पृष्ठ

नाम बदलके रख दूंगा

नाम बदलके रख दूंगा

“हदे छाड़ि बेहदि गया, हुवा निरंतर बास।

कवल ज फूल्या फूल बिन, को निरषै निज दास।”

और यह भी ––

“झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना।।”

–––––––––

ओफ्फ! ओ दिन और आज का दिन। बाल-काल था। बाल-कांड के चरम पर एक सहपाठी ने उग्र कंठ-स्वर में कहा –––– नाम बदलके रख दूंगा। तब से लेकर कई बार लोगों को कहते-सुनते पाया –– अगर मैंने ऐसा नहीं कर दिया, तो मेरा नाम बदल देना; नाम बदल दूंगा। ये नाम का बड़ा चक्कर है। जो जितना बड़ा उसके उतने नाम –– सहस्त्रनाम की महिमा से भला कौन भारतवासी अनवगत होगा! यहाँ तक कि दो-चार नाम तो मेरे भी हैं, हालाँकि मैं नाम नहीं कमा सका। मेरे कई परिचितों ने तो खूब नाम कमाया है, सुना है उनके नाम का सिक्का तो नहीं चलता पर ढोल जरूर बजता है। उसका क्या ढोलची को पैसा मिले तो वह किसी का ढोल बजा देता है; पैसा में कोताही तो वही बैंड बजाने लगता है। खैर! मन को तब शांति मिली जब किसी ने विलियम शेक्सपियर का नाम लिये बगैर बताया –– अजी, नाम में क्या रखा है! मैंने सोचा किसी दिन शेक्सपियर ने अपनी अप्रसिद्धि से ऊबके कह दिया होगा कि नाम में क्या रखा है। मेरे मन को बड़ा संतोष मिला। मन का क्या! मन फिर उचट गया। यह सोचके कि यह तो पछाही विचार है, बिल्कुल विदेशी –– इसकी औपनिवेशिक गंध से मन उचट गया। मन स्वदेशी के संधान में लग गया और पाया –– नाम में ही सब गुण छिपा है! हे, प्रभु! प्रभु से बड़ा प्रभु का नाम! दफ्तरों में नाम महिमा का कमाल देखते ही बनता है, आपने भी देखा होगा, न देखा तो आपका भाग। नाम लिखके पानी में डालने से पाहन के पानी में तैरने की बात जरूर सुनी होगी; सुना तो यह भी होगा कि बिना नाम लिखे जब प्रभु ने खुद पाहन को पानी में डाला तो वह डूब गया। प्रभु दुखी हुए। भक्त ने सँभाला –– प्रभु मैंने देखा, जिसे आपने ही छोड़ दिया उसे तो डूबना ही था। भक्तों के ऐसे तर्क प्रभुओं को बहुत पसंद आते हैं, आज भी! तो यह है –– नाम की महिमा। एक नाम न चले तो हजार नाम रख लिया जाये –– दो-चार तो मैं ने भी रख लिये हैं। हालाँकि, एक भी नहीं चला –– फर्श पर गिरी चवन्नी की तरह थोड़ा गुड़कके लुढ़क गया। बड़ा बाबू को जब पता चला तो उन्होंने प्रशासकीय हड़कान से डरा दिया –– दो नाम कैसे हो सकते हैं, आप के? मैंने विनम्रता पूर्वक कहा एक नाम है और दूसरा दैट इज है! मैं डर गया मेरे कहने से दैट इज नहीं चलेगा। हलफ उठाया तो मन को थोड़ी शांति मिली। शांति मिली लेकिन कभी-कभी डर तो दस्तक दे ही जाता है।   

यह जानकर कि मन शुद्ध होना चाहिए तो उलटा नाम भी काम कर जाता है –– उलटा नाम जपते हुए भी ब्रह्म समान हुआ जा सकता है, बस मन शुद्ध होना चाहिए। वही तो दिक्कत है बात के साथ प्रवाह में मन का शुद्ध-अशुद्ध कब निकल गया और पता भी नहीं चला! अब फिर बड़े स्तर पे दैट इज का मामला उखड़ा हुआ है! हद से बड़े स्तर पे! ऐसे में कबीर बहुत सहारा देते हैं माने –– भीतर देय सहार! “हदे छाड़ि बेहदि गया, हुवा निरंतर बास। कवल ज फूल्या फूल बिन, को निरषै निज दास।” कबीरदास को जब भी दुहराता हूँ –– ब्रह्म वक्रता के साथ लौटके तुलसीदास के पास जरूर जाता हूँ! इन सब का अर्थ! कुटिल भरोसा है ––  अर्थ आप निकाल लीजिएगा! ‘झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना।।’ पूरा प्रसंग सुनना जरूरी है तो यह रहा :-

“सनहु असंतन्ह केर सुभाऊ। भूलेहुँ संगति करिअ न काऊ।। तिन्ह कर संग सदा दुखदाई। जिमि कलपहि घालइ हरहाई।। खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी। जरहिं सदा पर संपति देखी।। जहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई। हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई।। काम क्रोध मद लोभ परायन। निर्दय कपटी कुटिल मलायन।। बयरु अकारन सब काहू सों। जो कर हित अनहित ताहू सों।। झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना।। बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा। खाइ महा अति हृदय कठोरा।।”

फिर भी ... समझना तो खुद ही होगा न, कि नाम में क्या रखा है!

 

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें