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जीवित रहने की शर्तें और व्यवहार की समानता

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जीवित रहने की शर्तें और व्यवहार की समानता

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इस समय लोकतंत्र के संदर्भ में लेख लिखने की कोशिश में लगा हूँ। मैं खुद इतना बुद्धिमान नहीं हूँ कि अकेले इस काम को पूरा कर सकूँ। सामग्री और संदर्भों की तलाश में रहता हूँ बिना सहयोग सहायता के किसी काम को पूरा करने में स्वयं नहीं हूँ। @Animesh अनिमेष प्रियदर्शी के दो पोस्ट को मैं ने इस विचार क्रम में विचार के लिए यहाँ ले रहा हूँ। एक संदर्भ हिंदी के विख्यात कवि @Rajesh राजेश जोशी की कविता से उन्होंने लिया है। और एक में @Manoj मनोज अभिज्ञान का जिक्र है। मैं इन सभी के प्रति आभार व्यक्त कर लूँ, यह जरूरी है आभार।

मैं खुद से सवाल करता हूँ आखिर लोकतंत्र से हम, यानी नागरिक, क्या उम्मीद करते हैं! फिर याद कर लूँ नागरिकता को बचाये रखने के लिए सुकरात ने दैहिक जीवन का मोह छोड़ नैतिक जीवन का विकल्प चुना था विष का प्याला पीना स्वीकार किया था। किसी भी हाल में नागरिक होने के कर्तव्य को पूरा करते हुए नागरिकता को बचाना और इसके साथ नागरिकता से प्राप्त होनेवाले हक एवं हक से प्राप्त सुफल को हासिल बरामद करने तथा निर्भय जीवन यापन की स्थिति से संतुष्ट रहना। संक्षेप में, हर हाल में और सभी अर्थों में जीवित रहने की स्थिति और जीवन प्रसंगों में समान व्यवहार। किसी भी विद्रोह या आक्रोश को गौर से देखने पर यह समझते देर न लगेगी कि उसके मूल में समान व्यवहार का अभाव है समान व्यवहार का अभाव अपने-आप में अन्याय है। समान व्यवहार और अन्याय-बोध का बड़ा हिस्सा आत्म-निष्ठ होता है इसके वस्तु-निष्ठ स्वरूप को खोज निकालना, थोड़ा मुश्किल होता है। मुश्किल इसलिए भी होता है कि कई बार हम अपने हित और स्वार्थ के दबाव में जाने-अजाने, आत्म-निष्ठ होकर वस्तु-निष्ठता की तलाश करने लग जाते हैं।  

 

जीवित रहने की शर्तें

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राजेश जोशी कि यह कविता बहुत मार्मिक और इस संदर्भ में प्रासंगिक है हम पूरी कविता को, खासकर, इस अंश को याद करते रहते हैं।

‘सबसे बड़ा अपराध है इस समय  

निहत्थे और निरपराधी होना 

जो अपराधी नहीं होंगे’

तब जीवित रहने का रास्ता क्या बचता है! हथियार थामना! हथियार थामते ही हम निहत्थे भी नहीं रह जायेंगे और निरपराध भी नहीं रह जायेंगे! इससे क्या जीवित रहने की शर्तें पूरी हो जायेंगी? यहाँ हमें ठहर कर हथियार थामनेवालों एवं अपराधी लोगों के जीवन पर गौर करना होगा। उनकी कठिनाइयों को समझना होगा। क्या इस तरह से निर्भय जीवन यापन की स्थिति हासिल हो सकती है? क्या नागरिकता खंडित होने से बच पाती है? क्या यह कविता या कवितांश इस तरह से जीवित रहने के लिए उत्प्रेरित करती है? तीनों का उत्तर है — नहीं। तो फिर काव्य-न्याय (Poetic Justice) का संकेत क्या है? संकेत है — इस स्थिति से बाहर निकले की लोकतांत्रिक कोशिश। लेकिन लोकतांत्रिक कोशिश तो, लोकतांत्रिक पर्यावरण में ही संभव है! लोकतांत्रिक पर्यावरण सुनिश्चित हो तो, ऐसी स्थिति ही क्यों उत्पन्न हो! समझना होगा, गड़बड़ी कहाँ है — लोक में या तंत्र में या दोनों में! तंत्र लोक का निर्माण नहीं कर सकता है— क्या यह पूरा सच है। नहीं यह पूरा सच नहीं है। लोक अपने लिए तंत्र का निर्माण करता है, लोक अपने बनाये तंत्र को आत्म-गृहीत करता है, तंत्र को शक्ति प्रदान करते है कि वह निर्भय जीवन यापन की स्थिति सुनिश्चित करे और बदले में लोक अपने को तंत्र की शर्तों के अनुपालन का भरोसा देता है। तंत्र की शर्तों को माननेवालों के लिए तंत्र यदि निर्भय जीवन यापन की स्थिति उपलब्ध नहीं करवा पाता है तो यह तंत्र की विफलता है। तंत्र को दुरुस्त करना लोक का ही काम है — तंत्र को दुरुस्त करने का रास्ता संविधान देता है। संविधान लोक और तंत्र के बीच भरोसे का पुल है। संविधान प्रदत्त रास्ते पर चलकर तंत्र को दुरुस्त किया जा सकता है। संविधान प्रदत्त रास्ते पर चलना क्या एकाकी संभव है! या संगठित होकर संभव है! संगठित होकर ही संभव है — दलीय नहीं, निर्दलीय संगठन की महत्ता को समझना होगा। व्यक्ति और नागरिक समुदाय को समझना होगा; मुराद नागरिक जमात (Civil Society) से है! नागरिक जमात नहीं है! कमजोर है! ऐसा है, तो लोक के पास अपने तंत्र को दुरुस्त करने का औजार नहीं है। औजार हासिल करना होगा — हथियार नहीं। नहीं तो धीरे-धीरे मारे जाते रहेंगे। निहत्थे हों, हथियारबंद हों, निरपराध हों या अपराधी हों कोई फर्क नहीं पड़ता है।

सामाजिक समरसता के लिए निर्भय जीवन यापन की स्थिति सुनिश्चित करना तंत्र का दायित्व है यह कहते हुए मुझे ग्रीक दार्शनिक पाइथागोरस और हेराक्लिटस को याद करना चाहिए पाइथागोरस के दर्शन में समरसता पर जोर दिया गया है। हेराक्लिटस के दर्शन में जीवन की विरोधी की तनातनी द्वारा बने रहने की बात कही गई है। इस तनातनी में किसी की निर्णायक जीत की स्थिति से इनकार किया गया है। यहाँ दोनों को मिलाकर देखने की जरूरत है महत्त्वपूर्ण है फिर भी ये पहले की बात है, आज की परिस्थिति में नये ढंग से समझने की जरूरत है। इस तना-तनी को दो विरोधियों की तना-तनी के रूप में न देखकर लोकतंत्र में लोक और तंत्र के बीच की तना-तनी के रूप में देखा जा सकता है जिसका लक्ष्य निर्णायक जीत-हार के मुहावरे में न समझकर निरंतर अर्जित होते रहनेवाली समरसता के रूप में देखा जा सकता है। हेराक्लिटस के संगी क्रेटाइलस ने यह टिप्पणी सही है कि ‘‘आप एक ही नदी में दो बार नहीं उतर सकते।’’ लेकिन एक विचार को बार-बार पढ़ने की जरूरत होती है वाक्य एक रहे, अर्थ बदलता रहे! नहीं क्या!

 

 

असमान के साथ समान व्यवहार

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@Manojabhigyan मनोज अभिज्ञान जी के जिस पोस्ट को @Animesh अनिमेष जी के वॉल से लिया है पूरी बात उनकी वॉल पर देखी जा सकती है।

‘कुछ लोग कहते हैं कि प्रकृति ही हमें असमान बनाती है इसलिए समानता की बात करना ही मूर्खता है. सही बात है. प्राकृतिक तौर पर सब समान नहीं हैं. सब समान हो भी नहीं सकते. इसलिए हमारा संघर्ष यह है ही नहीं कि सबके साथ समान व्यवहार हो. हमारा तो संघर्ष ही इस बात के लिए है कि असमान लोगों के साथ समान व्यवहार न हो. असमान लोगों के साथ समान व्यवहार करना मूलभूत मानवीय अधिकारों के खिलाफ़ है. किसी ट्रेन, बस या अन्य स्थान पर अगर एक गर्भवती स्त्री खड़ी है और एक पुरुष खड़ा है और बैठने के लिए एक ही सीट हो तो सीट पर बैठने का बुनियादी हक़ गर्भवती स्त्री का बनता है, न कि पुरुष का. इसी तरह जहां एक बार में एक ही व्यक्ति के पार निकलने का रास्ता हो वहां सिर पर बोझ उठाए व्यक्ति को पहले निकलने का बुनियादी हक़ है. इन मामलों में यह तर्क नहीं चलेगा कि सबके साथ समान व्यवहार होना चाहिए और जिसमें क्षमता होगी, वह सीट या रास्ते से निकलने का हक हासिल कर लेगा.’

इस टिप्पणी या पोस्ट की मूल भावना से असहमत होने का कोई कारण नहीं है रूपक से बाहर कुछ बातों को समझने की जरूरत मुझे है, क्या पता अन्य को भी हो! सुकरात ने रेखांकित किया था सामान्य जीवन में जितने भी इस तरह के उदाहरण हम देखते हैं, उनमें समानता लगती अवश्य है, लेकिन फिर भी वह समानता 100 प्रतिशत नहीं होती है। खैर।

यह सच है कि प्रकृति हमें असमान बनाती है, लेकिन हम प्रकृति के बनाये को जस-का-तस स्वीकार नहीं कर लेते, उसके बनाये को बदलने की कोशिश अवश्य करते हैं। हम प्राकृतिक प्राणी तो हैं ही, लेकिन सामाजिक प्राणी भी हैं। अगर हम प्रकृति के बनाये नियम को जस-का-तस स्वीकार कर लेंगे तो हमें ‘मत्स्य न्याय’ को स्वीकार कर लेना होगा बड़ी मछली के द्वारा छोटी मछली को निगल जाने को वैध मान लेना होगा। अगर हम ऐसा करते हैं तो हम खुद को किसी भी नैतिक प्रसंग से बाहर हो जाने का जोखिम उठा लेंगे। मुझे लगता है, हम ऐसा जोखिम नहीं उठाना चाहेंगे! गर्भवती महिला के लिए स्थान छोड़ना या जिसके माथे पर अधिक बोझ है उसे पहले राह देना एक नैतिक प्रसंग है इस नैतिक प्रसंग के अनुकूल आचरण राजकीय प्रक्रिया से विनिर्मित और स्वीकृत विधि का नहीं, सांस्कृतिक प्रक्रिया से विनिर्मित और अर्जित विवेक का मामला है। अधिकतम परिगणित समानता के आधार पर विभिन्न लाभार्थी समूह बनता है, गौर से देखिये तो इस समूह के सदस्यों में भी असमानता दिखना बहुत मुश्किल नहीं होगा।

समान और असमान का निर्धारण तुलनात्मक निर्णय है। असमान और समान की तुलना गफलत में डाल सकता है एक गर्भवती महिला की तुलना दूसरी गर्भवती महिला से करने पर नैतिक दुविधा खड़ी होगी! मान लीजिए सीट एक है और दो गर्भवती महिलाएँ हैं! इनके बीच तुलना करने के बाद सीट प्रदाता को अपना फैसला करना पड़ेगा। क्या समान के बीच असमान का आधार तलाशना उचित नहीं होगा! यह ‘असमान लोगों के साथ समान व्यवहार’ का उदाहरण हो सकता है! ‘समान के प्रति समान व्यवहार’ एक नैतिक प्रसंग है जो विवेक का विषय है, ‘सभी के प्रति समान व्यवहार’ एक विधिक प्रसंग है ध्यान रहे विधिक प्रसंग का मूल रूप नकारात्मक होता है और नैतिक प्रसंग का मूल रूप सकारात्मक होता है कानून कहता है क्या-क्या नहीं करना है, विवेक कहता है क्या-क्या करना है! यह थोड़ा जटिल है, समझने की कोशिश जारी है। क्या कहते हैं!  

सुधार के लिए कृपया, सुझाव देते रहिए।

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