पृष्ठ

वे आये हैं...

वे आये हैं...

हरिया नी माये, हरिया नी भैणे हरिया तें भागी भरिया है!

––––––––––––––––––


उनके आने की संभावना से ही घर में उथल-पुथल मच जाता है –– जैसे तालाब का पानी धिप जाये, और जल जंतु बेहाल। ऐसे में घर को नये सिरे से सजाने-सँवारने की जरूरत तो ही जाती है –– कुछ को छिपाना, कुछ को अधिक उभारके दिखाना। गृहप्रधान के कंधे पर बहुत बोझ रहता है। इस बोझ का ही प्रभाव यह होता है कि गृहप्रधान ही गृहवासी के लिए अजनबी लगने लगते हैं –– असल में गृहप्रधान तो गृहवासियों के लिए वैसे भी अजनबी ही होते हैं, बस ऐसे मौकों पर अजनबियत कुछ तीखा हो जाता है, कुछ अधिक उभर जाता है। बहुत तरह के मनोविज्ञान पढ़ाये जाते हैं विश्वविद्यालयों में, गृह मनोविज्ञान पढ़ाया जाता है या नहीं, इसकी जानकारी नहीं है मुझे। वैसे भी पठन-पाठन के मामले में पाठा ही हूँ –– साठा पर नहीं, शाठा पर पाठा! 

जब भी वे आते हैं, घर का मुँह खुला-का-खुला रह जाता है। खुला-का-खुला का मतलब –– न खुला, न बंद! मुँह खोलने की इजाजत किसी को नहीं होती। लेकिन उनको लगना नहीं चाहिए कि घर में मुँह खोलने की इजाजत नहीं है! तो फिर तरकीब क्या है कि मुँह खोला भी न जाये और मुँह बंद भी न लगे। बस यह कि परिस्थिति बोले और सब के बदले, सब की ओर से गृहप्रधान बोलें। गृहप्रधान ही बोलें, जब जिसके मुँह से बोलना चाहें, बोलें। बस जिस की ओर से बोलें, उस शख्स को यह भपाना है कि घर का वही सदस्य बोल रहा है, गृहप्रधान तो बस अपना जबड़ा हिला रहे हैं। 

गृहप्रधान का ऐसा बेगाना व्यवहार गृहवासी को गृह-त्याग तक के लिए प्रेरित कर बैठता है। नहीं-नहीं, मैं अभी की किसी घटना के मादे में नहीं कह रहा –– आपको ऐसा लगता है, तो आपकी जिम्मेवारी। मैं तो भीष्म साहनी की कहानी ‘चीफ की दावत’ के मिस्टर शामलाल और उनकी माँ की बात कर रहा हूँ! चीफ के चले जाने के बाद वे कहती हैं ––– ‘‘नहीं बेटा, अब तुम अपनी बहू के साथ जैसा मन चाहे रहो। मैंने अपना खा-पहन लिया। अब यहाँ क्या करूँगी। जो थोड़े दिन जिंदगानी के बाकी हैं, भगवान का नाम लूँगी। तुम मुझे हरिद्वार भेज दो!’’ मिस्टर शाम के लिए ऐसा करना आसान नहीं होता है, माँ का खयाल नहीं, तरक्की का सवाल! बेटे के दबाव में वे पहले ही चीफ को गाके सुना चुकी हैं –– हरिया नी माये, हरिया नी भैणे हरिया तें भागी भरिया है! 

एक बार दबाव में कोई आ जाये तो दबाव बढ़ता ही जाता है, ऊपर से माया मोह भी दबोचे रहे तो क्या कहने। मिस्टर शामलाल को माँ की कोई चिंता नहीं है, चिंता अपनी तरक्की की है, मैं तरक्की की राजनीति की बात नहीं कर रहा, हालाँकि तरक्की की भी राजनीति होती है और खूब होती है। मैं मिस्टर शामलाल की तरक्की वासना की बात कर रहा हूँ। वे माँ से कहते हैं  –– ‘‘तुम चली जाओगी, तो फुलकारी कौन बनाएगा? साहब से तुम्हारे सामने ही फुलकारी देने का इकरार किया है।’’ माया मोह में फँसना जितना आसान और मनभावन होता है, उस फाँस से बाहर निकलना उतना ही मुश्किल और उच्चाटन भरा होता है। इसलिए, जाना माँ के लिए भी आसान नहीं होता है, बेटे के उज्ज्वल भविष्य की कामनाएँ तो हमेशा बनी रहती है, ऐसे मौकों पर स्थगित जम्हाई एवं उदग्र अंगड़ाई के सहकार में चार आँखों से जाग उठती हैं ––‘‘तो मैं बना दूँगी, बेटा, जैसा बन पड़ेगा बना दूँगी।’’ कामना और वासना के फर्क पर क्या कहूँ, कहना ही होगा तो बाद में; अभी आप कहना चाहें तो, मदद की कृपा करें। माँ का जाना रुक जाता है, लेकिन गृह-त्याग का मन तो एक बार बन ही जाता हैन!

वे आये हैं, वे जब गये, हो जायेंगे तो क्या होगा! शुभ ही होगा। जब तक माया मोह है, शुभ ही होगा! कोई इस तरह आये कि आके घर के लोगों के मन में छोटा होना भपा जाये तो सवाल तो उठेगा ही न! गृहप्रधान के बेगानेपन का! फिर आप कुछ और न सोचिए। सोचने पर मैंने नहीं, उन्होंने पाबंदी लगाई है। इतना ही नहीं, सुनने में आ रहा है कि अभी और भी लगानेवाले हैं। मैं तो बस मोहन राकेश के नाटक ‘आधे अधूरे’ के एक प्रसंग की याद दिला रहा हूँ ––

“स्त्री : मत कह, नहीं कह सकता तो। पर मैं मिन्नत–खुशामद से लोगों को घर पर बुलाऊँ और तू आने पर उनका मज़ाक उड़ाए, उनके कार्टून बनाए–ऐसी चीज़ें अब मुझे बिलकुल बरदाश्त नहीं हैं। सुन लिया? बिलकुल–बिलकुल बरदाश्त नहीं हैं। 

लड़का : नहीं बरदाश्त हैं, तो बुलाती क्यों हो ऐसे लोगों को घर पर कि जिनके आने से...? 

स्त्री : हाँ–हाँ...बता, क्या होता है जिनके आने से? 

लड़का : रहने दो। मैं इसीलिए चला जाना चाहता था पहले ही। 

स्त्री : तू बात पूरी कर अपनी। 

लड़का : जिनके आने से हम जितने छोटे हैं, उससे और छोटे हो जाते हैं अपनी नज़र में। 

स्त्री : (कुछ स्तब्ध होकर) मतलब?”

ओफ्फ! यह लड़का भी न! चला जाना चाहता था घर से! इसके मन में भी यह खयाल आ गया। अब आप ही उससे कुछ कहिए, उम्मीद है आपकी सुनेगा! हाँ, हाँ यही लड़का।

–––––––––––––––––– 


(भपाना : आशय, भाँपे जाने का माहौल बनाना; धिप : गर्म; मादे : मद में;  )


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें