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स्वागत है 2018 हम अकेले हैं!



स्वागत है 2018 हम अकेले हैं!
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आना-जाना तो लगा रहता है। यह साल 2017 अतीत और इतिहास में समा जाने के कगार पर है। नया साल 2018 हमारी जिंदगी में बस शामिल होने ही वाला है। जिंदगी वक्त का हम सफर है। वक्त के साथ बहुत सारे हमसफर मिलते और बिछड़ते चलते हैं। जिंदगी चलती रहती है। जिंदगी के सफर में हम ढेर सारी चीजों, प्रसंगों, व्यक्तियों, संदर्भों आदि को हम साथ लिये चलते हैं। जिन्हें साथ लिए चलते हैं उनका साल भर फूल, माला, आयोजन, प्रयोजन, प्रवचन आदि सम्मान करते हैं। मैं कुछ गलत कह गया। इसे इस तरह से कहना मुनासिब होगा कि जिनका हम साल भर फूल, माला, आयोजन, प्रयोजन, प्रवचन आदि सम्मान करते हैं, लगता है कि हम उन्हें साथ लिये चल रहे हैं। ओह शायद फिर गलत कह गया। सच तो यह है कि साल भर हम जिन्हें फूल, माला, आयोजन, प्रयोजन, प्रवचन आदि सम्मान करते हैं, उन्हें बस वहीं छोड़ देते हैं कि कोई उन्हें साथ ले जाना चाहो तो ले जाये या जो हो मैं तो चला। शायद मैं कह नहीं पा रहा और आप तय नहीं कर पा रहे हैं कि मेरी बात से इत्तिफाक रखें या फिर न रखें! उदाहरण के लिये, अगर हम गाँधी या भगत सिंह, दोनों को दो ध्रुव जैसा माना जाता है, इसलिए या कहा, नहीं कहना चाहिए। गाँधी और भगत सिंह कहना चाहिए। अपने आप से ही हमें पूछना चाहिए कि यदि गाँधी और भगत सिंह को अपने सफर में हम साथ रखते हैं तो किसी व्यक्ति या समुदाय को अत्याचारित या अपमानित होते हुए देखकर हमें यह क्यों याद नहीं आता है कि यह भी उन्हीं लोगों में से एक है जिनके मान-सम्मान और हितों की हिफाजत के लिए गाँधी और भगत सिंह ने अपनी जान तक की परवाह नहीं की। जिन गाँधी और भगत सिंह को हम अपने साथ लिए चल रहे हैं, क्या उन्हें हमने अभिव्यक्ति की आजादी नहीं दे रखी है! वे हमें कभी टोकते हैं या हम उन से, कभी-कभी ही सही, बातचीत भी करते हैं! नहीं करते हैं। आजकल तो तस्वीरें भी बोलती हैं! शायद हम उन्हें अपने साथ नहीं रखते।
क्षमा करें विद्यापति ठाकुर, सहज सुमति पाने की आपकी ललक हमारे दिल कभी पैदा ही नहीं हो पाई! क्षमा करें कबीर, हरि को भजनेवाले जातपात पूछने में किसी से पीछे नहीं रहे, हरि को भजनेवाले हरि के नहीं रहे। क्षमा करें तुलसीदास, अब छोटन नहीं करते अपराध, बड़न करते हैं दिन रात। क्षमा करें प्रेमचंद, हमें धनिया का दुख नहीं दिखता, न अमीना का दुख दिखता है न खाला का। क्षमा करें गालिब, किसी के वायदे पर यकीन नहीं था, इतनी खुशी नहीं मिली कि खुशी से मर जाता, इसलिए, हाँ इसलिए जिंदा हूँ। क्षमा करें कविगुरु रवि ठाकुर, चित्त भय शून्य और माथा ऊँचा नहीं है। क्षमा करें भिखारी ठाकुर, हम बेटबेचबा समाज में खुश हैं। क्षमा करें निराला, है जिधर अन्याय है उधर शक्ति और हमें शक्ति से कोई गुरेज नहीं। क्षमा करें जयशंकर प्रसाद, अब अपने में ही सब कुछ भर, व्यक्ति विकास करेगा। क्षमा करें बाबा नागार्जुन, हम न तो बादल को घिरते देखते हैं और न कोई धुआँ खोजते हैं। क्षमा करें दिनकर, जनता सिंहासन को खाली करने की बात नहीं सोचती, अपनी थाली के खाली होते चले जाने को रोती है। यह साल 2017 भी नया बनकर ही आया था, अब पुराना बनकर जा रहा है। नया साल 2018 आ रहा है। स्वागत है 2018 हम अकेले हैं। क्षमा करें अज्ञेय, यह सच है कि भोर का बावरा अहेरी, पहले बिछाता है आलोक की, लाल-लाल कनियाँ, पर जब खींचता है जाल को, बाँध लेता है सभी को साथः

भोर का बावरा अहेरी
पहले बिछाता है आलोक की
लाल-लाल कनियाँ
पर जब खींचता है जाल को
बाँध लेता है सभी को साथः
छोटी-छोटी चिड़ियाँ
मँझोले परेवे
बड़े-बड़े पंखी
डैनों वाले डील वाले
डौल के बैडौल
उड़ने जहाज़
कलस-तिसूल वाले मंदिर-शिखर से ले
तारघर की नाटी मोटी चिपटी गोल घुस्सों वाली
उपयोग-सुंदरी
बेपनाह कायों कोः
गोधूली की धूल को, मोटरों के धुँए को भी
पार्क के किनारे पुष्पिताग्र कर्णिकार की आलोक-खची तन्वि
रूप-रेखा को
और दूर कचरा जलाने वाली कल की उद्दण्ड चिमनियों को, जो
धुआँ यों उगलती हैं मानो उसी मात्र से अहेरी को
हरा देगी !

बावरे अहेरी रे
कुछ भी अवध्य नहीं तुझे, सब आखेट हैः
एक बस मेरे मन-विवर में दुबकी कलौंस को
दुबकी ही छोड़ कर क्या तू चला जाएगा?
ले, मैं खोल देता हूँ कपाट सारे
मेरे इस खँढर की शिरा-शिरा छेद के
आलोक की अनी से अपनी,
गढ़ सारा ढाह कर ढूह भर कर देः
विफल दिनों की तू कलौंस पर माँज जा
मेरी आँखे आँज जा
कि तुझे देखूँ
देखूँ और मन में कृतज्ञता उमड़ आये
पहनूँ सिरोपे-से ये कनक-तार तेरे
बावरे अहेरी

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