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आत्महंता राज्य-व्यवस्था के रौरव निकाय के शासन का सच और झूठ प्रकाशनाधीन

आत्महंता राज्य-व्यवस्था के रौरव निकाय के शासन का सच और झूठ

गरीब को अपनी गरीबी नापने के लिए किसी इंडेक्स की जरूरत नहीं होती है। अपने सपनों के मजार पर सिर झुकाये वह रोज अपनी गरीबी के इंडेक्स को उलटता-पुलटता और समझता-बूझता रहता है। भारत में गरीबी की नहीं, राजनीति की बहुआयामी समझ विकसित करने की जरूरत है। भारत में 2024 का आम चुनाव सामने है। लोकलुभावन राजनीति के दौर में लोक-हितकारी लोकतंत्र के अस्तित्व की दृष्टि से यह भारत के आम नागरिकों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण चुनाव है। स्वाभाविक है कि सभी राजनीतिक दल राजनीतिक  समीकरण को साधने में  लगे हैं। राजनीतिक दल अपने-अपने 'हेड क्वार्टर' और ‘फिल्ड’ में आने-जाने की बारंबारिता में व्यस्त हैं। राहुल गांधी भारत जोड़ो न्याय यात्रा में व्यस्त हैं। आजकल हर किसी के पास राहुल गांधी को देने के लिए कोई-न-कोई नेक सलाह जरूर है। इससे यह पता चलता है कि ऐसे लोगों के लिए राहुल गांधी की करनी-धरनी कितनी महत्त्वपूर्ण है। अधिकतर सलाहकार के ध्यान में 2024 का आम चुनाव ही होता है। दिये गये कई सलाहों में से एक यह है कि उन्हें भारत जोड़ो न्याय यात्रा की ‘फिल्ड’ को फिलहाल, राम भरोसे छोड़कर अपने 'हेड क्वार्टर' में होना चाहिए। सलाहों के साथ एक अच्छी बात यह होती है कि इस में कभी-कभी कुछ काम की बात भी मिल जाती है, न भी मिले तो मित्र तत्त्वों के सरोकारों का पता तो चलता ही है। नासमझ व्यक्ति की भी छठी इंद्रिय विषाक्त हितैषिता को पहचानने का इशारा कर देती है, समझदारों का तो कहना ही क्या!

यह ठीक है कि 2024 का आम चुनाव भारत के आम नागरिकों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है, लेकिन साथ ही यह भी याद रखना होगा कि आम नागरिकों के लिए भारत किसी भी चुनाव से अधिक महत्त्वपूर्ण है। अटल विहारी बाजपेयी ने एक बहुत ही काम की बात कही थी, आशय था — सत्ता आयेगी, जायेगी, देश महत्त्वपूर्ण है। बहुत ही धैर्य के साथ यह बात समझनी होगी कि भारत इन दिनों असाधारण दौर से गुजर रहा है। यह असाधारणता पाँच साला असाधारणता नहीं है। असाधारण दौर में हमारा व्यवहार भी असाधारण ही हो सकता है। यह सच है कि कांग्रेस पार्टी लंबे समय तक सत्ता में रही है। राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस पार्टी को सत्ता हासिल करने के लिए राजनीतिक समीकरण नहीं साधना चाहिए, ऐसा कौन कहेगा! कांग्रेस पार्टी में सदा से एक बात रही है कि पूरी-की-पूरी पार्टी सिर्फ सत्तोमुखी साधना में कभी नहीं लगी रही। ऐसे लोगों कि गिनती करने लगेंगे तो उलझकर रह जायेंगे फिर भी कम-से-कम, जयप्रकाश नारायण का नाम न लेना अपराध जैसा होगा। जिन्हें प्रधानमंत्री और कांग्रेस नेता जवाहरलाल नेहरू ने अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाना चाहा और जयप्रकाश नारायण समाज की चिंता करते हुए बिना किसी विचलन के अपनी राह चलते रहे। एक समय मिलती-जुलती परंपरा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में भी थी, आज नहीं है, यह अलग बात है। आज तो सांस्कृतिक चिंतकों की मनःस्थिति ऐसी दिखती है कि सत्ता-विहीनता और आत्म-विहीनता में से किसी एक को चुनने की विवशता हो तो बिना किसी दुविधा के आत्म-विहीनता का सुख से चयन कर लेंगे।

कांग्रेस पार्टी को भारत में लोकतंत्र की सत्ता, राजसत्ता चाहिए, लेकिन उसके नेता राहुल गांधी को भारत चाहिए, जीवंत भारत-बोध (आइडिया ऑफ इंडिया) चाहिए। आत्महंता राज्य-व्यवस्था के रौरव निकाय के शासन का सच और झूठ अपनी जगह राहुल गांधी को दहाड़ता हुआ जीवंत भारत-बोध चाहिए। 

क्या है, जीवंत भारत-बोध! समझना बहुत आसान नहीं है, फिर भी कोशिश करते हैं, थोड़ा पीछे चलते हैं। साल 1936 का भारत के इतिहास में काफी महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसका एक कारण तो यह भी है कि इसी साल लाहौर में जात-पात तोड़क मंडल के वार्षिक सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर को आमंत्रित किया गया था। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने अपने अध्यक्षीय भाषण का प्रारूप तैयार किया था। इस प्रारूप को प्रारंभ में आयोजकों ने काफी पसंद किया, लेकिन एक अंश को लेकर उन्हें गंभीर आपत्ति थी। आयोजकों के अनुरोध पर बाबासाहेब अपने भाषण के उस अंश को हटाना मंजूर नहीं किया। जाहिर है, जात-पात तोड़क मंडल के उस वार्षिक सम्मेलन की अध्यक्षता डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने नहीं की। बाद में यह भाषण पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई : 'एनिहिलेशन ऑफ कास्ट — जाति का विनाश’।

'एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ इस पुस्तक पर टिप्पणी करते हुए महात्मा गांधी ने ‘हरिजन’ में लिखा कि समाज सुधारकों और रूढ़िवादियों को इसे पढ़ना चाहिए, सिर्फ असहमति के लिए ही नहीं। महात्मा गांधी ने खुद भी एक गंभीर और सही टिप्पणी की जिस पर गौर करना अधिक जरूरी है — “डॉ. आंबेडकर हिंदुत्व के लिए एक चुनौती हैं।”    

महात्मा गांधी और डॉ बाबासाहब आंबेडकर के बीच कई सहमतियाँ थीं तो कई महत्त्वपूर्ण मामलों में घनघोर असहमतियाँ भी थी। बुनियादी तौर पर दोनों के बीच कोई बहुत ज्यादा राजनीतिक असहमतियाँ नहीं थी, हाँ रणनीतिक और सामाजिक असहमतियाँ थी, खासकर वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत ‘श्रेष्ठ और हीन’ की सामाजिक मान्यताओं की राजनीतिक और धार्मिक वैधता को लेकर। हलके मिजाज में कहें तो महात्मा गांधी उन दिनों भारत के राजनीतिक सुप्रीम कोर्ट के मुख्य एवं सर्वोच्च न्यायमूर्ति  की हैसियत रखते थे और डॉ. बी. आर. आंबेडकर उसके सबसे बड़े और विधि-ज्ञान सुसज्जित वकील! हालाँकि, बाद में महात्मा गांधी के जाति विचार में बदलाव आ गया था। यहाँ, इतिहास और समझ की बहुत ही मार्मिक विडंबना की ओर किसी का भी ध्यान गये बिना रह नहीं सकता। जिस 'हिंदुत्व विचार' को सावधान करने के लिए गांधी ने आंबेडकर को 'हिंदुत्व विचार' के लिए चुनौती (खतरा) बताया था, उसी 'हिंदुत्व विचार' ने गांधी की जान ले ली!

आजकल चाणक्य और चाणक्य नीति की बड़ी चर्चा है। हाँ, यह चर्चा सिर्फ नेताओं के संदर्भ में होती है, हालत यह है कि सभी दलों में एकाधिक चाणक्यों की भरमार है, चंद्रगुप्तों का तो पता नहीं! हालाँकि, चाणक्य की प्रसिद्ध पुस्तक ‘अर्थशास्त्र’ में मुख्यतः राजनीति की ही शास्त्रीय चर्चा है, लेकिन उस पुस्तक में अन्य बातों की भी चर्चा है। चाणक्य ने राज कर्मचारियों के भ्रष्टाचार के बारे में सलीके से बताया है। मधु हो या विष उसे जीभ पर रखने से उसका स्वाद तो लगेगा ही। उससे भी बड़ी बात यह कही कि जिस प्रकार पानी में रहनेवाली मछलियों को पानी पीने से रोका नहीं जा सकता, वे कब पानी पी लेती हैं, देखा नहीं जा सकता उसी तरह से ‘अर्थकार्यों’ में लगे लोगों के अनर्थकारी कार्यों को पकड़ पाना मुश्किल होता है। देखा जाये तो, लोकतंत्र में सबसे बड़ा राज्य कर्मचारी तो लोकसेवक सरकार ही होती है। भारतीय चिंतन-धारा में ‘धर्म’ के बहुत सारे अर्थ हैं, और ‘अर्थ’ के भी बहुत सारे अर्थ हैं। यहाँ दो अर्थों का संकेत करना जरूरी लग रहा है — एक पैसा और एक ताकत; सामर्थ्य और अर्थशास्त्र। मुझे लगता है, चाणक्य के ‘अर्थशास्त्र’ में ‘अर्थ’, ताकत और पैसा दोनों का अर्थ-श्लेष बनाता है। दुनिया में सारे अनर्थ तो अर्थ (पैसा और ताकत) के लिए ही होता है। ‘हम दो, हमारे दो’ के मुहावरे में कहा जाये तो ‘हमारे दो’ के पास पैसा बहुत है और ‘हम दो’ के पास ताकत बहुत है। यह ठीक है कि पैसा से ताकत मिलती है और ताकत से पैसा बनता है, लेकिन होते हैं ये अलग-अलग। ताकत के अलावा भी पैसा बनाने का अलग-अलग स्रोत होता है और पैसा के अलावा भी ताकत बढ़ाने का अलग-अलग स्रोत होता है। ये दोनों जब तक अलग-अलग काम करते रहते हैं, तब तक सामाजिक शुभ को इन से कोई खतरा नहीं रहता है, बल्कि सामाजिक शुभ को सुनिश्चित करने के लिए इनके माध्यम से एक दूसरे के अतिचार को रोका जाना सुनिश्चित किया जा सकता है। सामाजिक शुभ को सुनिश्चित करते रहना सरकार का दायित्व है। इसके लिए सरकार को पैसा और ताकत के बीच संतुलन रखना होता है। सरकार जो खुद ताकत है, पैसा की ताकत के अतिचार को रोकने के बदले जनविमुखी नीतियों को अपनाते हुए पैसेवालों के हित में काम करने लगे तो बहुत बड़ा राजनीतिक एवं सामाजिक संकट उठ खड़ा होता है। इसे अर्थनीति में साँठ-गाँठ (क्रोनी कैपटलिज्म) से उत्पन्न संकट कहा जाता है। अर्थनीति में साँठ-गाँठ (क्रोनी कैपटलिज्म) का असर राजनीति में भी होता है जो राजनीति को लोकतंत्र विरोधी रास्ते पर ठेलते-धकेलते जनविरोधी फासीवाद तक ले जाता है। प्रभुता के मद में लोकतांत्रिक सत्ता यदि इस बात को ठीक-ठीक नहीं समझती है तो देश की संपूर्ण राजनीतिक प्रक्रिया को संरचनागत प्रदूषण का जानलेवा शिकार बना देती है। लोकतांत्रिक सत्ता का स्रोत राजनीति होती है। राजनीतिक प्रक्रिया को प्राण-संकट में डालना लोकतांत्रिक सत्ता के लिए आत्मघाती होता है। संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष की राजनीति इस संकट को ठीक-ठीक न निपटा पाये तो इधर लोकतंत्र प्राण-संकट में फँस जाता है और उधर लोकलुभावन राजनीति से मोहग्रस्त लोक, लोभ-लाभ के धर्मसंकट में फँसा रहता है। 

ऐसी हालत में जो विभ्रम का परिवेश बनता है उस में न सच, सच की तरह दिखता है और न झूठ ही, झूठ की तरह दिखता है! आत्महंता राज्य-व्यवस्था के रौरव निकाय के शासन के सच और झूठ में भी साँठ-गाँठ हो जाता है। हमारी वृहत्कथाएँ सच और झूठ के बीच की साँठ-गाँठ का शाश्वत वृहदारण्य है। इस वृहदारण्य में अमृत तत्त्व भी होता है और मृत तत्त्व भी। मुश्किल यह है कि अमृत तत्त्व पर मृत तत्त्व का कब्जा होता है। मृत तत्त्व के कब्जा से अमृत तत्त्व को मुक्त कराने के लिए भाव विचलित हुए बिना बौद्धिक रण करना पड़ता है — अरण्य से रण! जैसे देह से आत्मा का रण, भूत से अधिभूत (अध्यात्म) का रण, वास्तविक (Actual) से आभास (virtual) का रण — यह ‘रण’ बहुत दुस्साध्य होता है। यह रण चुनावी राजनेताओं के वश का नहीं होता है — दुस्साध्य को साधने का काम राजपुरुष करते हैं। ध्यान में है कि जवाहरलाल नेहरू ने ‘भारत की खोज’ में इस संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण इशारा किया है  — केवल एक ही रास्ता है। साहस और गरिमा के साथ कार्य करना और जीवन को सार्थक बनानेवाले आदर्शों के प्रति निष्ठा और प्रतिबद्धता बनाये रखना। लेकिन इसे उन्होंने राजनेता के काम करने का तरीका नहीं माना।

सभ्यता, राजनीति और संस्कृति आदि पर काम करनेवालों के सामने एक समस्या आती है — सातत्य और परिवर्तन के पारस्परिक संबंधों की आंतरिक और बाहरी गतिमयता को ठीक-ठीक समझने का। दिक्कत यह है कि प्रसंग भिन्नता की स्थिति में इनके संबंधों का मूल्य-बोध कभी-कभी तात्त्विक रूप से भी बदल जाता है। आजादी के आंदोलन के दौरान भारतीय और गैर-भारतीय मनीषियों ने भारत को समझने के लिए बहुआयामी प्रयास किया था। आज कल के चुनावी कार्य में अस्त-व्यस्त राजनीतिक नेताओं में अधिकतर को इसे समझने का न हुनर है, न चिंता।

राम धारी सिंह दिनकर की एक प्रसिद्ध पुस्तक है — संस्कृति के चार अध्याय। डिस्कवरी ऑफ इंडिया के लेखक जवाहरलाल नेहरू ने इस पुस्तक की प्रस्तावना लिखी है। प्रस्तावना भारत को समझने के लिए एक गंभीर पाठ है, पढ़िये उसका एक अंश साभार —

“भारत के समग्र इतिहास में हम दो परस्पर-विरोधी और प्रतिद्वंद्वी शक्तियों को काम करते देखते हैं। एक तो वह शक्ति है, जो बाहरी उपकरणों को पचाकर समन्वय और सामंजस्य पैदा करने की कोशिश करती है, और दूसरी वह, जो विभाजन को प्रोत्साहन देती है; जो एक बात को दूसरी से अलग करने की प्रवृत्ति को बढ़ाती है। इसी समस्या का, एक भिन्न प्रसंग में, हम आज भी मुकाबला कर रहे हैं। आज भी कितनी ही बलिष्ठ शक्तियाँ हैं, जो केवल राजनैतिक ही नहीं, सांस्कृतिक एकता के लिए भी प्रयास कर रही हैं। लेकिन, ऐसी ताकतें भी हैं, जो जीवन में विच्छेद डालती हैं, जो मनुष्य–मनुष्य के बीच भेद–भाव को बढ़ावा देती हैं। …. और यदि भारत को हम नहीं समझ सके तो हमारे भाव, विचार और काम, सब-के-सब अधूरे रह जाएँगे और हम देश की ऐसी कोई सेवा नहीं कर सकेंगे, जो ठोस और प्रभावपूर्ण हो।”

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