आप की राय सदैव महत्त्वपूर्ण है और लेखक को बनाने में इसकी कारगर भूमिका है।
आप की राय सदैव महत्त्वपूर्ण है और लेखक को बनाने में इसकी कारगर भूमिका है।
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पूर्वग्रह संचालित समाज:क्या हम एक असंभव दौर से गुजर रहे हैं!
गुजर जाने के बाद
गुजर जाने के बाद
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गुजर जाने के बाद
अपने बचपन को याद करता हूँ,
जो अब सिर्फ यादों में बचा है
थोड़ा-थोड़ा
और जो अब लौटकर फिर नहीं
आनेवाला
पिता कभी-कभार बुदबुदाते हुए याद
आते हैं,
साँप गुजर गया और हम लकीर
पीटते रहे
साँप भी नहीं लौटता अपनी छोड़ी हुई लकीर पर
कटोरा समाने लहराते हुए किसी
फिल्म का गीत याद आता है
गुजरा हुआ जमाना आता नहीं
दुबारा, गजब की कशिश
कशिश मुहब्बत की भी, यौवन की भी
एक पल, एक दिन में कोई नहीं
गुजरता है, कुछ भी नहीं गुजरता है!
पता ही कहाँ चलता है कि कैसे
पल-पल हम सभी गुजर रहे होते हैं
गुजर रहे होते हैं, न लौटने,
कभी न लौटने की स्थिति सामने है और
हमें खबर ही नहीं कि गुजर रहे होते हम पल-प्रति-पल!
गुजर जाने के बाद सिर्फ गुजरे
हुए की याद लौटती है बार-बार लौटती है
गुजरा हुआ कभी किसी रूप में नहीं लौटता है, न उसके इशारे लौटते हैं
वक्त! वक्त ताकतवर होता है, ताकतवर तो कठोर होता ही है
फिर भी वक्त पर कोई आरोप नहीं लगाया जा सकता
माँ! माँ तो बहुत
ममतामय होती है, ममता तो होती ही है बहुत कोमल
गुजर जाने के बाद,
माँ की भी सिर्फ याद आती है,
माँ का कोई इशारा भी कहाँ आता है!
कोई इशारा नहीं आता माँ का!
गुजर जाने के बाद
अपने बचपन को याद करता हूँ।
और भी मनोरथ हैं, सुंदर सुखद जाल के इतर
सृजन के संगी
सृजन के संगी
परिवार में शिक्षा की नैसर्गिक आकांक्षा तो थी, लेकिन सायास सचेतनता नहीं थी। पैदल पहुंच में स्कूल (राजेंद्र उच्च विद्यालय, जारंगडीह) कॉलेज (कृष्णवल्श्वलभ महाविद्यालय, बेरमो) थे, सो लोकलाज के अदृश्य दबाव से बीए तक की शिक्षा कोलियरी के बातावरण में बीए तक की शिक्षा मिल गयी। असली चुनौती पीजी पार करने की थी। निजी और पारिवारिक कारणों से तत्काल रोजगार पहली जरूरत थी। राँची विश्वविद्यालय का छात्र था। अपने-अपने अध्ययन अहंग कैलास पर अवस्थित अध्यापकों के नाम याद हैं। लेकिन उनकी चर्चा फिर कभी। निजी जरूरत और अकादमिक अनाकर्षण ने रोजगार की ओर अधिक तेजी से उन्मुख कर दिया। रोजगार मिल गया। अकादमिक दुनिया को अलविदा कहने का मौका मिल गया। अध्यापक बनने का मौका, मोह तो था ही नहीं, छोड़ना अच्छा नहीं रहा। अध्यापक को जीवन में हजारों युवा का साहचर्य मिलता है। अध्ययन उनके लिए धर्म भी होता है और कर्म भी। तात्पर्य पढ़ने पढ़ाने, उसी से रोजगार पाने के लाभ का अवसर मिलता है। सृजनशील अध्यापकों को सृजन के संगी और साक्षी दोनों मिल जाते हैं। अकारण नहीं है कि कम-से-कम हिंदी साहित्य की सृजन भूमि के अधिकांश पर अकादमिक लोगों की दमक और धमक है।
सृजन और शिक्षण में गहरा संबंध होता है। सृजन करते हुए
मनुष्य सीखता है। सीखते हुए मनुष्य सृजन करता चलता है। सृजन और शिक्षण कभी अकेले
नहीं होता है। उत्कृष्ट सृजन उत्कृष्ट शिक्षण का और उत्कृष्ट शिक्षण उत्कृष्ट सृजन
का अवसर पैदा करता है। रूपक में कहें तो अच्छे छात्रों के बीच शिक्षक की
उत्कृष्टता बनती रहती है और अच्छे शिक्षक से शिक्षा पा कर छात्र उत्कृष्ट होते
चलते हैं। सह-सृजन और सह-शिक्षण में कार्य-कारण श्रृँखल संबंध होता है। सृजन और
शिक्षण सह-संभवा सामाजिक प्रक्रिया है। यहाँ,
समाज और भीड़ के एक अंतर को याद रखना जरूरी है। समाज में व्यक्ति का, या कह लें एक
का अनेक से, अभिन्न स्तरों पर दीर्घकालिक और बहुआयामी सचेत संपृक्ति या जुड़ाव
होता है। भीड़ में एक का अनेक से एकल स्तर पर अल्पकालिक एक आयामी और अचेत जुड़ाव
होता है। समाज से सृजन और भीड़ से संहार का अभिन्न संबंध होता है। समाज-तत्त्व
घटता गया तो सृजन की संभावनाएँ भी घटती गई, भीड़-तत्त्व बढ़ता गया तो संहार की
आशंकाएँ भी बढ़ती गई। समाज के भीड़ में बदलते जाने की चुष्चक्रीय-प्रक्रिया को
सृजन ही थाम सकता है।
एक का किसी दूसरे के संपर्क में आने पर समाज बन जाता है,
इसे इस तरह से भी समझा जा सकता है कि समाज-तत्त्व ही एक का दूसरे से अभिन्न स्तरों
पर दीर्घकालिक और बहुआयामी सचेत जुड़ाव का समवायी या सहकारी अवसर बनाता है। शिक्षण
कर्म की ही तरह, साहित्य सृजन भी सह-संभवा सामाजिक प्रक्रिया है। अन्य सृजन की तरह
ही, साहित्य भी अकेले-अकेले नहीं सिरजा जा सकता है। सृजन के लिए सर्जक को सक्रिय (Active नहीं, Cre-active) या निष्क्रिय (Inactive नहीं, Passive), गोचर या अगोचर सह-सृजक (Co-creator) जरूरी होता है। सह-सृजक आलोचनात्मक
संवाद और संवेद संपन्न दोस्त या प्रेमी-प्रेमिका हो सकता है। बस रूपक के तौर पर, अभिसार
में जैसी भूमिका दूती की होती है सृजन में वैसी ही भूमिका सह-सृजक की होती है। संगी
न हो तो सृजन कहाँ संभव! वे धन्य थे जिन्हें सृजन-संगी मिले
और उनके माध्यम से बेहतर साहित्य संभव हो सका। अब ऐसा धन्य-भाग कहाँ!
नमस्ते जीवन!
बिसर गया
जाने क्यों
सिर और मुकुट
रैपर
और तेरा मन! तेरा मन
सपना में भगवान
सपना में भगवान
गजब हो गया। गजब कि
सपना में आये। जी सपना में आये भगवान। पहले तो यकीन नहीं हुआ। फिर हुआ कुछ ऐसा कि
यकीन तो करना पड़ा। यकीन इसलिए करना पड़ा कि मेरी कुछ बातों की खबर उन्हें थी, ऐसा
उन्होंने इशारा-इशारा में जाहिर कर दिया। पहले तो मुझे लगा कि यह डाटा चोरी या साफ
कहें तो निजता में सेंध का मामला हो सकता है। मन विचलित हो गया। भगवान के अलावा
अन्य कोई किसी की निजता को इतने अविकल रूप में कोई जान ही नहीं सकता! प्रभु के अलावा कोई दूसरा अंतर्यामी तो हो नहीं सकता। सोचा तो इस तरह भी
जा सकता है कि की प्रभु बनाई निजता की किलेबंदी को प्रभु के अतिरिक्त इतनी सफाई से
कोई अन्य भेद ही नहीं सकता है। इस तरह सोचते हुए मुझे लगने लगा कि हो न हो यह
ईश्वर का ही कोई-न-कोई संस्करण ही हो सकता है। पुराने संस्करण के भगवान के प्रति
नास्तिकाना नजरिया रखना अलग बात है लेकिन इस नव अंतर्यामी भगवान को नकारा नहीं जा सकता
है। मैं सोच ही रहा था कि भगवान ने मुस्कुराकर कहा कि नास्तिकता पर सोच रहे हो?
इस पर इतना मत सोचो बालक! पता है कि तुम
नास्तिक हो। तुम्हारी नास्तिकता के खंडित होने की बात किसी को न कानो-कान खबर होगी,
न आँखों-आँख जाहिर होगी। मेरी बात सुनो। बहस में मत पड़ो जो माँगना हो जल्दी से
माँग लो अपने लिए, जमात की बात करो।
- माँग लो, मौका है।
- सोचा नहीं प्रभु।
- सोचने-समझने में
वक्त मत जाया करो। सोचना-समझना गये जमाने की लत है। जल्दी माँगो ... क्या दूँ!
- मैं ने कहा प्रभु! नत
मस्तक हूँ। आपके पास देने को बहुत है जो चाहे दे दें। बस अपना अहंकार न देना।
- दुष्ट मेरे अहंकार
की बात करता है!
मैं माफी माँगने के
लिए झुका तो झुकता ही चला गया। इतना झुका कि सपना टूट गया। हे प्रभु, इस टूटे सपना
को कहाँ रखूँ!