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देश का हाल हवाल

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देश का हाल हवाल. 1

ध्रुवीकरण का मतलब. 1

ध्रुवीकरण का अर्थात : क्या, कैसे और क्यों.... 1

सांप्रदायिक ध्रुवीकरण. 3

सांप्रदायिकता : ध्रुवीकरण. 5

 

 

 

देश का हाल हवाल

सामान्यतः, राजनीति पर बात करना पेशेवर राजनेताओं, पत्रकारों का काम है; एक भिन्न स्तर पर नागरिकों का भी काम है। राजनेताओं और पत्रकारों का यह काम नागरिकों के काम का ही विस्तार है। बल्कि कहना चाहिए कि कोई भी काम नागरिक अधिकार की परिधि में ही संभव और संपन्न होता है। नागरिक जमात का व्यक्तिगत या सामूहिक सामाजिक स्तर पर अपने अधिकारों से निरपेक्ष हो जाना नागरिक जीवन के लिए शुभ संकेत नहीं हो सकता। हाँ, राजनेताओं, पत्रकारों के मंतव्यों के आयाम और गहनता में अंतर होता है। अधिकार के कई पहलू होते हैं। अधिकार का ही एक अन्य महत्त्वपूर्ण पहलू कर्तव्य है। नागरिक अधिकार और कर्तव्य के तहत इस पर विचार करना जरूरी है। इस विचार का मूल उद्देश्य आत्म प्रचार, सहमति का संधान न हो कर, आत्म प्रकाश है; बस इतना कि मैं जो सोचता हूँ।

ध्रुवीकरण का मतलब

आजकल यह शब्द बार-बार सुनाई पड़ता है। क्या होता है, ध्रुवीकरण! क्या किसी संदर्भ में जन या जनमन का संगठित होना  ध्रुवीकरण है? क्या संगठित होना ही ध्रुव बनना है? क्या ध्रुवीकरण विचारधारात्मक होता है? क्या ध्रुवीकरण भावधारात्मक होता है? क्या ध्रुवीकरण के लिए विचार को भावना में लपेटकर असरदार बनाया जा जाता है? क्या ध्रुवीकरण में भावनाओं को विचार के पोशाक में पेश किया जाता है? ध्रुवीकरण अच्छा है? ध्रुवीकरण बुरा है? ध्रुवीकरण एक सहज सामाजिक प्रक्रिया है? संगठन विहीन ध्रुवीकरण हो सकता है? भेड़िया धसान है ध्रुवीकरण? ध्रुवीकरण का मतलब भीड़तंत्र है? क्या ध्रुवीकरण बद्ध पूर्वग्रहों की पुष्टि की बारंबारिता है? इन में से या स तरह के सवालों के जवाब हाँ/ना में नहीं दिया जा सकता है। इन पर विचार करना होगा; इन पर बार-बार सोचना होगा। इस सोच में आत्मनिष्ठता, वस्तुनिष्ठता, हीन-निष्ठा और निष्ठा-हीनता के भी तत्त्व हो सकते हैं; इन तत्त्वों की विभिन्न आनुपातिकता भी किये जानेवाले विचार में सन्निहित हो सकते हैं। एक बात की ओर इशारा कर देना यहाँ जरूरी है, इन सवालों के जवाब हर किसी को अपने लिए ढूँढ़ना नहीं, सोचना होगा; ढूँढे हुए विचार रेडीमेड होते हैं, उनमें कतर-ब्यौंत कर काम तो चलाया जा सकता है। काम-चलाऊ से काम चलाने की मजबूरी तो हो सकती है, इस मजबूरी का आदर करते हे भी यह समझना जरूरी है कि काम-चलाऊ तो अंततः काम-चलाऊ ही होता है, न! कहने का आशय है ––– अनायास हासिल होनेवाले जवाब पर आँख-नाक-कान बंद कर भरोसा करना अहितकर होता है, कम-से-कम इस समय तो हितकर नहीं हो सकता है। साफ कहूँ? मैं भी इन सवालों पर सोच रहा हूँ, हो सके तो आप भी सोचिए। मैंने क्या सोच रह हूँ? अभी बताना ठीक नहीं। इससे आपके सोचने पर संक्रामक असर पड़ सकता है। मैं इस से बचना-बचाना चाहता हूँ, इसलिए अभी बताना ठीक नहीं। वह बाद में, उनके लिए जिन्हें रेडीमेड चाहिए, या जिन्हें उसमें कतर-ब्यौंत कर काम-चलाऊ सोच पाने में सुविधा होगी उनके लिए!

ध्रुवीकरण का अर्थात : क्या, कैसे और क्यों

क्या होता है, ध्रुवीकरण! क्या किसी संदर्भ में जन या जनमन का संगठित होना  ध्रुवीकरण है? नहीं किसी संदर्भ में जन या जनमन का संगठित होना ध्रुवीकरण नहीं है। संदर्भ हट जाने के बाद भी उस खास संदर्भ को किसी अन्य संदर्भ या काल्पनिक संदर्भ से जोड़कर जन और जनमन का किसी अप्रकट उद्देश्य से संगठित बना रहना ध्रुवीकरण है।

क्या संगठित होना ही ध्रुव बनना है? नहीं संगठित होना ध्रुव बनाना नहीं है, वह तब तक दल बनाना है, जब तक उसके उद्देश्य, कार्य-पद्धति, उसके स्रोत सुपरिभाषित और सार्वजनिक रूप से घोषित रहते हैं तथा वे इस पर बने रहते हैं। ध्रुवीकरण दल के बाहर साधारण नागरिकों का होता है ; दल के भीतर के लोगों के बीच यह गुटबंदी कहलाता है। दल के भीतर की गुटबंदी समाज में नई-नई गोलबंदियाँ करता रहता है। इन गुटबंदियों या गोलबंदियों को ध्रुवीकरण नहीं कहा जा सकता है –– लोटे में भी पानी है, समुद्र में भी पानी है इस सादृश्यता को सामने रखके न तो लोटा को समुद्र कहा जाता है, न समुद्र को लोटा। ऐसा कहने में दोष है। इस उदाहरण में तो दोष का ज्ञान सहज ही हो जाता है लेकिन, बड़े मामलों में इस सादृश्य-संभ्रम दोष को पहाचनके सचेत व्यवहार करना बहुत मुश्किल होता है ––– ऐसे मामले में माँगे का ज्ञान काम नहीं आता है!

क्या ध्रुवीकरण विचारधारात्मक होता है? नहीं। किसी भी, तर्कसंगत, विवेकपूर्ण मानव-मूल्यों की सापेक्षता में हित-बोध से संपन्न विचारधारा से दल के बाहर के लोगों को जोड़ना आंदोलन कहलाता है। यह अपने आप में ध्रुवीकरण नहीं है, हाँ इस आंदोलन के खड़ा करने में ध्रुवीकरण-कारक तत्त्वों के इस्तेमाल के प्रति सदैव सचेत रहना चाहिए।  

क्या ध्रुवीकरण भावधारात्मक होता है? हाँ, मनुष्य की नैसर्गिक भावधाराओं को अपचालित करके ध्रुवीकरण किया जाता है। इसके लिए भयदोहन, और लोकलुभावन (पॉपुलिस्ट) वादों, इरादों, अतीत और कई बार गढ़े हुए इतिहास-हंता अतीत और सुनहरे भविष्य के माया-जाल को विभिन्न तरीके से सजाया एवं फैलाया जाता है। ऐसा करनेवाले लीडर को उत्तेजक और उन्माद-पसंद, समाज और समुदायों के बीच निरंतर युद्धक-परिस्थिति बनाये रखा जाता है –– ये डेमागॉग (Demagogue) कहलाते हैं। इनकी बुद्धि निषेध की होती है ––– सामाजिक शांति, मेल-जोल, समरसता के प्रति निषेध भाव रखते हैं। शांति को सन्नाटा से जोड़कर देखते हैं। उपद्रव को सामाजिक-सामुदायिक सक्रियता के रूप में चिह्नित करते हैं। इनकी निषेध बुद्धि अंततः इनको अनिवार्य जीवन प्रसंगों में भी बुद्धि के निषेध तक ले जाती है। संगठन में एक पद बौद्धिक का रखते हैं, जिनका काम का उद्देश्य अपनी समग्रता में बुद्धि-विनाश का होता है। तर्क संगत बातों, सुचिंतित विचारों की जगह पाखंड और वितंडा को प्रतिष्ठित करते हैं। इनकी हितैषिता विषाक्त होती है। ये जिनके हितों के पैरोकार बनते हैं, उन्हें ही सब से ज्यादा हानि पहुँचाते है –– खासकर स्त्री संदर्भों में इनकी चिंता, इनकी वाणी, इनके व्यवहार पर गौर करने से इनके वैचारिक गुण-सूत्र, संगठनात्मक डीएनए पर गौर करना चाहिए। ये अन्यों के हित समायोजन को तुष्टीकरण बताते नहीं थकते और अंततः दुष्टीकरण की प्रक्रिया पर काम करते रहते हैं। समाज और संस्कृति की बात जिस तरह से जोर देते हैं, जिस तरह से समाज संस्कृति के चिंतन की मुद्रा का सार्वजनिक प्रकाश करते हैं उन सब का समाज और जीवन पर बहुत नकारात्मक असर पड़ता है। साधारण लोग इन धुरफंदियों के कार्य-विस्तार को अपने वास्तविक हित संदर्भों से तंतु-बद्ध करके देखने में बहुत देर कर देते हैं, तब तक साधारण लोगों का मन इनकी चपेट में आ जाता है। इस तरह से इनकी ‘समझ’ अपने प्रभाव विस्तार के क्रम में सज्जनता को दुर्जनता से विस्थापित करने की दिशा में बढ़ते हैं, कामयाब होते हैं ––– कम-से-कम कुछ दिनों तक तो इस कामयाबी की चकाचौंध का वाग्जाल साधारण लोगों को विमोहित किये रहता है। इस तरह से देखें तो, अपचालित भावधाराओं की पेशबंदी विचारधारा के रूप में की जाती है। साधारण नागरिक के सहज जीवनयापन के नजरिये से देखें तो यह सब से अधिक हानिकारक होता है। सब से अधिक हानिकारक यह इसलिए होता है कि इस में राजनीतिक प्रयोजनों को हासिल करने के सिए गैर-राजनीतिक आधारों पर ध्रुवीकरण को बढ़ावा दिया जाता है।

क्या ध्रुवीकरण के लिए विचार को भावना में लपेटकर असरदार बनाया जा जाता है? नहीं। यह नैसर्गिक भावधाराओं के अपचालन से बनी क्षतिकर विचारधारा की चपेट में आने से सही विचारधारा को बचाने के लिए किया जाता है। इस प्रक्रिया में खतरा होता है –– सही विचारधारा भी तात्कालिक रूप से प्रभावी दिखने-बनने के चक्कर में विचारधारा का मूल सूत्र हाथ से छूट जाता है और वह खुद भावधारा के भँवर में फँस जाता है; इस तरह सुचिंतित विचारधारा के हारने और अपचालित भावधारा के जीतने की दुखांत पटकथाएँ सामने आती हैं। इन दुखांत पटकथाओं में कुत्सित हास्य-विनोद के फूहड़, निकृष्ट बिंबों का खुलकर व्यवहार होता है –– साधारण आदमी की मनःस्थिति अपने बहते हुए लहू को आलता की तरह देखता और विभोर होता है।   

क्या ध्रुवीकरण में भावनाओं को विचार के पोशाक में पेश किया जाता है? हाँ। युक्ति-युक्तता, वास्तविकता और बुद्धि-गम्यता से काटकर नैसर्गिक भावनाओं के आधार पर अहितकर विचारधारा की पेशबंदी की जाती है।

ध्रुवीकरण अच्छा है?  अच्छा हो सकता है, यदि ध्रुवीकरण के वास्तविक संदर्भ के हटते ही यह अपने पीछे एक नैतिक चेतावनी और वैधानिक प्रावधानों को सुनिश्चित करके समाप्त हो जाये। ऐसा होना थोड़ा मुश्किल इसलिए भी होता है कि ध्रुवीकरण के पीछे जो सायासता होती है वह सायासता ध्रुवीकरण के विसर्जन में नहीं होती है।

ध्रुवीकरण बुरा है? नहीं। समुचित संदर्भ के बाद दीर्घकाल तक इसका बना रहना, सक्रिय रहना बुरा है। ध्रुवीकरण एक सहज सामाजिक प्रक्रिया है? हाँ। यह प्रक्रिया खतरनाक तब हो जाती है, जब इस सहज सामाजिक प्रक्रिया का पर्यवसान जटिल राजनीतिक प्रक्रिया हो जाता है।  संगठन विहीन ध्रुवीकरण हो सकता है? हो सकता है। नागरिक जमात के दबाव में ऐसा हो सकता है। जमात और संगठन का अंतर ध्यान में रहे तो बात अधिक साफ हो सकती है। भेड़िया धसान है ध्रुवीकरण? नहीं। भेड़िया धसान का आधार मनुष्य की सहज अनुकरण वृत्ति रचती है। सहज अनुकरण वृत्ति ने मनुष्य को मनुष्य बनाने में बड़ा योगदान किया है, इसे सभ्यता के किसी चरण में छोड़ा नहीं जा सकता है, न इसकी निंदा की जा सरकती है। अनुकरण की सहज वृत्ति में अनुकरण के पीछे जब दिमाग अनुपस्थित और चेतना निष्चेष्ट रहती है एवं सारी गति बाह्य कारकों के नियंत्रण में रहती है। ध्रुवीकरण का मतलब भीड़तंत्र है? ध्रुवीकरण का मतलब भीड़तंत्र नहीं है, लेकिन भीड़तंत्र का नतीजा हो सकता है। क्या ध्रुवीकरण बद्ध पूर्वग्रहों की पुष्टि की बारंबारिता है? बद्ध पूर्वग्रहों की पुष्टि की बारंबारिता है अपने आप में ध्रुवीकरण नहीं है, यह ध्रुवीकरण की पूर्व शर्त है। आगे और.. जारी....

सांप्रदायिक ध्रुवीकरण

इस समय भारत में ध्रुवीकरण और रिवर्स पोलोराइजेशन की तीव्र प्रक्रिया जारी है। इन पर बात किया जाना जरूरी है, तकलीफदेह भी। जरूरी है, तो तकलीफ झेलने की मानसिक तैयारी करनी चाहिए। इन में धर्म और जाति के आधार पर जारी प्रक्रिया पर पहले विचार कर लेना प्रासंगिक है।

सांप्रदायिकता के आधार पर होनेवाला ध्रुवीकरण सबसे भयानक और त्रासद होता है। ऐसा इसलिए कि इसकी तेज धार से सामाजिक विभाजन हो जाता है। औपनिवेशिक वातावरण में  अर्थनीतिक, राजनीतिक  हलचलों के बीच आधुनिकता, आजादी का आंदोलन, लोकतंत्र, मानवाधिकार, समाज सुधार, धार्मिक सुधार आदि का संदर्भ जागृत हो गया था। इस प्रकरण में सांप्रदायिकता का सवाल हिंदू-मुस्लिम तक सीमित नहीं था, हिंदु धर्म में जातिगत, भेद-भाव, छुआछूत की सामाजिक कुरीतियों की जड़ वर्ण और पुनर्जन्म एवं उससे जुड़े कर्मफल विचार से पोषित था और है, इसे समर्थन मिलता है उन पुस्तकों से जिन्हें हिंदू धर्म का मूलाधार कहते हैं। समाज के अंदर बहुत सारे समाज (ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज आदि) बने और इन से जुड़े समाज सुधारक, धर्म सुधारक सक्रिय थे। इनके बीच डॉ. आंबेडकर की उपस्थिति से बुनियादी रूप से एक भिन्न वातावरण बन रहा था।

काँग्रेस का गठन मुंबई में हुआ था। गाँधी गुजराती थे। महाराष्ट्र, खासकर मुंबई से उनका गहरा रिश्ता था –– उनकी प्रारंभिक प्रेरणा के महत्त्वपूर्ण स्रोतों की जड़ें यहीं थीं। डॉ. आंबेडकर भी महाराष्ट्र से जुड़े थे। गाँधी जी और डॉ. आंबेडकर दोनों सक्रिय थे। डॉ. आंबेडकर गाँधी जी को जानते पहचानते थे, लेकिन गाँधी जी के पास डॉ. आंबेडकर के बारे में पूरी जानकारी नहीं थी। गाँधी जी आंबेडकर को ब्राह्मण समझते थे। महादेव देसाई को अंबेडकर गांधी से सर्वप्रथम अगस्त 1931 में बंबई में मिले। अपने सेक्रेटरी महादेव देसाई से हुई चर्चा करते हुए गांधी ने स्वीकार किया था कि इंग्लैंड जाने से पहले तक मुझे यह पता नहीं था कि अंबेडकर एक हरिजन हैं। वे डॉ. अंबेडकर को ब्राह्मण मानते थे, ऐसा ब्राह्मण जो हरिजनों के हितों में गहरी रुचि रखते है। और इसीलिए उत्तेजित होकर बातें करते हैं। गाँधी जी से डॉ. अंबेडकर की बात-चीत में एक दूसरे के सामने अपनी बात रखी गाँधी जी डॉ. आंबेडकर को सच्चे आदमी मान रहे थे। गाँधी जी से डॉ. आंबेडकर ने पूछा कि इस वतन को अपना किस आधार पर कहें। उस धर्म को अपना धर्म कैसे माना जाये जिस धर्म में उनके साथ मानवीय सलूक नहीं होता। भावातिरेक और तर्क वितर्क तो बहुत हुआ लेकिन मेल अंततः नहीं बैठा। एक बात स्वीकारनी पड़ेगी कि यह संदर्भ काफी तीखा और प्रखर होने के बावजूद डॉ. आंबेडकर की सूझ-बूझ और गाँधी जी के आश्वासन के आलोक में टल तो गया, लेकिन सुलझ नहीं गया।

हिंदू धर्म से जो शिकायत रही दलितों, पिछड़ों की (यहाँ महिला संदर्भ अंतर्निहित है) उसे दूर करने का गंभीर प्रयास नहीं किया गाया। इसे समय पर छोड़ दिया गया। भारत के दक्षिण भाग, पश्चिम भाग में कम-से-कम यह तो कहा जा सकता है कि वे शिकायतें दूर भले ही नहीं हो गई हों तो भी, वर्ण विद्वेष/ जातिवादी शोषण/ आदि को बनाये रखनेवालों या फैलानेवालों का साहस तो जरूर कम हो गया है। भारत के उत्तर मध्य भाग (हिंदी पट्टी समझ लें) में ऐसे लोगों का गर्व बोध और साहस बना हुआ रहा है। अब फिर डॉ. आंबेडकर को याद करें तो, वे गाँधी को, सही अर्थ में काँग्रेस को, अछूतों का सही प्रतिनिधि या वास्तविक हितैषी नहीं मानते थे।

हिंदु-मुस्लिम सांप्रदायिकता की आँच तेजकर जो ध्रुवीकरण किया गया उसमें हिंदुओं की आंतरिक शिकायत (वर्ण विद्वेष/ जातिवादी शोषण/ आदि) को दूर करने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया। हालाँकि, इस समय जो सत्ता के शीर्ष पर हैं वे ब्राह्मण तो नहीं हैं, लेकिन उनकी सोच हिंदुओं की आंतरिक शिकायत (वर्ण विद्वेष/ जातिवादी शोषण/ आदि) को दूर करने की नहीं है, उलटे अपने पक्ष-पोषण के लिए वर्ण विद्वेष/ जातिवादी शोषण/ आदि से ही सामग्री जुटाते हैं। अब इस समय हिंदु-मुस्लिम ध्रुवीकरण में “ब्राह्मणवाद” के घेरे में अपमानित हिंदु समुदायों की भागीदारी टूट रही है, ये स्वाभाविक रूप से इसके खिलाफ हो रहे हैं। अभी-अभी तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के पुत्र और उनकी सरकार में मंत्री, उदय निधि स्टालिन ने जो कहा है, और जो मीडिया में बहस का विषय बना हुआ है पर गौर कीजिये। उदय निधि के इस बयान के विरोध में कौन लोग आगे आ रहे हैं! उदय निधि के इस बयान के पक्ष में कौन लोग हैं! उनकी सामुदायिक सामाजिक पृष्ठभूमि को देखने पर स्थिति की गंभीरता और जटिलता समझ में आ सकती है। उधर महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण की माँग से उठी लपट क्या कहती है? मैंने कुछ साल पहले रिवर्स पोलोराइजेशन की प्रक्रिया के संदर्भ में संकेत किया था।

जो बात आजादी के आंदोलन के दौरान टल गई थी, अब वापस आ गई है। उदय निधि के बयान की जितनी निंदा, भर्त्सना की जायेगी हिंदु ध्रुवीकरण की प्रक्रिया उतनी ही क्षतिग्रस्त होती जायेगी। कुछ लोग उदय निधि के विरोध में संविधान की बात उठा रहे हैं, मीडिया में कुछ लोगों के बयान देख-सुनकर तो लगता है, उन्होंने संविधान को देखा तक नहीं है। भारत का संविधान वर्ण विद्वेष/ जातिवादी शोषण/ आदि के किसी भी रूप और प्रकार के विरुद्ध एक जीवंत आश्वासन और समतामूलक समाज एवं सामाजिक लोकतंत्र की मौलिक प्रेरणा है। सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक-धार्मिक रूप से उपेक्षित, दलित, पिछड़े अब अपना प्रवक्ता खुद बन रहे हैं ––  वोट दान के अधिकतर मामलों में राजनीति की दलीय मध्यस्थता के बिना। कहना न होगा कि वोट दान के अधिकतर मामलों में राजनीति की दलीय मध्यस्थता ने बहुत छला है। उम्मीद की जानी चाहिए कि वोट की राजनीति के अंदर-बाहर सामाजिक शुभ को सुनिश्चित करने कि दिशा में इस बार रिवर्स पोलोराइजेशन की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी। अपनी सामुदायिक पृष्ठभूमि के कारण मन की बेचैनी को समझने की मैं कोशिश कर रहा हूँ।

सांप्रदायिकता : ध्रुवीकरण

आज सुबह एक पुराने और समझदार मित्र से बात हुई। हाल-चाल के बाद चर्चा के बाद बातचीत का रुख देश समाज राजनीति की ओर मुड़ गया। वे बिल्कुल ताजा परिदृश्य से काफी चिंतित थे। उन्होंने उदय निधि के सनातन पर दिये गये बयान का हवाला दिया। मित्र हैं तो मेरी पोस्ट भी उन्होंने देख ली थी। मेरे कुछ मित्र ऐसे हैं जो पोस्ट देखते तो हैं लेकिन देखे जाने का चिह्न कभी-कभार ही छोड़ते हैं, यह उचित भी है, इसके अपने कारण हैं। हो सकता है, ऐसे मित्र आप के भी हों, कम-से-कम अगर मैं आपकी मित्र सूची में हूँ तो मुझे ऐसा ही मित्र समझ सकते हैं। खैर! उन्होंने उदय निधि के सनातन पर दिये गये बयान के संदर्भ पर बात करते हैं। अब चूँकि उदय निधि के पिता तमिलनाडु जैसे राज्य के मुख्यमंत्री हैं, उनकी सरकार में वे भी मंत्री हैं। उनका दल विपक्षी गठबंधन I.N.D.I.A. (Indian National Developmental Inclusive Alliance) का एक महत्त्वपूर्ण घटक दल है। चिंता का केंद्रीय बिंदु यह ––– क्या उदय निधि के बयान से I.N.D.I.A. को चुनावी  नुकसान होगा? मेरा मानना है नहीं। ऐसा मानने के पीछे तर्क क्या है? तय हुआ कि अपने तर्क को सार्वजनिक करूँ! कहां कर सकता हूँ? फेसबुक पर। इस परिप्रेक्ष्य में यह पोस्ट लिख रहा हूँ। हमेशा की तरह, आपकी सहमति-असहमति से संबंधित युक्तिसंगत सार्वजनिक या निजी टिप्पणियों का स्वागत है, खामोश या बाद में मुखरित होनेवाली टिप्पणियों का भी!

पहली बात हर प्रसंग को चुनावी राजनीति के जोड़-तोड़ से जोड़कर क्यों देखा जाये? हम राजनीति के लोग नहीं हैं। किसी दल या गठबंधन के जीतने-हारने का फर्क हम पर तभी पड़ता है, जब इनकी नीतियों का असर हमारे जीवनयापन पर पड़ता है। सामान्य लोगों को चुनावी जीत-हार में न उलझना चाहिए, न उलझाना चाहिए। इस उलझन में फँस जाने के कारण समग्र राजनीति अपने निकृष्टतम अर्थ में हमारे जीवन में असर डालने लगती है, सो सावधान! चुनावी नफा-नुकसान को नजरंदाज करते हुए सच कहने का साहस किसी दल को अच्छा या कहें चुने जाने लायक बनाता है। चुनावी नफा-नुकसान को ध्यान में रखके दिया गया गलत ही नहीं, सही बयान भी लोकतंत्र को अंततः हीन ही करता है। जनसंचार माध्यम (Mass Media) में जनहित पर चर्चा नहीं, दलों-गठबंधनों के हित पर चिंताओं, सुझावों की भरमार है –– उनके अपने हित में शायद यही हो! लोग जो देखना चाहते हैं, वही दिखाना व्यावसायिक दृष्टि है –– जो देखना चाहिए वह दिखाने की कोशिश करना जन-हित-दृष्टि है। जो-जो लोग करना चाहते हैं, वह-वह करने की बेधड़क छूट पतन का कारण है, जो करना चाहिए निडर होके वह करने की छूट, उत्थान का कारक है। चूँकि माहौल में चुनावी नफा-नुकसान को लेकर ही गहमागहमी है, इसलिए उस पर भी चर्चा कर ली जाये।

थोड़ा पीछे से शुरू करते हैं –– तभी आगे थोड़ा साफ दिख सकता है। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण आजादी के आंदोलन के साथ ही प्रारंभ हो गया था। इसके तीन आयाम उभर कर सामने आये –– हिंदु, मुस्लिम, दलित। ये आयाम अपने को राष्ट्र भी बता रहे थे –– यानी अपने को एक राष्ट्र नहीं मान रहे थे। यह राष्ट्रबोध अपने विस्तार में अपने राज्य की माँग कर रहे थे –– माहौल राष्ट्र राज्य (नेशन स्टेट) का था। राष्ट्र राज्य पद में राष्ट्र विशेषण और राज्य विशेष्य। कहना न होगा कि विशेषण से अधिक महत्त्वपूर्ण विशेष्य होता है ––– काला घोड़ा में घोड़ा होना अधिक महत्त्वपूर्ण है, न कि काला होना। ये तीनों आयाम काँग्रेस के अंदर भी थे और बाहर भी थे। दलित को हिंदु में शामिल माना गया तो ध्रुवीकरण का दो आयाम बचा हिंदु और मुसलमान। राष्ट्र राज्य के माहौल ने कमाल दिखाया, ध्रुवीकरण के इस आयाम के कारण एक राष्ट्र दो राज्यों में बँट गया। दलितों, पिछड़ों, और हाशिया के लोगों को हिंदु माना तो गया लेकिन वे उससे सहमत नहीं थे। डॉ. आंबेडकर ने गाँधी जी से पूछा था कि मैं इसे अपना वतन कैसे मानूँ, इसे (हिंदु) अपना धर्म कैसे  मानूँ, इस में हमारे साथ अमानुष जैसा सलूक किया जाता है। गाँधी जी के पास संतोषजनक उत्तर नहीं था। संतोष आत्मनिष्ठ मामला है, लेकिन इसका वस्तुनिष्ठ प्रसंग भी होता है। डॉ. आंबेडकर ने गाँधी की उस समय की राजनीतिक ताकत और ‘महात्मा से राजनेता और फिर राजनेता से महात्मा’ में सहजता से अंतरित (शिफ्ट) हो जाने की जादुई कला के प्रभाव को ठीक से तौला। अपने उपलब्ध जन-समर्थन (डेमोग्राफिक सपोर्ट) का यथार्थपरक आकलन किया। कटुता के बावजूद असंतोष और छल-बोध पर काबू पाते हुए तात्कालिक रूप से मान लिया गया। गाँधी जी डॉ. आंबेडकर को ठीक से जानते नहीं थे –– उन्होंने डॉ. आंबेडकर को कमतर आँका (अंडर इस्टिमेट)। उस बीच, आजादी के आंदोलन के दौरान जो चूक वामपंथियों से हुई तत्काल में उसका रणनीतिक वर्चस्व (स्ट्रेटेजिक डोमिनेशन) काँग्रेस ने उठाया।

गाँधी जी की हत्या के बाद, कैसा राजनीतिक माहौल रहा होगा आज हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। उस माहौल में नेहरु जी के पास स्वाभाविक रूप से समय बहुत कम था। वे इस पचड़े से बाहर निकल गये, सोचा होगा कि औद्योगिक विकास, आधुनिकता और प्रगतिशीलता के माहौल में ये जाति समस्या और अस्मिता के सवाल आप ही हल हो जायेंगे। इस पर गौर नहीं किया जा सका कि वर्ण व्यवस्था के कारण जातिवाद और दलित समस्या सामाजिक संस्तण (सोशल स्ट्रेटिफिकेशन)  का नहीं, पृथक अस्मिता (सेपरेट आइडेंटिटी) का मामला है। इसे ढंग से अभी भी सवर्ण मेधा पढ़ नहीं पा रही है। यह हिंदु-मुस्लिम सांप्रदायिकता से अधिक खतरनाक सांप्रदायिकता है, क्योंकि यह भीतरी है इसलिए इसमें आत्म-विरोध या आत्म-हंता होने के अलक्षित लक्षण हैं। पाकिस्तान बन जाने के बाद भी स्वाभाविक रूप से मुसलमानों की अच्छी-खासी आबादी भारत में साधिकार बनी रही। हिंदु-मुस्लिम सांप्रदायिकता सदा के लिए खत्म नहीं हो गयी, से जिलाकर रखा गया। इसे जिलाये रखने बनाये-बढ़ाये का एक कारण हिंदु (आंतरिक) सांप्रदायिकता को काबू में रखने के लिये इसे कारगर माना गया। प्राणघाती समस्या का निदान खोजने का कठिन प्रयास करने के बदले ‘विषस्य विषऔषधम’ का पतनशील रास्ता अख्तियार कर लिया गया ––– यह सब चुनावी नफा-नुकसान के लिहाज से हुआ। सारे कोलाहल और कोहराम के बीच नेहरु जी चाचा और गांधी जी राष्ट्रपिता के रूप में लोक-स्वीकृत हुए! आंबेडकर जैसा प्रखर विद्वान, संविधान निर्माता बनने की योग्यता से संपन्न, भारतीय रिज़र्व बैंक की अवधारणा को सामने लाने, इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी बनानेवाले जमीनी राजनीतिज्ञ और जनहितैषी आदमी बस दलितों का नेता बनकर रह गया! मामामौसा माना जाना तो दूर नेहरु मंत्रिमंडल में भी सम्मान और शांति से वे टिक न सके! क्यों? इसका जवाब, बहुत कठिन तो नहीं है न!

उदय निधि और उनके बयान जैसे अन्य बयानों से अस्सी-बीस का चुनावी हिसाब बैठाना कठिन होगा। हिंदु ध्रुवीकरण की कोशिशों पर उलटा असर होगा। हिंदु-मुस्लिम सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी निरस्त होगा। सनातन विशेषण है। इसका अर्थ युनिवर्सल बताया जा रहा है। अर्थात जो परिवर्तनशील नहीं है। बुद्ध और विज्ञान से हम जानते हैं, सबकुछ परिवर्तनशील है। सिर्फ परिवर्तनशीलता का नियम अपरिवर्तनशील है। जो समय के साथ परिवर्तित नहीं होता वह जड़ होता है, और अंततः समय से बाहर हो जाता है –– समय से बाहर का मतलब क्रियात्मकता से बाहर।

क्या जनचेतना में सनातन की व्याप्ति और स्वीकृति बहुत है या होती है? पहले जन को ही समझना होगा। जन का प्रभावी हिस्सा उन से बनता है जिनकी हिस्सेदारी की माँग आदरणीय काँशीराम किया करते थे। जनचेतना बहुत उदार है उसकी अलग कथा है। हिंदु विचार साम्यता या धर्म पंथ साम्यता के आधार पर स्वीकार अस्वीकार नहीं करता रहा है। वह सबके प्रति सहिष्णुता और चाक्षुष स्वीकार्यता का भाव रखता है और उसका अंतर्मन इन सबसे निरपेक्ष और पृथक बना रहता है। वर्चस्वशाली चेतना को जनचेतना समझने या बनाने बताने की चालाकियों का दौर अब समाप्त हो रहा है। जन चेतना का अर्थ वर्चस्वशाली चेतना से जुड़ा न होके उसकी व्याप्ति और परिधि से बाहर का मामला बन रहा है अब।

यह सच है कि सभी ब्राह्मण (सवर्ण को भी चाहें तो जोड़ लें) ब्राह्मणवादी नहीं हैं। लेकिन कटु सच है कि ब्राह्मणवाद के विरुद्ध किसी भी लड़ाई में ब्राह्मणवाद विरोधी लोग किसी ब्राह्मण को विश्वसनीय साथी नहीं मानते। नई परिस्थिति में ब्राह्मण (सवर्ण को भी चाहें तो जोड़ लें) अल्पसंख्यक होने जा रहे हैं, शाद मौन-व्रती अल्पसंख्यक। फिर कर तल भिक्षा, तरु तल वासं (संदर्भ भज गोविंदम)!

नई परिस्थिति में अभी के उनके अपने हिंदुत्व के समर्थक ब्राह्मणों (सवर्ण को भी चाहें तो जोड़ लें) से पिंड छुड़ाने में बीजेपी को दो-दो मिनट की तीन बैठकें काफी होंगी! ठीक से कह नहीं सकता।  क्या आरएसएस मुंह ताकता रह जायेगा बीजेपी का? जैसे सर्वोदय मुंह ताकता रह गया कांग्रेस का।

अब बताइए, फिर आगे! किसी को फायदा तो किसी को घाटा होगा। किस को घाटा होगा? नफा-नुकसान की फलित गणना करते रहिए।

 

 

 

 

 

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