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लोक को समझने और उसके पास जाने की दो दृष्टि

#Fir_Loktantra_kolkhyan #फिरःलोकतंत्रःकोलख्यान

 

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लोक को समझने और उसके पास जाने की दो दृष्टि

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भारत के ग्रामीण इलाकों में यह लोकोक्ति चलती है कि घर में महाभारत न रखना चाहिए न पढ़ना चाहिए — लोकोक्तियों के पीछे निश्चित ही कोई प्रेरणा, लोक का कोई सांस्कृतिक अनुभव होती है, कोई-न-कोई बात जरूर होती है। क्या हो सकती है वह बात! अरुण त्रिपाठी हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार हैं। महाभारत काव्य खरीदके घर ले जाते समय यह लोकोक्ति दिमाग में झलकी, मन में शंका उठी! हर शंका में डर नहीं होता है, लेकिन उस में एक ख्याल तो होता ही है — एक ठिठक होती है। लोक में, खासकर मिथिला में एक उक्ति प्रचलित है — अपना गामक गाछी डेराउन, आन गामक पोखैर डेराउन! जाने-पहचाने बगीचों में भूत-प्रेत की कहानियाँ स्मृति में होती है, जो एकांत अंधेरे में डर पैदा करती है : अनजान तालाब की गहराई का पता नहीं होता है, प्रवेश के पहले थोड़ा डराता है। महाभारत को लेकर लोक के मन में ऐसी क्या बात है, लोक का ऐसा क्या अनुभव हो सकता है! इस बात की छान-बीन के लिए लोक मन और महाभारत की खासियत को समझना चाहिए। लोक मन बहुत गहरा होता है और महाभारत भी दुनिया की जटिलतम महागाथाओं में से एक है — इसे समझना इतना आसान नहीं। एक बात यह भी है कि लोक का मन धार्मिक, सांस्कृतिक से संबंधित वेदांत-दंतकथाओं से बनी पाप-पुण्य बोध की अवधारणाओं का वहन अधिक गुरुता से करता है; संवैधानिक प्रावधानों की विधि-निषेध से उतना संचालित नहीं होता है। लोक मन को समझना मुश्किल, महाभारत की बारीकियों को समझने में भी मुश्किल कम नहीं। फिर भी कोशिश तो की ही जा सकती है! फेसबुक तो वैसे भी त्वरित टिप्पणी के लिए उकसाती है।

अरुण त्रिपाठी की पोस्ट : ‘सोमवार को अयोध्या से गीताप्रेस से प्रकाशित महाभारत ले आया। यह छह खंडों में है और इसका एक सेट का मूल्य 3000 रुपए है। गांव में कहते है महाभारत पढ़ने से झगड़ा होता है। इसलिए न तो पढ़ना चाहिए है और न ही घर में  रखना चाहिए। पर मैं दोनों कर रहा हूँ। लेकिन शुरुआत शान्ति पर्व से कर रहा हूँ।

मेरी त्वरित टिप्पणी थी — ‘महाभारत का हर पात्र अपने अतीत का भारी पत्थर सामने रखकर आगे बढ़ता है। इस पत्थर को कभी हथियार की तरह इस्तेमाल करता है, कभी ढाल की तरह। अपने अतीत से वर्तमान को परिभाषित करता हुआ अपना अगला कदम उठाता है। नैतिक सवाल के खड़ा होते ही अपनी वैधता के लिए अपने अतीत की ओर लपकता है, कभी-कभी अतीत से कुछ जवाब ढूँढ लाता है, कभी-कभी वहाँ से तब तक नहीं लौटता है जब तक नैतिक सवाल खुद टल नहीं जाता है। अतीत को जब पीठ के बदले सीने पर लेकर परिजन मिलते हैं उनके बीच टकराव की आशंका अपने उच्चतम स्तर पर सक्रिय हो जाती है -- बुजुर्ग जानते हैं, इस तरह की शंका से बचने के लिए महाभारत को घर में न रखने, न पढ़ने का आदेश देकर समझते हैं कि परिवार के लोग टकराव से बच पायेंगे; हालाँकि ऐसा होता नहीं है! महाभारत को समझकर ही महाभारत की आशंका की परिधि से निकला जा सकता है — इसलिए इसका पारायण (पढ़ना) कीजिये।’

मेरी टिप्पणी पर @Aruntripathi अरुण जी ने कहा — ‘आपने बेहद नवीन और कल्पनाशील व्याख्या की है। मुझे तो इस ग्रंथ में सत्य और असत्य, धर्म और अधर्म, हिंसा और अहिंसा, नीति अनीति, लज्जा और निर्लज्जता, धैर्य अधैर्य, समता विषमता का अद्भुत टकराव दिख रहा है।’

भारत को समझने में महाभारत से कोई मदद मिल सकती है क्या? कम-से-कम उत्तर भारत की सामाजिक संरचना की जड़ों को समझने में इसकी थोड़ी-सी भूमिका हो सकती है! अब इसका प्रमाण क्या हो सकता है — इशारा हो सकता है। कहीं भी, खासकर पारिवारिक मामलों में झमेला फँसने पर लोगों के मुँह से अनायास निकल जाता है — महाभारत मचा हुआ है! ध्यान रहे यह इतिहास नहीं है, लेकिन आख्यान जरूर है, बल्कि महा-आख्यान है!

पूर्व घटित से वर्तमान निदेशित होने लगे तो वर्तमान कलह से घिर जाता है, और फिर आज का वर्तमान भविष्य के लिए पूर्व घटित बनकर भविष्य की संभावनाओं को कलुष से भर देता है — इस भँवर से निकलना जरूरी है! निकलने के लिए इसे जानना जरूरी है — जानने में महाभारत मददगार हो सकता है! महाभारत से उदाहरण तो लिये जा सकते हैं — अधिकरण नहीं बनाया जा सकता है।

कम-से-कम उत्तर भारत के लोक को समझने के लिए इसकी चर्चा करने के बाद भिन्न दृष्टि से लोक समझने की बेहतर स्थिति में हम हो सकते हैं — दो प्रमुख दृष्टि है : बाबा साहब आंबेडकर और महात्मा गांधी से मिल सकती है। यह ध्यान में रखना होगा कि ये दोनों दृष्टि जड़ नहीं गतिमान हैं; इनकी विकसित दृष्टि रेखाओं से मदद लेनी होगी। यह थोड़ा संवेदनशील और स्पर्श-कातर मामला है। थोड़ी-सी असावधानी से वह बात हाथ आकर भी, हाथ से निकल जायेगी जिसकी तलाश में हम लगे हैं! इसलिए थोड़ा ठहरकर!

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