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उत्प्रेक्षा काल में तानाबाना पर कफन

उत्प्रेक्षा काल में 
तानाबाना पर कफन की चर्चा
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सत्य हिंदी के तानाबाना पर डॉ मुकेश कुमार के संयोजन प्रेमचंद की कहानी कफन पर चर्चा का संदर्भ है। मैत्रेयी पुष्पा, वीरेंद्र यादव, अजय नवारिया की भागीदारी से चर्चा महत्वपूर्ण बन गयी।
सच दोनों तरफ था, खंडित सच। यह उत्प्रेक्षा काल है, इसमें अपेक्षा रखना ठीक नहीं है कि प्रेमचंद ने बिल्कुल आज के विमर्श के अनुकूल ही सबकुछ लिखा है। यह तथ्य भी खोजना देखना चाहिए कि उस समय हिंदी की रचनाओं में समकालीन विमर्श के इन मुद्दों पर साहित्य में, खासकर हिंदी साहित्य में, क्या रुख उभरकर सामने आ रहा था। प्रेमचंद अपना काम कर गये। अब यश-अपयश से परे हैं। आलोचना तो जरूरी है। वे विचार के केंद्र में हैं, यही बड़ी बात है। अब न तो ईमान की बात के प्रहार से उनका कुछ बिगाड़ होगा और न ईमान की बात से उनके बचाव की कोशिश से बनाव होगा। 
मुझे पूरी परिचर्चा में एक बहुत महत्वपूर्ण पाठ-सूत्र मिला। कहा गया कि जिन जातियों के अपमानजनक संदर्भ कफन में वर्णित हैं, उस जाति का सदस्य (काल्पनिक ही सही) बनकर  पढ़े जाने पर ही पता चलेगा कि कितना अपमानजनक है। मैंने नोट किया कि न तो निर्विशिष्ट पाठक की कोई स्थिति होती है और न निर्विशिष्ट पाठ की। पाठ और पाठक दोनों को उनके जाति, क्षेत्र, धर्म, जेंडर आदि के विशेषण के साथ ही स्वीकार किया जा सकता है। किसी जाति के लेखक के लिए इतर जाति के पाठक की पाठ-प्रक्रिया संदिग्ध होने के लिए अभिशप्त है। राजनीतिक क्षेत्र में तो यह अब लगभग सहज स्वीकृत हो गया है कि अच्छा करे, बुरा करे, जैसा भी हो नेता अपनी जाति का हो — जाति के बाहर वोट न जाये। लगभग सारे चुनावी विश्लेषण इस सहजता को स्वीकार करते हुए ही जटिलताओं को सुलझाने में लगे रहते हैं। इसका प्रसार चिकित्सा, अध्ययन-अध्यापन, वकील जैसे जीवन-क्षेत्र में भी हो रहा है, हालांकि विभिन्न कारणों से अभी यह सार्वजनिक चर्चा में नहीं दिख रहा है। हा हंत! यह हाल हुआ हमारा।
जो भी हो पता नहीं मेरी इस पोस्ट को कोई इसे किस तरह पढ़े! कोलख्यान से कुछ पता नहीं चलता। मुझे यहाँ साफ कर देना चाहिए। मेरा उपनाम झा है, यानी मैथिल ब्राह्मण। अब धारणा है कि ब्राह्मणेतर लोग प्रसंगतः ब्राह्मणवादी हो सकते हैं, लेकिन ब्राह्मण लोग अनिवार्यतः ब्राह्मणवादी होते हैं। 
मेरी मैथिली-हिंदी भाषा जहाँ समझ में न आये वहाँ उसे भाषा की ब्राह्मणी वक्रता मानकर उसकी उपेक्षा करें। जरूरी हो, होनी चाहिए नहीं, तो अपनी स्थिति के अनुसार इसका अपने उपयुक्त पाठ बना लें। यह विचार का उत्प्रेक्षा काल है। 

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