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समझदारी का गीत

समझदारी और ना-समझी
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जाल में तो हम सभी हैं। फिलहाल, जिनके हाथ में जाल की डोर है और जो समझते हैं कि वे जालदार हैं जाल में नहीं, वे भी धोखे में ही हैं। गुड़ खाये गुलगुले से परहेज! ‘समझदार लोग’ जिन्हें ‘कुछ करना’ होता है वैसे ही फेसबुक, ह्वाट्सअप, नेट मोबाइल आदि से दूर ही रहते हैं। रहते हैं कि नहीं! रहते हैं कि नहीं! ! रहते हैं।  तो, जाल में तो जालदार समेत हम सभी हैं, फिलहाल।
आज कंप्यूटर मेरे सार्वजनिक और वैयक्तिक व्यवहार और आचरण का अनिवार्य उपादान बन चुका है। लेकिन जब, तब के प्रधानमंत्री राजीव गाँधी कंप्यूटर प्रसार के लिए सक्रिय थे, तब के समझदार लोगों ने इसका पुरजोर विरोध किया था। अपनी ‘छोटी-सी हैसियत और बडी-सी समझदारी’ के साथ मैं भी उस विरोध से सहमत और और उस विरोध में शामिल था; इसके लिए मैं लगातार शर्मिंदा रहा हूँ, कम-से-कम अपनी नजर में। इसलिए, ‘डीजिटल इंडिया’ के बारे में किसी पूर्वग्रह प्रेरित राय, खासकर नकारात्मक राय से बचना चाहता हूँ। अब जो कहना चाहता हूँ उसके लिए हंगरेजी (अंगरेजी!) का प्रयोग जरूरी है :
Till active and effective resistance is not possible then strategic persistence is unique tool to use until then capacity and mechanism to enforce active and effective resistance is not readily available at hand for full utilization, say exploitation.
समझदारों का गीत, अंगरेजी में ही उतरता है। अंगरेजी में गाना आसान नहीं सो हंगरेजी में कोशिश की। यह अपराध तो नहीं!

एक मुकद्दस तलाश जारी है


वैसे कहूँ तो कल की ही बात है, हाँ हाँ कल की ही
चाँद का मुहँ जरूरत से कुछ ज्यादा ही लाल था और खबर फैल गई थी
इस समय जब कि चाँद का मुहँ जरूरत से कुछ ज्यादा ही लाल था
चाँद से कुछ भी पूछना इस मुतल्लिक,
मुमकीन नहीं रह गया था बल्कि अत्याचार था
तालाब पर कभी ठीक से भरोसा मेरा जमा नहीं
और कुएँ को बीच में लाने का सवाल ही नहीं था
मैं लपक कर नदी के पास पहुँचा
गोकि समुद्र तक पहुँचना मेरे बूते में नहीं रहा कभी
मुझे पूरा यकीन था किसी और को हो या नहीं,
नदी के पास रहती है चाँद की पूरी खबर
मैं चकित रह गया कि जहाँ चंचल नदी बहा करती थी कभी मनोरमा
वहाँ अब रेत का हाहाकार बह रहा था,
रेत का हाहाकार यानी शक्ति के शून्य का हाहाकर
गनीमत यह कि एक टूटी नाव थी अब भी वहाँ सिसक के साथ
अपनी सिससक में उसे इंतजार था
नदी के फिर से बहाव में आने की
और चाँद के नदी में उतरने की
हालाँकि उसे खबर नहीं थी चाँद के मुहँ की
मेरी किसी बेचैनी का कोई जवाब नहीं था
न उस सिसक में और न उस इंतजार में
मुझे अपनी गलती का एहसास हो चुका था
और मैं बहुत ही थके मन से लौट रहा था
क्लाइमेट चेंज पर संयुक्त राष्ट्र संघ में किये गये भाषण की वर्त्तनी के पास
मेरे ख्याल में मेरा आशियाना अब तक नाव में बदल चुका था
अब मैं कैसे क्या कहूँ लेकिन यकीन मानिये
मैं अपने आप से लगातार असहमत होता जा रहा था
एक बहुत ही शातिराने तरीके से मैं अपने खिलाफ सहमत होता जा रहा था
अपने आप से असहमत और खुद के खिलाफ शातिराने तरीके से सहमत होना!
बहुत तकलीफदेह होता है,
कोई तरीका होगा जरूर इस फाँस से बाहर निकलने का
फिलहाल तो सुकून के लिए इतना है काफी रेतीली सभ्यता में कि
गुम नदी की मुकद्दस तलाश ऐलानिया तौर पर जारी है
भ्रम हो तो भ्रम ही सही पर एक मुकद्दस तलाश जारी है!!

मालूम नहीं

दिल में उठा दर्द शब्द में समाया किस तरह मालूम नहीं
है रुहानी तमन्ना अदब गरमाया किस तरह मालूम नहीं

खैरात पर जिंदगी पूरी जम्हूरियत कब आया मालूम नहीं
बात जज्वात की रस्म निभाना आया न आया मालूम नहीं

दरख्वास्त के हर्फ ने क्या कहा कहलाया मालूम नहीं
एक लफ्ज मुहब्बत है किसने आजमाया मालूम नहीं

बस यूँ ही कहा करता हूँ कद्रदानों की समझ में आया न आया मालूम नहीं 
अल्फाज कुछ मायने कुछ इरादा कुछ समझ में आया न आया मालूम नहीं

यकीन का कारण ढूढ़ने की भी होती है सलाहियत मालूम नहीं
अगर यह गुनाह मुकम्मल है तो फिर इसकी सजा मालूम नहीं

भावनाओं और विचारों के संघर्ष में हम कई बार यह समझ ही नहीं पाते हैं कि जिसे हम जीत समझ रहे हैं वह दरअस्ल हमारी हार है और जिसे हार समझ रहे हैं उसी के आस-पास कहीं हमारी जीत है। कई बार जब हमें लगता है कि कुछ समझ में नहीं आ रहा तभी हम, कुछ हद तक ही सही, समझ रहे होते हैं और जब लगता है कि पूरी तरह से समझ गया तब कई बार समझने की शुरुआत भी नहीं हुई होती है। इसे समझने में मुझे बहुत वक्त लग गया।

अपाहिज संभावनाओं को सरियाने में

जीवन बीत गया हाय उनको जिगरी दोस्त बनाने में
उनको मजा आता रुठने में और मुझे बस मनाने में

समझाया खुद को आखिर क्या रखा है बुतखाने में
लेकिन गमख्वार दिल ने सिर पेश किया नजराने में

कहता भी तो किस से जो उलझता गया लजाने में
मासूम वह बहुत, वक्त है मुहब्बत का इल्म आने में

आ भी जाये हुनर यहाँ तो सैकड़ों लगे हैं आजमाने में
मुहब्बत और मेहरबानी का फर्क मिट गया जमाने में

सारा वक्त गुजर गया सच कहूँ तो रोने और रुलाने में
बाकी बीत गया अपाहिज संभावनाओं को सरियाने में

मुझे निस्संदेह पूरा संदेह है!


मैं ने सुना है, हो सकता है आपने भी सुना हो। आपने क्या सुना, सुने का क्या किया मुझे नहीं मालूम। मैं तो कभी तय ही नहीं कर पाया कि यह झूठ है या सच। वैसे मैं झूठ सच के चक्कर में अब कम ही पड़ता हूँ। फिर भी आप से कहता हूँ। क्योंकि कहने से सुनने तक और फिर उसे कहने और फिर सुनने तक की विभ्रमकारी शृँखला के अननंत में बहुत कुछ बदल जाता है। इतना बदल जाता है कि हर बार पुराना कुछ नया-नया-सा हो जाता है। 
तो, हुआ यों कि एक बार एक नास्तिक अपने एकांत में भगवान की मूर्त्ति के समक्ष नतमस्तक पाया गया। स्व-घोषित नास्तिकों में हड़कंप मच गया। भगवान की मूर्त्ति के समक्ष ही स्व-घोषित नास्तिकों ने उस नास्तिक को घेर लिया। प्रश्न दागे जाने लगे। नास्तिक ने कहा मैं किसी भगवान के समक्ष नतमस्तक नहीं था। मैं उस पत्थर के समक्ष नतमस्तक था, जिसने तराशे जाने का दर्द सहा है। स्व-घोषित नास्तिकों का प्रश्न सन्नाटा में बदलता चला गया। तभी अचानक सन्नाटा को चीरती हुई आवाज मूर्त्ति के पत्थर से निकली। पत्थर कह रहा था :-
मैं पत्थर का हूँ तो क्या हुआ? मेरा भी दिल है! हाँ, मैंने तराशे जाने का दर्द सहा, वह आसान था। मेरा क्या? मैं तो पत्थर का हूँ ही! लेकिन मैं यह सह नहीं सकता कि राज-समाज के तराशे हाड़-माँस का कोई मेरे समक्ष इस तर्क के साथ नतमस्तक हो। जिनका तर्क खो गया या जिन्हें जीवन का तर्क इस तरह से कभी हासिल नहीं हुआ उनका नतमस्तक होना मैं सहता रहा हूँ, लेकिन मैं यह सह नहीं सकता कि राज-समाज के तराशे हाड़-माँस का कोई मेरे समक्ष इस तर्क के साथ नतमस्तक हो। एक मिनट का सन्नाटा और फिर कोलाहल के बीच स्व-घोषित नास्तिकों का समूह कीर्तन-मंडली में बदलता चला गया। नास्तिक अपने एकांत के कोलाहल में और भगवान की मूर्त्ति का पत्थर अपने कोलाहल के एकांत में डूबता चला गया।
आपकी बात! आप ही जानें! हालाँकि, मुझे निस्संदेह पूरा संदेह है!

वैसे झूठ है,  अचरज नहीं कि भीतर छुपा सच बैठा है


मैं ने सुना है, कबूल कर लूँ 
कि मैं अक्सर झूठ सुनता हूँ

मैं ने सुना है कि 
दिन में मजदूर बनाते थे 
रात में शरीफ तोड़ आते थे
दोनों कीमत पाते थे
दोनों का बसर होता था 
भूलभुलैया ऐसा ही था 
मुझे नहीं, भला मैं कौन! हरकारा 
हाँ, कुछ लोगों को मेरे सुनने के 
था पर ऐतराज है 
वे कहते हैं था नहीं है 
दिन में मजदूर बनाते हैं 
रात में शरीफ तोड़ आते हैं 
दोनों कीमत पाते हैं 
दोनों का बसर होता है 
भूलभुलैया ऐसा ही है 
हाँ शहर लखनऊ था कि दिल्ली है

मैं ने सुना है, कबूल कर लूँ
कि मैं अक्सर झूठ सुनता हूँ
वैसे झूठ है, 
अचरज नहीं कि भीतर छुपा सच बैठा है