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छंद! छंद क्या ? छंद क्यों?

छंद! छंद क्या ? छंद क्यों?
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छंद को लेकर बहुत सारे भ्रम हैं। छंद क्या है और क्यों जरूरी है! इस पर सोचने की जरूरत है, हर किसी को। हर किसी को माने सिर्फ उसके लिए जरूरी नहीं जो कविता रचने के काम से जुड़ा हुआ है या जो कविता लिखता है। तो पहले समझते हैं कि छंद है क्या।

छंद के साथ एक और शब्द का प्रयोग होता है, छल का। छल-छंद! छंद का मूल अर्थ होता है, बंधन। दूहने के समय गाय लथार न मारने लगे, यानी पैर से चोट न पहुँचा दे इसलिए दूहने के पहले गाय की पिछली दोनों टाँगों को बाँध दिया जाता है। इसे छानना कहते हैं। यह छानना छंद से ही विकसित रूप-ध्वनि है। गाय से हम छल करते हैं। छल यह कि गाय को विश्वास दिलाते हैं कि उसका दूध उसका बच्चा पी रहा है। इस छल का एहसास होने पर गाय पैर चला सकती है। इस पैर चला देने के आशंकित आघात से बचने के लिए छानना जरूरी होता है। संक्षेप में, समझा जा सकता है कि छल के लिए छंद क्यों जरूरी है! कविता भी एक तरह से छल रचती है। सकारात्मक छल। अब अगर बिल्क्ल ही द्विपाशिक (BINARY) सोच के नहीं हैं तो नकार में छिपे सकार तथा सकार में छिपे नकार को आसानी से पहचान सकते हैं। तात्पर्य यह कि सारे छल नकारात्मक नहीं होते हैं, सकारात्मक भी होते हैं। तो यह कि कविता वाक के ढाँचागत रूप (STRUCTURAL FORM) के माध्यम से संवेगों के संचलन के साथ भावात्मक संप्रेषण के लिए सकारात्मक छल रचती है।

छंद में कविता का होना जरूरी नहीं है। कविता में छंद का होना जरूरी है। दिखनेवाले बंधन के साथ यानी छंद में बहुत सारी बातें कही जाती हैं, लेकिन वे कविता नहीं होती हैं। न दिखनेवाले बंधन के साथ यानी बिना छंद के बहुत सारी बातें होती हैं, लेकिन उनमें कविता होती है! बिना छंद के! बिना बंधन के! हर बंधन दिखे ही जाये जरूरी तो नहीं। जैसे गाय का रस्सी से बँधी होती है, यह दिखता है। हम जो गाय से बिना रस्सी के बंधे होते हैं, यह नहीं दिखता है।

काव्याभास और कविता में अंतर है। छंद कविता का आभास यानी काव्याभास रचने में सहायक होता है। आपका छंद एक बार काव्य का आभास रचने में सफल हो जाता है तो फिर उसमें कविता के लिए भी जगह बनने लगती है और पाठक को पीड़ाहीन (पीड़ा हीन, पीड़ारहित नहीं) प्रतीक्षा के लिए एक सहार (सहारा नहीं, सहार) मिल जाता है। याद करें, कबीर को तो सहार समझ में आता है—
गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढि़ गढि़ काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।

कविता में छंद का होना जरूरी है, कविता में दिखे यह जरूरी नहीं है। छंद को संप्रेषण कौशल के औजार (TOOLS OF COMMUNICATION SKILLS)की तरह समझना चाहिए। छंद जीवन और जागतिक व्यवहार में भी जरूरी होता है, हम बहुत कोशिश करते हैं। यह कोशिश कविता में भी हो तो बेहतर! अन्य बातों के अलावा प्रेमचंद के गोदान का छंद भी बहुत उच्च-स्तरीय है। पढ़कर देख लीजिये न!

भाषा के मानकीकरण से भाषा की छंदस् योग्यता और आकांक्षा पर क्या असर पड़ता है और लोक में जहाँ भाषा के मानक दबाव का असर कम होता है, वहाँ कथ्य में छंद की अधिक उपस्थिति और व्याप्ति पर फिर कभी। अभी यो कबीर याद आ गये फिर, वे गुरु हैं--
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।

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