‘विशाल भारत’ में इलाहाबाद युनिवर्सिटी के तरुण ग्रेजुएट शिवदानसिंह चौहान का लेख छपा–‘भारत में प्रगतिशील साहित्य की आवश्यकता’। इसमें इन्होंने हिन्दी ही नहीं समस्त भारतीय भाषाओं के साहित्य पर यह राय ज़ाहिर की कि उसने कभी भी किसी तत्कालीन प्रचलित सामाजिक यथार्थवादी विचारधारा का दामन नहीं पकड़ा। उन्होंने भारत से बाहर विश्व की भाषाओं और उनके साहित्य पर विहंगम दृष्टि डालते हुए बताया कि साहित्यकारों में दो श्रेणियाँ हो गई हैं प्रगतिशीलों में ‘हेनरी बारबूज’, ‘एन्ड्री जीड’, ‘मेलराक्स’ वगैरह हैं। भारतीय लेखकों में केवल एक लेखक इनकी श्रेणी में आता है–मुल्कराज आनन्द। हिन्दी लेखक सुदर्शन और कौशिक का दृष्टिकोण प्रेमचन्द से भी ज्यादा सुधारवादी है। ‘भारत- भारती’ लिखने के बाद, मैथिलीशरण गुप्त की विचारधारा पतनोन्मुख होकर रामायण तथा महाभारत के कुछ प्राचीन युगों तक सीमित रह गई। हिन्दी-साहित्यकार हिटलर पर गर्व करते हैं, साम्यवादी रूस से घृणा करते हैं। इन्हें फटकारते हुए चौहान ने लिखा—“वे अभी इतने नादान हैं कि प्रगतिशील और प्रगतिविरोधी शक्तियों में भेद नहीं कर सकते, हालाँकि विश्व-साहित्य के कर्णधार बनने का ताव वे मूँछों पर रोज दिया करते हैं। एक छोटा-सा ज़रा रोचक उपन्यास लिख लिया, तो उसे वे टाल्सटाय की कब्र पर और रोमाँरोलाँ के सर पर पटक देते हैं, और कहते हैं, लो, देख लो, तुमसे अच्छा है।” जवाहरलाल नेहरू जिस ऊँचाई से हिन्दी साहित्य को देखते थे, शिवदानसिंह चौहान उससे कुछ और ऊँचे उठकर हिन्दी के पिद्दी लेखकों पर दृष्टिपात कर रहे थे। रहस्मवाद के बारे में विशेष रूप से उन्होंने लिखा कि साहित्य में इसका जन्म पूँजीवादी समाज की गिरती पतितावस्था का द्योतक है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बाद यह धारा प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी, तथा अनेक छोटे-मोटे कवियों के मुख से नि:वृत हो उठी। और आज इसका कोई ठिकाना नहीं। इसके बाद चौहान ने रहस्यवादियों पर एक अनमोल वाक्य लिखा: “इनमें से कुछ स्वभावत: प्रगतिशील भी हैं; लेकिन उनकी कविताएँ प्रगतिशील न होकर प्रतिक्रियावादी होती हैं।” निष्कर्ष यह: “इस छायावाद की धारा ने हिन्दी के साहित्य को जितना धक्का पहुँचाया, उतना शायद ही हिन्दू-महासभा या मुस्लिम लीग ने भारत को पहुँचाया हो।” ब्रिटिश उपनिवेश भारत के साहित्यकारों से साम्यवादी यथार्थवाद की राह पर चलने का आग्रह करते हुए चौहान ने लिखा कि यह एक युद्धात्मक, असहनशील क्रान्तिकारी धारा है। आरंभ में उन्होंने लेनिन के कुछ वाक्य उद्दत किये थे जिनका सारांश यह है कि मनुष्य ने अपने सम्पूर्ण विकास में जो संस्कृति अर्जित की है, उसका पूर्ण ज्ञान प्राप्त किये बिना सर्वहारा संस्कृति की समस्या हल नहीं की जा सकती; पूँजीवादी समाज में मनुष्य ने जो ज्ञान संचित किया है, उसका तर्कसंगत विकास ही सर्वहारा संस्कृति है। चौहान भारतीय साहित्य के समस्त विकास को अस्वीकार करके नये साम्यवादी यथार्थवाद की स्थापना का स्वप्न देख रहे थे और समझ रहे थे कि साहित्य में लेनिनवादी विचारधारा को लागू करने का यही तरीका है। एक दिन सबेरे आकर किसी भूमिका के बिना निराला ने कहा–इसे ठीक करना है। मैंने पूछा–किसे? उन्होंने कहा–वही, तुम्हारा मित्र मुखव्यादानसिंह। इस पर भी मैं कुछ न समझकर उनका मुँह देखता रहा तो वह बोले–वही जिसने ‘विशाल भारत’ में प्रगतिशील साहित्य पर लेख लिखा है। निराला ने हिसाब लगाया कि भुवनेश्वर, शिवदानसिंह चौहान वगैरह का प्रगतिशील दल उनके पुराने हितैषी बनारसीदास चतुर्वेदी के साथ मिलकर उन पर हमला कर रहा है। इसी वर्ष ‘विश्वभारती क्वार्टरली’ में ‘माँडर्न (पोस्टवार) हिन्दी पोएट्री’ पर लेख छपा। लेखक ऐस ० ऐच ० वात्स्यायन। इस लेख में वात्स्यायन ने सौंन्दर्यवादियों के आत्मकेन्द्रित व्यक्तित्व पर तीव्र आक्रमण किया। इस तरह के लोग नार्किसिस्ट होते है, अपनी ही छवि पर मुग्ध रहते हैं। पंत की ‘वीणा’ में इसके अनेक प्रमाण हैं। सौन्दर्यवादियों की मनोदशा के बारे में जो बातें कही गई हैं, वे सब सूर्यकान्त त्रिणठी निराला पर भी लागू होती हैं। सौन्दर्यवादी में जो खामियाँ होती हैं, वे निराला में और भी उभरकर दिखाई देती हैं। अहंकार की अतिशयता से उनकी कलात्मक क्षमता पथ-भ्रष्ट हो गई है। जानबूझ कर मौलिक बनने के प्रयत्न में उन्होंने कविता की बलि दे दी है। उनकी प्रारम्भिक रचनाएँ अक्सर अच्छी होती थीं लेकिन बाद को उन्हें ज़िद हो गई कि मुख्य काव्य-परम्परा जड़ हो गई है। उन्होंने रूढ़ियाँ तोड़ीं, यह श्रेय देने के बाद और कुछ कहना आवश्यक नहीं। “निल निसी बोनम–ऐंड ऐज़ ए लिटररी फोर्स, ऐट ऐनी रेट, निराला इज़ आलरेडी डेड।”
(साभार : रामविलास शर्मा : निराला की साहित्य साधना)