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सामाजिक न्याय के सामग्रिक तात्पर्य का आम चुनाव में खास महत्त्व

सामाजिक न्याय के सामग्रिक तात्पर्य का आम चुनाव में खास महत्त्व

सामने है — 2024 का आम चुनाव। चुनावी माहौल में चल रही है भारत जोड़ो न्याय यात्रा। अचरज की बात है, देखते-देखते बेखौफ बुलडोजर न्याय का उल्लसित  प्रतीक बनता चला गया! वह दिन दूर नहीं जब, गोली-बंदूक न्याय का प्रतीक बन जायेगा! चुनावी साल में भी, भारत के नक्शे पर क्या महान दृश्य चल रहा है!  एक तरफ राहुल गांधी के नेतृत्व में मणिपुर से प्रारंभ भारत जोड़ो न्याय यात्रा चल रही है तो, दूसरी तरफ उत्तराखंड में ‘बुलडोजर न्याय’ चल रहा है, किसानों को संवैधानिक न्याय मिलना तो दूर की बात है, मुलाकात और  मुकाबला ‘पुलिसिया न्याय’ से हो रहा है। मणिपुर! मणिपुर भारत व्यवहार का ऐसा प्रतीक बन गया है, जिस के लिए कोई उपयुक्त नाम नहीं सूझ रहा, बस मणिपुर कहना ही काफी हो गया है।

 

भारत के लोगों की नजर 2024 के आम चुनाव के संभावित नतीजों के पास घूम रही है। संस्कृति के राजनीतिकरण, फिर राजनीति के कॉर्पोरेटरीकरण और बुद्धिमत्ता के यांत्रिकीकरण के दौर में  महत्त्वपूर्ण यह है कि पूरी दुनिया भी अपनी नजर से भारत के लोकतंत्र के नव पाठ को पढ़ने की कोशिश कर रही होगी। संचार और संपर्क की तीव्रता के साथ व्यापारिक सुविधा और मुनाफा के लाभ-लोभ ने पूरी दुनिया को बेहद करीब ला दिया है। किसी भी देश की आंतरिक स्थिति का अन्य देशों के हितों पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता है। इस अर्थ में दुनिया बेहद करीब आ गई है। जाहिर है, आज दुनिया के अन्य देश भारत में गरीब और मुफलिस लोगों के लोकतंत्र के विकासमान स्वरूपों को अपने-अपने हित-अनहित की नजर से देख ही रहे होंगे।

भारत की राज्य-व्यवस्था में एक खासियत यह तो, है कि यहाँ अब तक लगभग सभी चुनाव समय-बद्ध तरीके से होते रहे हैं। चुनावों के समय-बद्ध ढंग से होने को लोकतंत्र के होने का प्रमाण माना जाता है। यह सच है कि लोकतंत्र में चुनावों के होते रहने का महत्त्व है। लेकिन, एक क्षण के लिए यह नहीं भुलाया जा सकता है कि चुनाव लोकतंत्र को हासिल करने का साधन है, साध्य नहीं। भारत में महात्मा गांधी ने साध्य के हासिल करने या हो जाने को अपने-आप में पर्याप्त और संतोषजनक नहीं माना। उन्होंने साध्य की हितकारिता को साधन की पवित्रता से विच्छिन्न होने को कभी मंजूरी नहीं दी।

गांधी विचार के अनिवार्य सकारात्मक तत्त्व को भी अव्यावहारिक बताकर भारत की राजनीति से बाहर ही रखा गया। कोई भले ही इस बात से इनकार करे, लेकिन अंततः यह कड़वा सच तो, मानना ही पड़ेगा कि गांधी विचार की राजनीति को जीतनी व्यावहारिक स्वीकृति अंग्रेजी व्यवस्था में मिली, उतनी स्वीकृति  आजाद भारत में नहीं मिली। इसका मतलब यह भी हो सकता है कि गांधी विचार का छुपा हुआ अंश भी राजनीतिक दल की ‘राजनीति’ को अप्रासंगिक बना देता है। आखिर, ऐसा क्यों? इसका जवाब पाना मुश्किल है, लेकिन अनुमान लगाने की कोशिश की जा सकती है।

महात्मा गांधी के राजनीतिक औजार के तीन सूत्र थे — असहयोग, अवज्ञा और सत्याग्रह। महात्मा गांधी के महत्त्वपूर्ण सूत्र शब्दों को याद किया जा सकता है — सभ्यता, संस्कृति, सदबुद्धि, सद्भावना, सादगी, संयम, समता, वंशानुगत उद्यम, शारीरिक श्रम, सम्यक संवितरण, स्वशासन, कुटीर उद्योग। सत्याग्रह तो, उनकी हत्या का तात्कालिक कारण ही बन गया। असल में गांधी विचार राजनीतिक लोकतंत्र में नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के सन्निवेश का आग्रही प्रस्ताव है। सरकार की कड़ी व्यवस्था में असहयोग, अवज्ञा के प्रति राजकीय सम्मान की मर्यादित स्थिति तो जगजाहिर है। सादगी! अहा, सादगी के तो कहने ही क्या!

सभ्यता और संस्कृति पर विचार करें तो, पता चलता है कि सतत गतिमयता में इनके प्राण बसते हैं। सभ्यता भौतिक और जीवनयापन की जरूरतों के कारण वैज्ञानिक विकास के साथ आगे बढ़ती रहती है। सभ्यता की गति-मति वैज्ञानिक विकास से सहबद्ध होने के कारण आगे की ओर होती है। सभ्यता में जड़ता के तत्त्व कम या न के बराबर होते हैं। मनुष्य के परिवर्तन भीरु स्वभाव के थोड़े-बहुत असर के कारण सभ्यता में भी थोड़ी-सी जड़ता की प्रवृत्ति से इनकार नहीं किया जा सकता है। मनुष्य के स्वभाव की परिवर्तन भीरुता के स्रोत की खोज करने पर इसका कोई-न-कोई स्रोत ऐतिहासिक परिस्थितियों में मिल जायेगा। एक अर्थ में देखें तो, संस्कृति के गठन में भय और भय  के निवारण का कोई-न-कोई आंतरिक तत्त्व जरूर मिल जायेगा। इस अर्थ में सभ्यता, संस्कृति के आंतरिक भय निवारक तत्त्वों का बाहरी और वैज्ञानिक उद्घोष है। सभ्यता और संस्कृति को समझने के लिए मनुष्य के मन में उपस्थित इस भय तत्त्व को समझना जरूरी है। संस्कृति में ठहराव की प्रवृत्ति अधिक होती है। इस ठहराव से सभ्यता में भी एक किस्म की जड़ता बनी रहती है। संस्कृति में जड़ता के बने रहने का सर्वाधिक लाभ पुरोहित वर्ग और संस्कृति की राजनीति करनेवालों को मिलता है। इसलिए पुरोहित और संस्कृति की राजनीति करनेवाले लोग मनुष्य को डर से निकलने के रास्ते पर तरह-तरह के अवरोध खड़े करते रहते हैं।

भारत में अन्य डरों के अलावा डर का एक बना-बनाया  प्रसंग है — हिंदु मुसलमान। हिंदुओं के मन में मुसलमानों का डर और मुसलमानों के मन में हिंदुओं का डर। इस घनीभूत डर के राजनीतिक उपयोग से ध्रुवीकरण को बढ़ाया जाता है। दोनों के बीच की सामाजिक दूरी को बढ़ाते-बढ़ाते अलगाव की हद तक ले जाने के औजार के रूप में सार्वजनिक तौर पर की जानेवाली ‘राजनीतिक बयानबाजी’ सामने आती है, जिसका चरम रूप ‘हेट स्पीच’ में दिखता है।

‘हेट स्पीच’ का हिंदु-मुसलमान के सार्वजनिक प्रसंग के अलावा एक आंतरिक प्रसंग भी है, जिस पर सहज ही ध्यान नहीं जाता है। एक ग्रामीण और एक शहरी प्रसंग का उल्लेख, अप्रासंगिक नहीं होगा। गाँवों में बसे ‘उच्च जाति’ के लोग तरह-तरह से अपने बच्चों और परिजनों को तथाकथित ‘नान्ह जात’ से दूर रहने का ‘हितोपदेश’ देते रहते हैं। शहरों में, खासकर ‘कॉलोनियों और सोसाइटियों’ में रहनेवाले अधिकतर शहरी भी, ‘कॉलोनियों और सोसाइटियों’ से बाहर रहनेवालों के संदर्भ में एक भिन्न तरह और तर्क से लेकिन इसी अंतर्वस्तु का ‘हितोपदेश’ अपने बच्चों और परिजनों को देते रहते हैं। यह ‘सामाजिक दूरी’ अपने चरित्र में करोना कालीन सामाजिक दूरी (Standard Operating Procedure) से बिल्कुल भिन्न प्रकृति का होता है और समाज के संक्रमित होते जाने का कारक है।

घृणा और प्रेम एक ही भावना के दो छोर हैं, जैसे प्रकाश और अंधकार; जैसे लगाव और अलगाव। घृणा और प्रेम की विभिन्न आनुपातिकता से समूह के अंदर भिन्न-भिन्न उपसमूह बनते रहते हैं। सबसे छोटे समूह की नकारात्मकता को गुटबाजी और बड़े समूह की नकारात्मकता को सांप्रदायिकता कहा जाता है, इनकी सकारात्मकता को सामाजिक प्रबंधन कहा जा सकता है। भारत के समकालीन राजनीतिक अध्याय में नकारात्मकता के कारण गुटबाजी और सांप्रदायिकता का बोलबाला बहुत बढ़ गया है। सामाजिक प्रबंधन के लिए नकारात्मकता को सकारात्मकता से विस्थापित किये जाने की जरूरत है; घृणा को प्रेम में बदले जाने की जरूरत है। सामाजिक प्रबंधन, सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने की पहली सीढ़ी है। दुहराव के जोखिम पर भी कहना जरूरी है कि डर के दायरे से बाहर निकलना सामाजिक न्याय की पहली जरूरत है।

सामाजिक न्याय के अन्य पहलू भी हैं। लोकतांत्रिक देश में न्याय का प्राथमिक और अंतिम आश्रय संवैधानिक न्याय ही हो सकता है। संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत संस्थागत न्याय के अंतःकरण और उसकी अनुकूलताओं में ही प्राकृतिक, ईश्वरीय जैसे न्याय के विविध रूपों सहित सामाजिक न्याय के मसलों का भी हल हो सकता है। संवैधानिक प्रावधानों के अनुपालन की शुचिता पर गौर करने से फिर साधन और साध्य की शुचिता का सवाल उठ खड़ा होता है। संवैधानिक प्रावधान अंततः साधन हैं, साध्य तो, न्याय है। साधन यांत्रिक होते हैं। साधनों के इस्तेमाल को यांत्रिकता से बचाने के लिए संवैधानिक न्याय में न्यायिक विवेक के लिए पर्याप्त जगह रख छोड़ी गई है। न्याय का उद्देश्य समाज में संतोष और संतुलन का वातावरण बनाये रखना होता है। नीति और नैतिकता से विच्छिन्न न्याय का सभी रूप समाज में पारिस्थितिक असंतुलन पैदा कर देता है। पारिस्थितिक संतुलन के प्रति लापरवाह भाव समाज को स्थायी रूप से उपद्रव-ग्रस्त बना देता है।

न्याय सुनिश्चित करने के लिए इतनी विशाल न्याय व्यवस्था भी नाकाफी है! औपचारिक न्याय व्यवस्था को न्याय पाने का अंतिम उपाय होना चाहिए। अनौपचारिक सामाजिक न्याय के इलाके में एक और संकट से ‘सामना’ होता है। भारत में इलाके का बड़ा साधु-संत नहीं, असामाजिक आचरणवाला व्यक्ति न्याय व्यवस्था का एवजी बन जाता है। व्यय-साध्य न्याय व्यवस्था तक पहुँचने में सक्षम ‘बड़े-बड़े’ लोग, स्वयं-सक्षम अधिकारीगण, राजनेता, व्यापारी, साधु-संत,  स्टार-सुपरस्टार, अभिनेता-अभिनेत्री जो कोई ‘मुसीबत’ में बेझिझक इनके शरणागत हुआ उसे न्याय रक्षा का आश्वासन अवश्य मिला!  बात महानगरों के न्याय-पुरुषों तक सीमित नहीं है। छोटे-छोटे शहरों कस्बों और गाँवों, जंगलों में भी ऐसे न्याय-पुरुषों का समानांतर साम्राज्य सक्रिय रहता है। संवैधानिक न्याय का अभाव, मगरमच्छ अन्याय या मत्स्य न्याय (बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है) के प्रति डर का मनोभाव मनुष्य को शरणागत होने की प्रेरणा बनता है, “सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।” महाभारत में वर्णित मत्स्य नगर का राजा विराट था। ‘मत्स्य नगर’ का राजा ‘विराट’  ही हो सकता है! ‘राजा’ जब विराट हो जाये तो देश को ‘मत्स्य नगर’ बनते क्या देर लगती है! ऐसे में राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा के सफल होने की प्रत्याशाएँ कितनी कठिन हैं, उस पर अलग से किसी ‘हितोपदेश’ की जरूरत नहीं है।

सदबुद्धि, सद्भावना, सादगी, संयम व्यक्ति के स्वशासन की संस्कृति से संबंधित हैं। आम नागरिकों के आचरण में, सदबुद्धि, सद्भावना, सादगी, संयम का होना ही लोकतंत्र में लोक की स्वाधीनता को सुनिश्चित कर सकता है। लोकतंत्र के ‘तांत्रिकों’, यानी लोकतंत्र के राजनीतिक कर्णधारों को अपने आचरण में सदबुद्धि, सद्भावना, सादगी, संयम का ध्यान रखना होता है। शारीरिक श्रम, सम्यक संवितरण, स्वशासन, कुटीर उद्योग इनके फलितार्थ हैं। इसी फलितार्थ से वह नैतिक आध्यात्मिक प्रसंग बनता है। विडंबना है कि राजनीतिक दलों में इस फलितार्थ की  न्यूनतम और प्रच्छन्न उपस्थिति भी उसे अप्रासंगिक बना देती है। महात्मा गांधी के ‘वंशानुगत उद्यम’ में वर्णवाद को अक्षुण्ण बनाये रखने का ‘वैचारिक कौशल’ है। इस ‘वैचारिक कौशल’ में सांस्कृतिक जड़ता का भयावह आग्रह है। महात्मा गांधी की नीयत पर संदेह किये बिना भी इसे सही मानने या मनवाने के किसी भी तर्क-कुतर्क से सहमत होना व्यावहारिक रूप से असंभव, सामाजिक रूप से अनुचित और संवैधानिक रूप से आपराधिक भी है। डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने तो उसी समय इसका जबरदस्त विरोध किया था।  

सामाजिक न्याय का रद्दी-से-रद्दी पाठ भी सदबुद्धि, सद्भावना, सादगी, संयम के बिना नहीं बन सकता है। भारत के संसदीय लोकतंत्र की राजनीति ने लोगों को ‘बड़ा’ बनने का ‘सुअवसर’ प्रदान किया है। पदानुक्रमिक समाज में ‘बड़ों का मन स्वभावतः वर्चस्वशील’ होता है।  सामाजिक न्याय ‘बड़ों के वर्चस्वशील मन’ को विपन्न बनाता है। इसलिए ‘बड़ों का मन’ सामाजिक न्याय के साथ खड़ा क्या होगा, खुद शंकाओं से घिरा रहता है। अपवादों के सम्मान में कुछ जगह छोड़ भी दें तो भी, सामान्यतः ‘बड़ों’ का मन सामाजिक न्याय के मानवाधिकार को नकारने में तकनीकी असुविधा के कारण, अपनी जबरदस्ती में, ‘वामपंथी गंध’ सूंघकर विचलन और मिचलन का शिकार हो जाता है।    

विपक्षी गठबंधन के बिखराव में पड़ने के कम-से-कम एक कारण की गंध, इस नाहक ‘वामपंथी गंध’, में मिल सकती है। सत्ता पर काबिज रहने के लिए सरकारी संस्थाओं का, सत्ता के द्वारा, सत्ता के बेजा इस्तेमाल किये जाने की बात से, कोई ईमानदार आदमी इनकार नहीं कर सकता है। जिन नेताओं एवं उनके अनुषंगियों के पीछे वर्तमान सत्ता के द्वारा सत्ता का बेजा इस्तेमाल करते हुए संस्थाओं को हुलकाया जा रहा है,  उन्होंने कभी सत्ता में रहते हुए सत्ता के बेजा इस्तेमाल से, अकूत नाजायज धन बटोरा ही नहीं इसे भी कोई ईमानदार आदमी नहीं मानेगा। विपक्षी गठबंधन में शामिल होते समय ऐसे विपक्षी नेताओं को विश्वास रहा होगा, यह विशुद्ध अनुमान है, कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) या भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से बेदखल करने के बाद विपक्षी नेता न सिर्फ  दोष-सिद्धि से बचा लिये जायेंगे, बल्कि, आगे भी अपना खेल जारी रखने का सुयोग पा सकेंगे; अब यह विश्वास डगमगा गया लगता है। क्योंकि, यदि विपक्षी गठबंधन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को सत्ता से बेदखल कर भी देता है तो, उस स्थिति में अनिवार्य रूप से चलेगी कांग्रेस पार्टी की और उसके अथक नेता राहुल गांधी की।

 ‘आँख में खटकनेवाले जनजुटाव’ के उल्लास में भारत जोड़ो न्याय यात्रा में चल रहे कांग्रेस पार्टी के अथक यात्री राहुल गांधी के तेवर को भाँपते हुए दोष-सिद्धि से बचा लिये जाने और आगे भी अपना खेल जारी रखने का सुयोग मिल पाने के प्रति न सिर्फ विपक्षी गठबंधन के घटक दल के नेताओं के, बल्कि, कई ‘कांग्रेसजनों’ के मन में भी भारी संदेह पैदा हो जाने का अंदेशा है। यदि, ऐसा हुआ होगा तो विपक्षी गठबंधन से न सिर्फ घटक दलों के बल्कि, ‘कांग्रेसजनों’ के भी टूटने की कई घटनाएँ अभी सामने आयेंगी। इस तरह से टूटनेवाले घटक दल और नेताओं का साथ जनता का समर्थन आने का संदेह बना हुआ है। एक तरफ राजनीतिक दुविधा का जाल है, तो दूसरी तरफ उड़ान भरने का आकुल राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के पंख! बेरोजगारी का, महँगाई का, जो होगा, सो होगा। लोकतंत्र का जो होगा, सो होगा। सामाजिक न्याय का जो होगा, सो होगा। असल चिंता है, सीटों के बटवारा का क्या  होगा! इन सब से बेफिक्र राहुल गांधी चले जा रहे हैं! कांग्रेस पार्टी देखे जा रही है! रही बात जनता की तो, चुनावी समर में वह अपने तीन-तेरह का हिसाब जोड़ने में व्यस्त है!

 

ऐसी स्थिति में राहुल गांधी क्या करेंगे? जो करेंगे,  राहुल गांधी ही तय करेंगे, लेकिन रास्ते दो ही बचे हुए दिखाई देते हैं — एक रास्ता महात्मा गांधी का, दूसरा इंदिरा गांधी का। यदि, महात्मा गांधी के नैतिक आध्यात्मिक लोकतंत्र का छुटा हुआ रास्ता अपनाते हैं तो अकेले पड़ने के खतरे से घिरते जायेंगे, लेकिन अपनी वैचारिक उपस्थिति से प्रासंगिक बने रह सकते हैं। व्यावहारिक रूप से कितने प्रयोजनीय बने रहेंगे, कहना मुश्किल है। प्रयोजनीय बनने की शर्त होगी, बहुतायत में समर्पित और निष्पाप युवा (ऐसे युवा जिन में कम-से-कम ‘धन-पाप’ की प्रवृत्ति प्रबल न हो) का दृढ़ संकल्पित साथ।  ऐसे युवाओं का मिलना असंभव तो बिल्कुल नहीं है, संभव कितना है इतिहास इसकी प्रतीक्षा कर रहा है। ध्यान रहे, इस देश के युवाओं में बलिदान और त्याग की भावना की कभी कोई कमी नहीं रही है, कमी रही है तो उनकी पवित्र भावनाओं को सम्मान देनेवाले निष्कलुष  नेतृत्व की। यह कोई आसान रास्ता नहीं है।

 

यदि, इंदिरा गांधी का रास्ता अपनाते हैं तो फिर कांग्रेस (आई) की तरह कांग्रेस पार्टी के बचे हुए पुराने नेताओं के अभिभावकत्व से बाहर निकलना होगा। खुद मुख्तारी से कांग्रेस का चमत्कारिक काया-कल्प करते हुए संवैधानिक लोकतंत्र की प्राथमिकताओं एवं प्रतिबद्धताओं से लैस ‘नई कांग्रेस’ को खड़ा करना होगा। रास्ता तो यह भी आसान नहीं है। कठिन भूमि पर चलते हुए अपना निशान छोड़नेवालों को ही इतिहास जगह देता है। रौरव निकाय से बाहर निकलने के लिए इतिहास अपने त्रिपिटक के ‘मज्झिमनिकाय’ से कोई अभिनव और मुफीद रास्ता ही राहुल गांधी के लिए प्रस्तावित कर चुका हो, क्या पता!

जाहिर है, व्यावहारिक राजनीति में ‘गांधी’ का साथ किसी को नहीं चाहिए, चाणक्य का हाथ हर किसी को चाहिए। स्वाभाविक है, आज-कल चाणक्य की बात बहुत बढ़-चढ़कर की जाती है। शायद, प्रशंसा में ही किसी को चाणक्य कहा जाता होगा! चाणक्य होना कितना प्रशंसनीय है, यह अलग से परीक्षणीय है। चाणक्य की नीतियों में साध्य की हितकारिता के जितने भी तत्त्व हों, साधन कि शुचिता का महत्त्व तो, रत्ती भर भी नहीं है। प्रेम और युद्ध में सब जायज होता है। यह सच भी हो तो, भी एक बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि युद्ध से प्रेम कभी जायज नहीं हो सकता है। चुनाव को युद्ध में उत्क्रमित कर सक्रिय होनेवाले लोगों को याद रखना चाहिए कि चलने और बहने में अंतर होता है। समय के प्रवाह में मरा हुआ भी बहता जाता है। जीवन में समय के साथ, जरूरत पड़े तो समय के विरुद्ध भी, सिर्फ जिंदा ही चल सकता है।

जीवन में अच्छी बातों को योग-निष्ठा के साथ सायास टिकाये रखना पड़ता है। इस टिकाये रखने में सहिष्णुता की जरूरत होती है। अपने निजी स्वार्थ से टकराने की हिम्मत लगती है। ‘व्यक्तिगत विकास’ को त्यागकर अहिंसा के रास्ते पर आगे बढ़ते रहने का साहस साथ देता है। यह कायरों का रास्ता नहीं हो सकता है।  महात्मा गांधी कहते थे कि कायरता और हिंसा में से किसी एक को चुनना हो तो, वे कायरता को ही चुनना पसंद करेंगे। असल में कायरता और हिंसा एक ही प्रवृत्ति के दो रुख हैं। अहिंसा अच्छी बात है, इस पर टिके रहने के लिए अधिक प्रयास, अधिक हिम्मत, अधिक साहस की जरूरत होती है। यह बहुत बड़ा और दोहरा संकट है कि न साध्य में हितकारिता का तत्त्व बचा है, न साधन में ही पवित्रता का कोई बोध बचा है। साध्य में हितकारी तत्त्व की गहनता हो तो, फिर भी साधन की अपवित्रता के दूषण प्रभाव से कुछ हद तक बचा जा सकता है। मूल बात यह है कि सामाजिक न्याय का सवाल को गंभीरता और समग्रता से उठाने पर साधन और शुचिता के सवाल को थोड़ी देर के लिए भी टाला नहीं जा सकता है, हाँ जुमलों की बात और है। राजनीतिक सत्ता के ‘चुनावी युद्ध’ में साधन और शुचिता के सवाल का समुचित ख्याल रखा ही नहीं जा सकता है।

सामाजिक न्याय को जीवन के हर क्षेत्र में अवसर की समता के लिए समकारक (ईक्वलाइजर) के रूप में आनुपातिक आरक्षण की व्यवस्था, सत्ता में सहयोजी हिस्सेदारी और संपदा में सम्मानपूर्वक निर्बाध भागीदारी को चुनावी एजेंडा में शामिल करने की बात के महत्त्व पर आम नागरिकों का कितना ध्यान जाता है, कितना इस की बात करनेवालों पर विश्वास किया जाता है; कुल मिलाकर यह कि कितना मत किसे मिलता है, सारा दारोमदार इस पर टिका है।  

लोकतंत्र में चुनाव महज प्रक्रिया और सत्ता-अधिकार परिणाम नहीं है; लोकतंत्र में चुनाव साधन है और न्याय साध्य है। राहुल गांधी के नेतृत्व में चल रही भारत जोड़ो न्याय यात्रा जितनी भी भौगोलिक दूरी नापे, इस का महत्त्व इस बात में है कि यह इतिहास में कितनी दूरी नापती है — इतिहास की जमीन की नजर से देखा जाये तो यह दूरी बहुत लंबी है।

भारत जोड़ो न्याय यात्रा में चुनावी संभावनाएँ जैसी भी हों, इस में आंदोलन बन जाने के तत्त्व बहुत हैं।

जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में राजनीतिक आपातकाल विरोधी आंदोलन में राम धारी सिंह दिनकर की काव्य पंक्तियाँ आज भी कान में बजती हैं — राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो, कि जनता आती है। कोई माने, न माने, राहुल गांधी के सामाजिक न्याय के सामग्रिक तात्पर्य का आम चुनाव में खास महत्त्व है।

 

 

फिलहाल, रवींद्रनाथ टैगोर की “गीतांजलि” से एक कविता, ‘जहाँ कि मन निर्भीक हो’ (हिंदी अनुवाद : सुरेंद्र कुमार गंभीर), पढ़िये, साभार —

 

“जहाँ कि मन निर्भीक हो और सिर ऊँचा रहे

जहाँ पर कि ज्ञान स्वतंत्र हो

जहाँ पर कि संकीर्ण पारिवारिक

मतभेदों से संसार कई खंडों में टूट नहीं जाए

जहाँ पर कि भाव सच्चाई की

गहराई में से निकलें।

जहाँ पर कि कार्य में सतत लीन व्यक्ति,

निपुणता प्राप्त करने का प्रयत्न करता रहे।

 

जहाँ पर कि स्पष्ट विचारों की धारा

निर्जीव स्वभाव के नीरस मरुस्थल

की रेत में नहीं खो गई हो;

 

जहाँ पर कि तुम बुद्धि को आगे सतत

व्यापक विचारों और कार्यों की ओर ले जाते हो,

मेरे परमात्मा, ऐसी रमणीय स्वतंत्रता में,

मेरे देश का उदय हो।

 

 (प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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