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पछतावा 1

अंत तो प्रारंभ का उपहार है। अब अंत का प्रारंभ हो चुका है। अंत के पहले जीवन को समझने की कोशिश करना जरूरी लगता है। लाखों साल के मानव काल खंड के ऐसे समय में सौभाग्य से मेरे जीवन का दौर तब शुरू हुआ, शायद अंत भी, जब मानव बुद्धिमत्ता अपने चरम पर है। हालांकि इस दौर में भी व्यक्ति स्तर पर हर किसी की बुद्धिमत्ता समान नहीं है। इसके बाद लगता है मानव बुद्धिमत्ता का दौर ढलान पर होगा। कृत्रिम बुद्धिमत्ता का दौर शुरू होगा। शुभ होगा! अशुभ होगा! कहना मुश्किल है। मनुष्य की आबादी के छोटे हिस्से की बुद्धिमत्ता बनी रहेगी। धीरे-धीरे आबादी का यह छोटा-सा हिस्सा छोटा, और छोटा, और छोटा होता जायेगा। कितना छोटा! मेरे लिए कहना मुश्किल है। 
बेहतर है, जीवन को विभिन्न दौरों में समझने की कोशिश की जाए। पहला दौर सहज बुद्धि और स्वप्न का होता है।
 अगला दौर स्वप्न को वास्तविक करने की योजनाओं की रूपरेखा बनाने और शक्ति संयोजन का होता है। न तो शक्ति संयोजन की योजना इच्छित तरीके से पूरी तरह से कामयाब होती है, न तो अंततः बनाई गई रूपरेखा के अनुसार जीवनयापन होता है।
अगला दौर सपनों के बाहर जीवन के वास्तविक आधार को समझने और तदनुरूप खुद को बदलने या समायोजित करने का होता है। पंख समेटने का दौर!
पंखों का समेटा जाना और पंखों का झड़ना अपने साथ पछतावा का दौर लेकर आता है। 
जिसके सामान्य जीवन में पछतावा का कोई कारण नहीं होता है वह, विरल अपवाद को छोड़ दें तो, बहुत बड़ा झुठ्ठा होता है। इतना बड़ा झुठ्ठा कि अपनी आत्मा को भी, अपने झूठ को सच मानने के लिए राजी कर लेता है। अपनी आत्मा के सच को अपने दिमाग के झूठ में फाँस लेना क्या संभव हो सकता है? पता नहीं। मुझ जैसे लोगों के लिए यह संभव नहीं है। इसलिए, मैं अपवाद नहीं हूँ। विस्तार से लिखने और समय-समय पर साझा करने का मन है। डर बस इतना ही है कि कभी तो मन की कर नहीं पाया। 

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