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आत्मघाती और हमलावर मीडिया से बचाव

दूरी बनाना मीडिया की स्वतंत्रता पर हमला नहीं.

आत्मघाती और हमलावर मीडिया से बचाव है

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भारत की राजनीति में विपक्षी गठबंधन I.N.D.I.A — के दलों ने कुछ समाचार वाचक और समाचार चर्चाकारों ANCHORs   के कार्यक्रमों में चर्चा के लिए अपने प्रतिनिधियों को नहीं भेजे जाने का निर्णय किया है। इसे कुछ लोग मीडिया की स्वतंत्रता पर हमला, मीडिया का बहिष्कार बता रहे हैं, कुछ असहयोग कह रहे हैं और इसे उनका हक बता रहे हैं। कुछ लोग इसे आपातकाल में हुए मीडिया पर हमले से भी जोड़के विश्लेषित कर रहे हैं। बहिष्कार या असहयोग की बारीकियाँ अपनी जगह, लेकिन एक स्वतंत्र नागरिक के नाते इस पर सोचना जरूरी है।

पहले आपातकाल में मीडिया पर हुए हमले की बात। उस दौरान पत्रकारों को सच बोलने, छापने से रोकने के लिए किया गया था, यह निश्चित रूप से निंदनीय था। उस दौरान पत्रकारों और संपूर्ण मीडिया पर हमला किन लोगों की तरफ से किया गया था? बेशक, सत्ताधारी दल और उस से जुड़े लोगों और तत्कालीन नौकरशाहों ने किया था। हमला मीडिया को पालतू बनाने के लिए किया गया था, जो पालतू बन गये वे आराम से थे। पालतू बनने के अपने फायदे हैं, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है। जिन्होंने पालतू बनने से इनकार किया उन्हें जबर्दस्त हमला झेलना पड़ा, क्षति उठानी पड़ी।

पत्रकारों या मीडिया पर हमला कौन कर सकता है? बेझिझक होके कहा जा सकता है कि यह ताकत, सिर्फ और सिर्फ सत्ताधारी दल, उस से जुड़े लोगों और ‘प्रतिबद्ध नौकरशाह’ के पास ही होती है इतनी ताकत उन्हीं के पास होती है। विपक्ष तो सही तरीके से अपनी बात को उठाने के लिए मीडिया का मुँह जोहता रहता है, मुँहतक्की में लगा रहता है, वह क्या हमला करेगा! कुछ समाचार वाचकों, या चर्चाकारों के कार्यक्रमों में सही तरीके से अपनी बात को नहीं उठाये जाने या ऐसी चर्चाओं में सही तरीके से अपनी बात को रखने का अवसर भी नहीं मिलने के कारण हताश विपक्ष अगर इससे दूरी बना लेने का फैसला करता है, तो यह उन पर या मीडिया पर हमला कैसे हुआ! किसी को लगे कि कोई उसे बुलाकर बार-बार प्रताड़ित, अपमानित करता है और वह ऐसे बुलावे पर नहीं जाने का दुखद फैसला करता है, तो बुलानेवाले के पास नहीं जाना क्या बुलानेवाले पर हमला है? बिल्कुल नहीं। यह हमला नहीं, हमलावर से बचाव का प्रयास है। यह बहुत ही दुखद स्थिति है। मीडिया के प्रतिष्ठित लोगों को इस पर सोचना चाहिए कि क्या किसी भी रूप में इस तरह के पत्रकारों और मीडिया समूहों से दूरी बनाना मीडिया पर हमला है या हमलावर मीडिया  बचाव है ¾ न बोलेंगे अब तो, कब बोलेंगे!

कुछ विख्यात समाचार वाचकों ने अपने श्रोताओं को बार-बार चेताते आये हैं कि भ्रम में डालनेवाले, गैर-जरूरी या कम जरूरी प्रसंगों से  मीडिया को भर देनेवाली मीडिया से दूरी बनाके रखें, यह दिमाग में जहर भर रहा है। भ्रम में डालनेवाले, गैर-जरूरी या कम जरूरी प्रसंग कौन से हैं, इसका फैसला तो श्रोता एवं नागरिक अपने विवेक से ही करता है। उपयोगी, विवेकपूर्ण सही और जरूरी खबर पाना नागरिक का हक है। नागरिकों के इसी हक से और इसी हक को पूरा करने के लिए मीडिया की स्वतंत्रता महत्त्वपूर्ण है मीडिया की स्वतंत्रता आसमान से नहीं, नागरिकों के हक के इसी परिप्रेक्ष्य से संबंधित है।  मीडिया के द्वारा इस नागरिक हक को जान-बूझके पूरा न करना खुद मीडिया की स्वतंत्रता पर मीडिया का हमला है आत्मघाती हमला। अपने बचाव में, ऐसी मीडिया से दूरी बनाके रखने का हक नागरिकों को है यह मीडिया पर हमला नहीं, आत्मघाती और हमलावर मीडिया से बचाव का रास्ता है, इसमें न कोई संदेह है, न होना चाहिए। वैसे भी साधारण नागरिक का मन बहुत घबड़ाया हुआ है, आज सोशल मीडिया के विभिन्न पटल न होते तो, क्या हाल होता यह सोचके मन और भी घबड़ा जाता है पता नहीं, सोशल मीडिया के विभिन्न पटल कितने दिन  नागरिक पहुँच में बने रहेंगे। स्थिति दुखद है, लेकिन इसी दुख में अपना घर है।


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