पृष्ठ

रोजी-रोजगार विमुख लाभार्थी योजना कल्याणकारी नहीं है, न सेंगोल ही संवैधानिक न्याय का प्रतीक है

रोजी-रोजगार विमुख लाभार्थी योजना कल्याणकारी नहीं है, न सेंगोल ही संवैधानिक न्याय का प्रतीक है

सत्रहवीं लोक सभा का अवसान हो चुका है। याद करें तो, जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाई जा चुकी है, उसकी राजनीतिक हैसियत भी ठीक कर दी गई है। राम मंदिर में भगवान राम की प्राण-प्रतिष्ठा का भव्य-दिव्य आयोजन हो चुका है। उपलब्धियों और कीर्तिमानों के अंबार को इतिहास के हवाले कर दिया गया है। सेंगोल को भी यथा-स्थान किया जा चुका है। नये कीर्तिमानों के लिए अगले भव्य-दिव्य आयोजनों की तैयारी चल रही है। इसी सत्रहवीं लोक सभा में 105 के मुकाबले 125 मतों से 11 दिसंबर 2019 को पारित और 12 दिसंबर 2019 को भारत के राष्ट्रपति के द्वारा हस्ताक्षरित नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2019 और नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (NRC) के साथ समान नागरिक संहिता (UCC) के लागू होने के आसार साफ-साफ दिख रहे हैं। दिमाग में कोई जाला हो तो उसके सारे ‘कन्फ्यूजनों’ को दूर हो जाना चाहिए। पता नहीं कौन-कौन और क्या-क्या दूर होगा, समीप होगा। आम नागरिकों को चाहिए कि लाभार्थी-योजकताओं और कल्याणकारी राज्य-व्यवस्था के अंतर को समझने के लिए अपने ‘कन्फ्यूजनों’ को दूर करने की कोशिश करे।

 

कल्याणकारी राज्य-व्यवस्था संस्थाओं और सरकारी विभागों के बेहतर संबंधों की पारस्परिकताओं को समन्वित और सक्रिय करने की कोशिश में रात-दिन लगी रहती है। कल्याणकारी राज्य-व्यवस्था नागरिकों की नैतिक दृढ़ता, आर्थिक समृद्धि, सामाजिक शांति और सहकारी बंधुत्व को बढ़ाने और बनाये रखने में दिलचस्पी लेती है तथा इसके लिए सतत उद्यमशील बनी रहती है। इसके लिए वह तरह-तरह के उत्सवों का सार्वजनिक आयोजन करती रहती है। आम नागरिकों को भी अपनी उद्यमशीलता और ऐसे आयोजनों से जोड़ती है। जरूरत के अनुसार कल्याणकारी राज्य-व्यवस्था ज्वलंत, जीवंत एवं उपयुक्त विषयों पर चर्चा के लिए विभिन्न स्तरों पर डिबेट, सेमिनार, सम्मेलनों के आयोजनों में सम्यक आलोचना का वातावरण बनाती है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गुणवत्ता और सभी अर्थों में एवं स्तरों पर उत्कृष्ट सहिष्णुता को बहाल रखती है। कल्याणकारी राज्य-व्यवस्था के संचालक ‘अपने सरकार’ होने के दंभ के दबाव से आम नागरिकों को मुक्त रखते हैं। कल्याणकारी राज्य-व्यवस्था लोगों के मन में ‘सरकार के अपनी’ होने का एहसास कराती है, विश्वास दिलाती है। नागरिकों के मन में आत्म-सम्मान का बोध कराती और स्वाभिमान के सुख का अवसर देती है। आज के सर्विलांसी युग (Age of Surveillance) में नागरिक आकांक्षाओं को स्पष्ट ढंग से न सिर्फ पढ़ती रहती है, बल्कि अपनी नीतियों को तैयार करते समय उनका खयाल भी रखती है। कल्याणकारी राज्य-व्यवस्था की प्राथमिकताएँ एवं प्रतिबद्धताएँ बेहतर रोजगार की सम्यक एवं संतुलित उपलब्धता में अभिव्यक्त होती है। यह सब बहुत आसान नहीं होता है। संसाधनों की कमी एक बड़ी चुनौती होती है। संसाधनों की कमी को पारदर्शी न्याय, संतोषजनक संतुलन, व्यवस्था की स्पष्ट नीति, सकारात्मक नीयत के प्रति भरोसा और नेतृत्व के प्रति आस्था के माध्यम से दूर किया जा सकता है, कम-से-कम भावनात्मक स्तर पर तो निश्चित ही।

कल्याणकारी राज्य-व्यवस्था नागरिक आकांक्षाओं को ठीक से समझने के लिए इन्हें कई छोटे-छोटे उपवर्गों या विभिन्न संवर्गों में रखकर, बाँटकर नहीं, अपनी नीतियों की अनुकूलता एवं नियमन के लिए सतत विचारशील रहती है। अधिक का तो नहीं, हाँ कुछ संवर्गों का उल्लेख किया जा सकता है। पहला और सब से बड़ा एवं संवेदनशील संवर्ग है महिलाओं का। कल्याणकारी राज्य-व्यवस्था महिलाओं की विशिष्ट जरूरतों का ध्यान अलग से रखती है। खासकर सामान्य स्वास्थ्य के खतरों, दैहिक सुरक्षा की चुनौतियों, कार्य-स्थलों पर अनैतिक प्रस्तावों, अवांछित दबावों और उनके आस-पास मँडराते दुर्भावनापूर्ण भिनभिनाहटों एवं आपराधिक आहटों से बचाव के प्रति अधिक सावधान रहती है।

दूसरा बड़ा और महत्त्वपूर्ण संवर्ग है बेरोजगारों का। बे-रोजगार लोगों में स्त्री-पुरुष दोनों संवर्गों के अधिकतर युवा होते हैं। यही वह उम्र है जब उम्मीदों का आकाश रंगीन होता है। इस रंगीन आकाश में महत्वाकांक्षाओं के पंछी बेखौफ उड़ान भरते रहते हैं। भविष्य की योजनाओं की ‘चिनारी चिनगारियाँ’ निकलती रहती है। ‘चिनारी चिनगारियों’ की भाषा के व्याकरण को ठीक से न समझे जाने पर रण ठन जाता है। चिनगारियों के शोलों में बदलते देर नहीं लगती है। इन शोलों को भड़काऊ राजनीति हवा देती रहती है। ऊपर से, चारों तरफ पसरे उपभोक्ता मिजाज और बाजार का भाव, ऐसा कि कलेजा धक्क!

मानसिक खालीपन उनकी व्यक्तिगत योग्यताओं, उत्पादक क्षमताओं और नैतिक उत्कृष्टताओं को न सिर्फ तोड़कर रख देती है, बल्कि उन्हें  अनुत्पादक नकारात्मकताओं और साइबरलोफिंग (Cyberloafing) की तरफ धकेल देती है। साइबरलोफिंग की प्रवृत्ति कर्मचारियों की उत्पादक क्षमता को ही क्षतिग्रस्त नहीं करती है, बल्कि छात्रों की अध्ययन क्षमताओं को अवरुद्ध और बेरोजगारों के मानसिक संतुलन एवं संयम को भी ध्वस्त कर देती है। अनियंत्रित साइबरलोफिंग से अंततः राज्य-व्यवस्था अराजक और समाज उपद्रव-ग्रस्त हो जाता है। कल्याणकारी राज्य-व्यवस्था के सारे मंसूबों पर पानी फिर जाता है। मुश्किल यह है कि बदनीयती के कारण अक्सर साइबरलोफिंग को नियंत्रित करने के नाम पर, मौलिक अधिकार जैसे जरूरी साइबर अधिकार पर ही रोक लगाने का उपाय किया जाने लगता है। इसलिए हर हाल में बदनीयती, यदि कोई हो तो, उस से बाज आकर सम्यक, संतुलित और गुणवत्तापूर्ण रोजगार की व्यवस्था और उसके प्रति भरोसा को बहाल रखना कल्याणकारी राज्य-व्यवस्था की सबसे बड़ी चुनौती होती है।

शिशुओं और बच्चों का एक बहुत बड़ा संवर्ग है। हजारों विज्ञापनों का सिलसिला उनके चारों तरफ रेंगता रहता है। कीमतों की बात छोड़ भी दें, एक क्षण के लिए, विज्ञापित वस्तुएँ एक दूसरे के नकली विकल्प या कम-से-कम निष्प्रयोज्य वस्तुओं का प्रलुब्धक संसार रचती हैं। अभिभावकों के लिए इन में से अधिकतर वस्तुओं को हासिल करना या सुलभ करवाना मुश्किल होता है। आज भारत के अंदर रोजगार में लगे लोगों की आय, खपत और बचत में एक साथ आ रही गिरावटों से उत्पन्न असंतुलन की तरफ ध्यान जाने से कलेजा दहल जायेगा। अर्जक आबादी पर ही बहुत बड़ी अनअर्जक आबादी, यानी बूढ़े माँ-बाप, कमाई करने के काबिल न हुए बाल-बच्चे, बेरोजगार भाई-बहन, सगे-संबंधी की बहुत बड़ी आबादी का बोझ लदा हुआ रहता है।

इस वातावरण और पारिस्थितिक असंतुलन के माहौल में, अपवादों से माफी माँगते हुए, कहा जा सकता है कि हर आदमी अतृप्त आत्मा और दमित वासना का आसान आखेट बनकर रह गया है। अदृश्य अहेरियों और बहेलियों की मुट्ठियों में मुस्कुराहट कैद होगी, कौन जाने! दुनिया को मुट्ठी में कर लेने के पवित्र संकल्प ने तो बहुत पहले ही हवा में सनसनाहट भर दी थी। क्या किसी का दिल हवा की इस सनसनाहट से नहीं थर्राया! किसी का नहीं? कल्याणकारी राज्य-व्यवस्था के लोकतांत्रिक संचालकों का यह प्राथमिक दायित्व एवं प्रतिबद्धता है कि अदृश्य अहेरियों और बहेलियों की मुट्ठियों को पहचाने और उन्हें खोलकर लोक को मुस्कुराहट लौटाने की व्यवस्था करे! क्या यह संभव है? संभावनाओं की क्या कहा जाये, जब जिन से है उम्मीद वही अहेरियों और बहेलियों के बगलगीर बने मुसकुरा रहे हैं!

 

कल्याणकारी राज्य-व्यवस्था से उम्मीद की जाती है कि अवसर की समानता,  शुद्ध राष्ट्रीय आय के समदृष्टि से संतुलनकारी आनुपातिक वितरण, आम नागरिकों और राज्य-व्यवस्था की पारस्परिकता में सार्वजनिक जिम्मेदारी के निभाव का वातावरण बनाने की कोशिश करे। सापेक्षतः न्यूनतम मानवीय जीवनयापन करने में अक्षम लोगों के लिए जरूरी सुलभता (Accessibility)  का इंतजाम करे।      

कल्याणकारी राज्य-व्यवस्था से आम नागरिकों की लोकतांत्रिक माँगों और जरूरतों को लोकलुभावन राजनीति धूर्त नजरिये से देखती है। लोकतांत्रिक माँगों और जरूरतों का चुनावी इस्तेमाल करती है। सत्ता दखल के लिए तिकड़मी तौर-तरीका अपनाती है। एक तरीका लाभार्थी योजना का कार्यान्वयन है। लाभार्थी योजना अपने चरित्र में किसी भी तरह से लोक-कल्याणकारी योजना का एवजी नहीं हो सकता। क्यों? कुछ कारणों पर गौर किया जा सकता है।

लाभार्थी योजना आम नागरिकों का क्षमता विकास नहीं करती है। लोक-कल्याणकारी योजना क्षमता विकास के लिए आप्राण चेष्टा करती है। लाभार्थी योजना में आत्म-सम्मान और आत्माभिमान की रक्षा का कोई भाव नहीं होता है। लोक-कल्याणकारी योजना आम नागरिकों के मन में आत्म-सम्मान और आत्माभिमान की रक्षा करती है। लाभार्थी योजना की लागत लाभग्राही आबादी को आर्थिक संरचना से जोड़ने का काम नहीं करती है। लोक-कल्याणकारी योजना की लागत लक्षित-आबादी को किसी-न-किसी स्तर पर आर्थिक संरचना से जरूर जोड़ती है। भारत में मुफ्त पाँच किलो राशन लाभार्थी योजना का हिस्सा है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार अधिनियम (MNREGA) लोक-कल्याणकारी योजना का अंग है। सामान्यतः लाभार्थी योजना कोई आधिकारिकता (Entitlement) नहीं देती है, सरकार की यादृच्छिकता और कृपा पर पूर्ण आश्रित होती है। लोक-कल्याणकारी योजना सरकारी आदेशों पर नहीं, संसद द्वारा पारित और राष्ट्रपति द्वारा आदेशित अधिनियमों से चलती है और आधिकारिकता प्रदान करती है। लाभार्थी योजना का लाभ लक्षित-आबादी के पास किसी एक संदर्भ या प्रयोजन के लिए दूब-धान की तरह, आशीर्वाद और कृपा का प्रसाद बनकर पहुँचती है — लोक जानता है, प्रसाद पेट भरने के लिए नहीं, मन भरने के भाव से जुड़ा होता है।

लोक-कल्याणकारी योजना में लक्षित-आबादी को जो मिलता है वह किसी की कृपा या आशीर्वाद से नहीं बल्कि उसकी कमाई और आधिकारिकता से हासिल होता है, बहु-प्रयोजनीयता के लिए खुला रहता है। लाभार्थी योजना आज्ञापालक प्रजा बनाये जाने की पटकथा लिखती है। लोक-कल्याणकारी योजना अधिकार संपन्न नागरिक चेतना के क्रियान्वयन से नागरिक होने के बोध को सक्रिय होने का अवसर देती है। यही कारण है कि नागरिकों को आज्ञापालक प्रजा बनाने की पवित्र इच्छा और कृपा-प्रसारी मंसूबों से भर-पूर सरकार और सतरु (सत्ता-रूढ़ दल) लाभार्थी योजना का ढोल-ढाक जोर-शोर से पीटती है। जबकि, लोक-कल्याणकारी योजना को बोझ समझ कंजूस रवैया अपनाती है।

लाभार्थी योजना सामान्यतः शिक्षा, स्वास्थ्य आदि बुनियादी व्यवस्था को सार्वजनिक क्षेत्र में सहज सुलभ और सुचारु रखने के किसी सकारात्मक प्रयास से दूर ही रहती है। लोकलुभावन राजनीति की लाभार्थी योजना शिक्षण-संस्थानों और अस्पतालों को व्यय-साध्य और पैसेवालों की कमाई को जरिया बन जाने देती है। लोक-कल्याणकारी योजना शिक्षा, स्वास्थ्य आदि बुनियादी व्यवस्था को किफायती और सार्वजनिक क्षेत्र में बनाये रखने की कोशिश करती है। लोकलुभावन राजनीति के माहौल में बढ़ी दर पर निजी कंपनियों का बीमा धंधा तरह-तरह से फलता-फूलता रहता है। लोक-कल्याणकारी योजना किफायती दर पर बीमा सेवा की सुविधा सार्वजनिक क्षेत्र में चलाती है।

लोकलुभावन राजनीति अपनी अर्थनीति में साँठ-गाँठ (CRONY CAPATALISM) को प्रश्रय देती है। एकाधिकारवाद (MONOPOLY) को हर तरीके से बढ़ावा देती है। पूँजी क्षेत्र की प्रतियोगिता को समाप्त करने में लगी रहती है। भारत में भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (Competition Commission of India) बहुत सक्रिय नहीं रह पाता है। लोकलुभावन राजनीति नाजायज तरीके से ‘इसके बदले वह’ (QUID PRO QUO) में लगी रहती है। लोक-कल्याणकारी राजनीति यथासंभव, अपनी अर्थनीति में साँठ-गाँठ (CRONY CAPATALISM) और बहुत हद तक ‘इसके बदले वह’ (QUID PRO QUO) से परहेज करती है। एकाधिकारवाद (MONOPOLY) को तोड़ने और स्वस्थ प्रतियोगिता को बढ़ावा देने का उद्यम करती है। भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (Competition Commission of India) की सक्रियता बनी रहती है।

कहने का आशय यह है कि लोकलुभावन राजनीति के दौर में नागरिक, कृपा पर आश्रित आज्ञापालक प्रजा बना दिया जाता है। जबकि लोक कल्याणकरी दौर में नागरिक को संविधान प्रदत्त अधिकार का इस्तेमाल करते हुए सिर उठाकर चलनेवाले नागरिक बने रहने की संभावनाएँ जागती रहती हैं। कोई अर्थशास्त्री अधिक बेहतर तरीके से साफ-साफ इन बातों पर नजर डाल सकता है, मैं ने तो बस चर्चा की है, ताकि लाभार्थी योजना के निहितार्थों की तरफ ध्यान जाये और नागरिक के सिर पर लदे ‘पाँच किलो की मोटरी’ की कृतज्ञता का मतलब, कुछ तो समझ में आये।           

साधारण आदमी करे तो, क्या करे! एक तो अज्ञानता का बोझ, ऊपर से ‘पाँच किलो की मोटरी’ की कृतज्ञता का बोझ। इधर संभाले कि उधर संभाले! वैसे, इधर-उधर की समझानेवाले को देहात में लोग चिढ़कर कह देते हैं — हम भी अनाज खाते हैं, घास नहीं। तात्पर्य कि वह अज्ञानी नहीं है, यह कहने  का भाव स्पष्ट हो जाता है। सच है कि अनाज खाने मात्र से कोई ज्ञानवान नहीं हो जाता है, फिर भी ऐसा कहा जाता है। मनुष्य के पास इतनी बुनियादी बुद्धि होती है कि वह इधर-उधर समझानेवालों की नीयत ताड़ ले।

बुनियादी बुद्धि मनुष्य होने के कारण उसे जन्म से ही प्राप्त वह मानसिक संकाय है जो आस-पास उपलब्ध और दृश्य वस्तुओं, स्थितियों आदि में अंतर को स्वतः पहचानकर दिमाग में दर्ज कर लेता है — इन में स्पर्श, आकर्षण, गंध, रंग और आकृति प्रमुख हैं। इस के साथ ही वह भाषिक रूपों और अभिव्यक्ति के तौर-तरीके में अंतर करना सीख लेता है। साथ-साथ संख्या और अंकों से उसका सामान्य परिचय हो जाता है। सूचनाओं को संसाधित एवं संयोजित करना भी सीख लेता है। यह सब पारिवारिक सामाजिक परिसर और परिवेश में अनुकरण की सहज प्रवृत्ति से सीख लेता है।

मनुष्य को विभिन्न विभेदकताओं को समझने-सीखने के लिए किसी औपचारिक प्रशिक्षण की जरूरत नहीं होती है। बाद में जीवन में जैसा सुयोग मिलता जाता है मनुष्य इसी संकाय के बल पर सीखता चलता है। शिक्षण-प्रशिक्षण में भी इसी बुनियादी संकाय का कमाल काम करता है। जो व्यक्ति यह काम दूसरों की तुलना में कम समय में कर लेता है, वह तेज दिमाग माना जाता है।

भाषा एवं भाषिक व्यवहार बहुत ही सूक्ष्म और संवेदनशील मामला होता है। भारत जैसा बहुभाषी समाज जब किसी अन्य उच्चतर और औपनिवेशिक शक्ति की भाषा के संपर्क में आता है तो भाषा और शब्दों की सूक्ष्म विभेदकताओं को सामान्य रूप से कामचलाऊ स्तर पर सीख तो लेता है, लेकिन उसकी सूक्ष्मताओं और उसकी संवेदनशीलता की गहराई को समझने-सीखने के लिए सदैव तत्पर हुए बिना भी उसका काम चलता रहता है। इस तरह से उथले ज्ञान और विभिन्न भाषिक अभिव्यक्तियों के अनुकरण, अनुवाद और अनुवचन से उपनिवेशित समाज के व्यक्ति अपना काम चलाता रहता है। भाषा व्यवहार का मामला इतना गंभीर और प्रभावी है कि अभी भारत के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, डी वाई चंद्रचूड़ ने ऐतिहासिक अन्याय में सुधार के लिए रूढ़िवादिता से बचने और समावेशी भाषा के महत्त्व की बात कही है।      

सब कुशल मंगल होने की सूचना, कह लें खैर-खबर, के साथ लोगों के कुशल मंगल की कामना के साथ कोई वस्तु दी जाती है तो उन वस्तुओं को खैरात कहा जाता है। समाज में कुछ लोग बिना वस्तु के भी सहज भाव से आस-पास के लोगों की खैर-खबर लेते रहते हैं। ऐसे सामान्य लोगों को हलके उलाहना के साथ लोग खैराती चाचा, खैराती बुआ आदि कहकर संबोधित करते रहते हैं। किसी मुसीबत और आफत से मुक्ति को राहत कहते हैं।

विषमता विष है। भारत जैसे चरम विषमता से पीड़ित  देश में सामाजिक संतुलन बनाये रखने के लिए हर कदम पर सरकारी सहयोग और संवर्धन की जरूरत होती है। 2014 के पहले, बाजार दर से काफी कम कीमत पर जन वितरण प्रणाली (PDS) काम कर रही थी। अंत्योदय योजना, अन्नपूर्णा योजना आदि भी काम कर रही थी। कुपोषण से बचाव के लिए निश्चित मात्रा, गुणवत्ता और पौष्टिकता का ध्यान रखते हुए 2013 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA-2013) लागू किया गया।

कोविड-2019 और तालाबंदी पूरी दुनिया में स्वास्थ्य और कारोबार के लिए आफत बनकर आई। कल्याणकारी राज्य-व्यवस्था के अंतर्गत भारत सरकार ने उचित ही उस समय खाद्य संकट से उबरने में राहत के लिए सराहनीय कदम उठाया। राहत की दृष्टि से बहुत बड़ी आबादी को मुफ्त अनाज उपलब्ध करवाना सचमुच एक बड़ी चुनौती थी। इस बीच राजनीतिक धूर्तता और  तिकड़म, जिसे रणनीति कहा जा रहा है, के बल पर राहत को खैरात में बदलकर लोक-कल्याणकारी योजना के शुभ को लाभार्थी योजना के लोभ-लाभ से बदल दिया गया! डगमग-डगमग शुभ, फिसलकर इधर नीचे फासले पर जा गिरा; उधर जग-मग करता लोभ-लाभ उचककर ऊपर जा बैठा। कहने की जरूरत नहीं है कि रोजी-रोजगार विमुख लाभार्थी योजना कल्याणकारी नहीं है, न सेंगोल ही न्याय का प्रतीक है।

  

धूर्त तिकड़म को ‘राजनीतिक रणनीति’ बनाकर लाभार्थी-योजना की ‘शाही सवारी’ चल निकली!  लोकतंत्र की मुश्किल यह है कि चुनावी लाभ के लिए राजनीतिक ताम-झाम के साथ ‘न भूतो, न भविष्यति’ की तर्ज पर जबरदस्त ढोल-ढाक पीटना शुरू हो गया। ‘न भूतो, न भविष्यति’ के पहले के कथन, ‘एको अहं, द्वितीयो नास्ति’ को उनके निर्विकल्प होने का प्रमाण बनाकर पेश किया जाने लगा — एक अकेला, सब पर भारी!

लोकलुभावन राजनीति के दौर में, इस राजनीतिक प्रपंच और वोटाकर्षी कपट को मुख्य-धारा की अनुकूलित मीडिया तमाम तरह की असत्यताओं और झूठ के सहारे बढ़ा-चढ़ाकर इस कायदे से प्रचारित-प्रसारित करता रहा कि बहुत बड़ी आबादी ‘एको अहंसे मुग्ध और सम्मोहित होकर अन्य के निषेध, द्वितीयो नास्ति’ की राजनीतिक यात्रा पर पेट डेंगाते निकल पड़ी — मोदी नहीं, तो कौन; कोई नहीं! इस माहौल में राहुल गांधी के नेतृत्व में भारत जोड़ो न्याय यात्रा में ‘यात्रा-पथ’ पर लगभग सभी जगह भारी जनजुटाव से सामान्य लोग अचंभित और सतरु (सत्ता-रूढ़ दल) के अनुगामी उत्तेजित हो रहे हैं!!  

कहने की जरूरत नहीं है कि हमारे जीवन को कुत्सित स्वार्थ ने घेर लिया है, किसी के जलते हुए घर में हाथ सेंकना तो कोई हम से सीखे! प्रकृति और किसान दोनों परेशान हैं। प्रकृति अपनी परेशानी अलग ढंग से अभिव्यक्त करती है, आंदोलन नहीं करती। बहरहाल, किसान आंदोलन पर हैं, नतीजा क्या होगा? क्या पता! नतीजों का इंतजार करते हुए, पढ़िये प्रेमचंद के अमर उपन्यास “गोदान” का एक अनुच्छेद, साभार —

“किसान पक्का स्वार्थी होता है, इसमें संदेह नहीं। उसकी गाँठ से रिश्वत के पैसे बड़ी मुश्किल से निकलते हैं, भाव-ताव में भी वह चौकस होता है, ब्याज की एक-एक पाई छुड़ाने के लिए वह महाजन की घंटों चिरौरी करता है, जब तक पक्का विश्वास न हो जाय, वह किसी के फुसलाने में नहीं आता, लेकिन उसका संपूर्ण जीवन प्रकृति से स्थायी सहयोग है।‌ वृक्षों  में फल लगते हैं, उन्हें जनता खाती है, खेती में अनाज होता है, वह संसार के काम आता है; गाय के थन में दूध होता है, वह खुद पीने नहीं जाती, दूसरे ही पीते हैं, मेघों से वर्षा होती है, उससे पृथ्वी तृप्त होती है। ऐसी संगति में कुत्सित स्वार्थ के लिए कहाँ स्थान? होरी किसान था और किसी के जलते हुए घर में हाथ सेंकना उसने सीखा ही न था।”

 

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)   

 

     

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें