पार्टी ‘जनसेवक या लोकसेवक’ के रूप में आजादी की लड़ाई में शामिल थी। महात्मा गांधी की सदिच्छा के अनुसार कांग्रेस राजनीतिक दल के रूप में अपने अस्तित्व का विसर्जन कर ‘जनसेवक या लोकसेवक’ बन गई होती तो क्या देश का भला होता? अनुमानित निष्कर्ष कुछ भी हो सकता है। 

कांग्रेस पार्टी ‘जनसेवक या लोकसेवक’ दल नहीं बनी अच्छा ही हुआ, कम-से-कम अभी भारत जोड़ो न्याय यात्रा तो कर रही है। राहुल गांधी के नेतृत्व में यदि युवाओं का साथ कांग्रेस पार्टी को मिला तभी कुछ हो सकता है। अपने-अपने सिर पर पाप की गठरी उठाये लोग इधर भी कम नहीं हैं। आँख-कान मूँदकर नहीं, आँख-कान खुली रखकर युवा लोग कुछ करें तो करें। इधर तो पाँच किलो की मोटरी के बोझ तले जन और भारी गठरी के बोझ तले नायक! कैसे बचे लोकतंत्र! लोकतंत्र बचेगा, जरूर बचेगा, भरोसा रखना होगा। भार उठाने का भरोसा लौटे, तब तक राजनीतिक आपातकाल के आंदोलन के सक्रिय भागीदार और प्रसिद्ध साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु के विख्यात उपन्यास “मैला आँचल” का एक अनुच्छेद साभार —

प्रातःकाल उठके देखते हैं कि गाँव-भर के लौंडे इसी झंडा-पत्तखा लेकर ‘इनकिलास जिन्दाबाघ’ करते हुए गाँवों में घूम रहे हैं। मामा से पूछा कि ‘मामा, क्या बात है ?’ तो मामा बोले कि गाँव के सभी लड़कों ने भोलटियरी में नाम लिखा लिया है। ‘इनकिलास जिन्दाबाघ’ का अर्थ है कि हम जिन्दा बाघ हैं।…जिन्दा” 

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