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द्वंद्व और दुविधा

द्वंद्व और दुविधा
मन द्वंद्व और दुविधा से घिरा हुआ है। वैसे, काँग्रेस की कई नीतियों, और कई मामलों में नीयत का भी, प्रशंसक मैं नहीं रहा हूँ। सुशासन की कमियों, बेलगाम महगाई, बेकाबू भ्रष्टाचार, रोजगार वंचना आदि के प्रति काँग्रेस की राजनीतिक उदासीनताओं से भी कम आहत नहीं हूँ। लेकिन कोई कारगर विकल्प दिख नहीं रहा है। इसलिए, बावजूद कई भयावह कमियों के लग यही रहा है कि देश के सामने उपस्थित आंतरिक विघटन और ढाँचागत विसर्जन के खतरों से बचने का संसदीय रास्ता काँग्रेस ही निकाल सकती है, शर्त्त यह कि राजनीतिक बरताव में कामचलाऊ ईमानदारी को लागू करने का साहस कर सके। सामने उपस्थित खतरों से बचने के लिए देश अगर अ-संसदीय, गैर-संसदीय या वि-संसदीय रास्ता पर चल पड़ता है, तो यह बहुत उथल-पुथल भरा दौर होगा। इस उथल-पुथल में सबकुछ बुरा ही होगा ऐसा नहीं है, यदि देश इस उथल-पुथल की झंझा को बरदाश्त कर लेता है तो कुछ अच्छा भी हो ही सकता है...। बाद में क्या होगा यह कहना तो मुश्किल है, लेकिन और कुछ हो न हो यथा-स्थिति और तदर्थता जरूर बहुत हद तक टूटेगी...। जो भी हो, फैसला देश को करना है...। मुझे देश के मतदाताओं की सामूहिक समझ के औसत पर पूरा भरोसा है, हाँ यह अलग बात है कि इधर मतदाताओं के एकांश पर नागरिक बोध से अधिक उभोक्ता मिजाज का वर्चस्व बढ़ रहा है..। इसे, द्वंद्व और दुविधा से घिरे मेरे नागरिक मन के एक स्तर पर चलनेवाली मुखरताओं के रूप में ही लिया जाना चाहिए किसी अपरिवर्त्तनीय विचार या प्रेरक अपील की तरह इसे नहीं लिया जाना चाहिए। 

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